विज्ञान वार्ता |
कैंसर के इलाज
में मिली नई सफलताएँ फेफड़ों और त्वचा के कैंसरों के जीववैज्ञानिक इतिहास का पता लगा लिया गया है। दिसंबर 2009 में इंग्लैंड के सेंगर इंस्टीट्यूट में कैंसर जीनोम परियोजना में लगे वैज्ञानिकदल ने इन दोनों प्रकार के कैंसरों के मरीजों की बीमार कोशिकाओं के जीन में पाए जाने वाले अंतरों को ढूंढ लिया है जो कैंसर के कारण पैदा होते हैं। सेंगर इंस्ट्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने पहली बार त्वचा और फेफड़ों के कैंसर के मरीजों की कोशिकाओं के हर उस बदलाव को पहचाना है जो स्वस्थ कोशिका को कैंसर की स्थिति की ओर धकेलते हैं। यह खोज कैंसर के सटीक इलाज के रास्ते में मील का पत्थर है। अब कैसर कोशिकाओं के साथ-साथ शरीर की तेजी से बढ़ती स्वस्थ कोशिकाओं को भी खत्म कर देने वाली कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी की जगह सिर्फ कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को खत्म करने के तरीके ढूँढने में मदद मिलेगी। कैंसर से इनसान की लड़ाई अभी इसीलिए ज्यादा मुश्किल है क्योंकि इसके ज्यादातर रोगियों में बीमारी के लक्षण अंतिम अवस्था में जाकर ही स्पष्ट हो पाते हैं। इस अध्ययन को करने वाले प्रफेसर माइक स्ट्रैटन का कहना है, आज जो सफलता दिखाई दे रही है उसके कारण कैंसर को लेकर लोगों की सोच बदल जाएगी। यह कैंसर रिसर्च के इतिहास में एक शानदार खोज है। हमने कैंसर की परतों को इस तरह पहले कभी नहीं उतारा है। यह एक तरह से पुरातत्व विश्लेषण जैसा है। इस तरह से हमें कैंसर होने के साल भर पहले तक के तमाम चिह्न मिल गए हैं। अब इससे पता चल जाएगा कि कैंसर कैसे विकसित होता है और उसके कैसे बचा जाए। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2020 तक सभी कैंसर रोगी अपने ट्यूमरों का विश्लेषण करा सकेंगे ताकि वे उनके लिए उत्तरदायी जिनेटिक कमी को जान सकें। इसके बाद इस जानकारी के आधार पर आवश्यक इलाज खोजा जाएगा। वैज्ञानिकों ने 45 साल के मेलानोमा (त्वचा का कैंसर) से पीड़ित और 55 साल के स्मॉल सेल लंग कैंसर (फेफड़े के कैंसर) से पीड़ित पुरुषों की बीमार कोशिकाओं का उन्हीं की स्वस्थ कोशिकाओं के साथ मिलान किया और दोनों में अंतर ढूँढते गए। इस तरह दोनों प्रकार की कैंसर कोशाओं के जीन में म्यूटेशन (अचानक आए असामान्य बदलाव) को दर्ज किया। यह शोध त्वचा और फेफड़ों के कैंसर पर ही किया गया क्योंकि इन दोनों के होने में पर्यावरण के हाथ का पता लग चुका है। ज्यादातर मेलानोमा (त्वचा कैंसर) बचपन में ज्यादा विकिरण (अल्ट्रावॉयलट किरणों को झेलने) से और फेफड़े के कैंसर (जिन्हें स्मॉल-सेल लंग कैंसर भी कहते हैं) बीड़ी-सिगरेट के धुएँ से होते हैं। कैंब्रिज की इस टीम ने अमेरिकी शोधकर्ताओं के साथ काम करते हुए अनुमान लगाया है कि अगर कैंसर विकसित होने में औसतन 50 साल लगते हैं तो हर 15 सिगरेट पीने के बाद धूम्रपान करनेवाले के शरीर में ऐसा एक जेनेटिक बदलाव या म्यूटेशन होता है जो उसे कैंसर के एक कदम और नजदीक ले आता है। यह प्रक्रिया और तेज हो सकती है क्योंकि कोई भी यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि कैंसर पैदा करने वाला बदलाव कब होने वाला है। अध्ययन में पाया गया कि लंग कैंसर की कोशिकाओं में 23 हजार तरह के म्यूटेशन होते हैं जो केवल लंग कैंसर पीड़ित कोशाओं में ही होते हैं और स्वस्थ कोशाओं में कभी नहीं पाए जाते। त्वचा के कैंसर, मेलानोमा की बीमार कोशिका में 32 हजार प्रकार के म्यूटेशन पाए गए। लंग कैंसर के सभी म्यूटेशन यानी कोशिकाओं के जीन में बदलाव सिगरेट में पाए जाने वाले 60 तरह के रसायनों के कारण होते हैं जो डीएनए के साथ जुड़ कर उसे अपना सामान्य कामकाज करने से रोकते हैं और उसकी संरचना को बिगाड़ देते हैं। लंग कैंसर पर शोधदल का नेतृत्व करने वाले डॉ. पीटर कैंपबेल के मुताबिक - “हर 15 सिगरेटों का धुआँ स्वस्थ कोशिका के जीनोम में एक म्यूटेशन लाता हैं। और यह असर पहली सिगरेट से ही शुरू हो जाता है। यह तथ्य भयानक है क्योंकि कई लोग हैं जो हर दिन एक पैकेट सिगरेट का धुआँ पी जाते हैं।” विशेष बात यह है कि भारत में मुँह, गले और फेफड़ों के कैंसर के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। यहाँ मुँह का कैंसर कुल मामलों में से 45 प्रतिशत से ज्यादा है। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं। जबकि योरोप के देशों में जागरूकता के कारण यह आँकड़ा लगातार घट रहा है और 4-5 फीसदी के आस-पास तक पहुँच गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर साल 13 लाख से ज्यादा लोग फेफड़ों के कैंसर से मर जाते हैं। मानव कोशिकाओं में क्रोमोसोम के 23 जोड़े होते हैं जिनमें जनन द्रव्य (जेनेटिक मटीरियल) अक्षरों (A,G,C और T प्रोटीनों ) के तीन अरब जोड़ों के रूप में होता है। ये सभी अक्षर जिगसॉ-पजल के जोड़ों की तरह होते हैं जो किसी खास अक्षर से किसी खास तरफ से ही जुड़ते हैं। इन अक्षरों के जोड़ों में से किसी एक जोड़े में बदलाव आता है तो इसे म्यूटेशन कहा जाता हैं। एक अक्षर का जोड़ा दूसरे अक्षर से जुड़ जाए, या किसी का जोड़ा ही न मिले या किसी के दो जोड़े हो जाएँ, किसी सही जोड़ी का दोहराव हो जाए या किसी क्रोमोसोम शृंखला का कोई हिस्सा टूट जाए या फिर गलत तरीके से जुड़े हो तो यह म्यूटेशन कहलाता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि २०२० तक ब्लड टेस्ट जैसी सामान्य प्रक्रिया से हर व्यक्ति यह जानने में सक्षम हो सकेगा कि क्या उसके शरीर में वैसे बदलाव हो रहे हैं जो कैंसर पैदा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई धूम्रपान करनेवाला यह जानना चाहे कि क्या १५ सिगरेट पीने के बाद उसके शरीर में उस तरह का म्यूटेशन या जिनेटिक बदलाव हो गया है जो आगे चलकर कैंसर पैदा कर सकता है, तो अब यह जानकारी उसे पहले ही मिल सकेगी। 10 साल तक चलने वाली इस कैंसर जीनोम परियोजना में 50 तरह के कैंसरों के जीनोम और कोशिकाओं के म्यूटेशन का नक्शा बनाने की योजना है। आम कैंसरों के इस स्तर तक खुलासे के बाद इनका इलाज आसान हो जाएगा। हालांकि इलाज के पहले हर मरीज की अलग-अलग जेनेटिक मैपिंग करनी पड़ेगी जिसका फिलहाल खर्च कोई एक लाख डॉलर है, और डेढ़-दो साल बाद इसके करीब 20 हजार डॉलर हो जाने की उम्मीद है। और 10 साल बाद जबकि इस तरह का टारगेटेड इलाज बाजार में आ जाएगा, इस तरह की जेनेटिक मैपिंग भी सस्ती हो जाएगी। आज भले ही स्तन, रुधिर, त्वचा, फेफडे़, गर्भाशय और प्रोस्टेट आदि करीब डेढ़ दर्जन कैंसर आम हैं, पर मनुष्य करीब सौ तरह के कैंसर का शिकार हो सकता है। ऐसी अवस्था में इस खोज का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। रोगी के किस कैंसर में कौन सी दवा और उसकी कितनी मात्रा असरदार हो सकती है, यह जानकारी जेनेटिक कोड की ऐसी मैपिंग से ही मिलना संभव है। कैंसर फिलहाल हर साल दुनिया में ७० लाख लोगों की जान ले रहा है और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के मुताबिक भारत में इस समय इसके करीब २५ लाख रोगी हैं। कैंसर के मरीजों की इतनी बड़ी संख्या को देखते हुए मेडिकल साइंस में कीमोथेरपी से आगे बढ़कर नैनो टेक्नॉलजी और जेनेटिक कोड की मैपिंग जैसे तरीकों को प्रचलन में लाना बहुत जरूरी है। इसी से कैंसर के खिलाफ जंग और धारदार हो सकती है। २६ अप्रैल २०१० |