विज्ञान वार्ता | |
एस्पिरिन की कहानी |
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दर्द और ज्वर निवारक दवा एसिटिल सैलिसिलिक ऐसिड का प्रयोग आज दुनिया में सबसे अधिक किया जाता है। यह दवा ७० से अधिक देशों में एस्पिरिन के नाम से बिकती है। जर्मनी की बायर कंपनी अकेले सालाना ११ अरब गोलियों का उत्पादन करती है जो वजन में लगभग ५०,००० टन होता है। एस्पिरिन का जन्म भले ही १०० साल से पहले ६ मार्च १८९९ को हुआ हो, मगर इसके रासायनिक नाम एसिटिल सैलिसिलिक ऐसिड का प्रयोग २००० साल पहले से होता रहा है। |
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प्रदाह और ज्वर नाशक
यह न सिर्फ दर्द नाशक प्रदाह नाशक और ज्वर नाशक है बल्कि इसमें
खून के थक्के बनने से रोकने की भी क्षमता है। नए शोध के अनुसार
इस दवा का प्रयोग नलिका संरक्षण के लिए उपयुक्त पाया गया है।
वैसे तो यह रसायन प्राकृतिक रूप में पाया जाने वाला पदार्थ है
मगर इसे कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में बनाना भी संभव है।
सैलिसिलिक एसिड कई पत्तियों में पाया जाता है जैसे सफ़ेद बेंत
(सेलिक्स अल्बा), मैडने स्वीट (इस्पायरिया अलमारिया) और विंटर
ग्रीन (गाल्थेरिया प्रोकंबेंस)। बेंत के बारे में प्राचीन
सभ्यताओं को पूरी जानकारी थी। इसकी पत्तियाँ, कलियाँ और
विशेषरुप से इसकी छाल को दर्द नाशक के रूप में प्रयोग किया
जाता था। इसके अतिरिक्त धार्मिक कार्यों और जादू टोने में भी
बेंत की पत्तियों और छाल का उपयोग किया जाता था। असीरिया और
बेबीलोन की सभ्यताओं में भी चिकनी मिट्टी की गोलियों के रूप
में इसके प्रयोग का वर्णन मिलता है, जो दवा के रूप में प्रयोग
में लाई जाती थीं। इसी तरह से सुमेर की सभ्यता काल में भी इसका
प्रचलन था। प्राचीन यूनानी चिकित्सक (४६०-३७७ ईसा पूर्व) भी
दर्द खत्म करने के लिए बेंत की छाल का प्रयोग करते थे।
हालाँकि मध्यकालीन युग आते आते चिकित्सकों ने दर्द निवारक के
रूप में बेंत की छाल का प्रयोग धीरे धीरे बंद कर दिया। जिससे
यह सिर्फ लोकदवा के रूप में प्रयोग होने लगी थी। किंतु १८वीं
शताब्दी में बेंत की छाल की खोज दुबारा हुई तब चिपिंग मोर्टोम
स्टोन (ऑक्सफ़ोर्डशायर) ने रायल एशियाटिक सोसायटी के अध्यक्ष
को अपना अनुभव बताते हुए पत्र में लिखा था मेरे व्यवहारिक
अनुभवों से यह सामने आया है कि एक अँग्रेजी पेड़ की छाल ऐसे
शक्तिशाली पदार्थ का स्रोत है जो कंपकंपी और मलेरिया जैसे
रोगों के खिलाफ असरदार है।
इस तरह से बेंत की छाल के सक्रिय अवयव का जब पता चल गया तब
सैलिसिलिक अम्ल के दूसरे प्राकृतिक स्रोतों की खोज की जाने
लगी। यह काम भी आसानी से हो गया। क्यों कि इससे दवा तैयार करना
और प्रयोग में लाने में बहुत समय नहीं लगा। किंतु समस्या तब
पैदा हो गई जब इसका माँग तेज़ी से बढ़ने लगी। और उसे पूरा नहीं
किया जा सका। साथ ही इस अशुद्ध पदार्थ की खूराकों को लेकर भी
परेशानी होने लगी। इसके बाद ही इन समस्याओं से निबटने के लिए
दवा निर्माताओं का इस ओर ध्यान गया।
१८५३ में स्ट्रासबुर्ग चार्ल्स फ्रेड्रिक गेरहार्डस
(१८१६-१८५६) ने पहली बार सेलिसिलिक अम्ल का विश्लेषण करने में
सफलता प्राप्त की। रासायनिक प्रक्रियाओं में तकनीकी सुधार के
सफल होने के बाद इसके उत्पादन की अनुमति औद्योगिक स्तर पर दे
दी गई थी। इस दवा को बर्लिन के एक चैरिटी अस्पताल में गठिया के
गंभीर दर्द की दवा के रूप में प्रयोग में लाया गया था। तब यह
दवा बहुत ही बेस्वाद थी तथा पेट में इस अम्ल के काफी दूसरे तरह
के भी प्रभाव भी देखने को मिले। इसके बाद इसमें और सुधार की सोची
गयी।
सन १८९६ में एक जर्मन रंग सामग्री निर्माता फारबेनफाबरिकेन
फोर्म, फ्रेडर बायेर एंड कंपनी ने दवा रसायन के क्षेत्र में
शोध के लिए पहली बार प्रयोगशाला स्थापित की। उन्हीं दिनों दवा
के क्षेत्र में एक नवयुवक शोधकर्ता फेलिक्स ङौफमान सैलीसिलिक
अम्ल के विकल्प ढूँढने में लगे हुए थे। १० अगस्त १८९७ को
उन्होंने अपनी प्रयोगशाला की डायरी में लिखा था कि कैसे
उन्होंने पहली बार रासायनिक रूप से शुद्ध व स्थायी एसिटिल
सैलीसिलिक एसिड दवा तैयार की है। उस समय इस दवा विज्ञानी को
जरा भी अनुमान नहीं था कि एसिटिल सैलीसिलिक एसिड अगले सौ
साल के भीतर पूरी दुनिया में एक बहुत जरूरी दवा के रूप में काम
आएगा। इसके बाद कई रोग निदान के प्रयोग और सुधारों के बाद इस
रसायन के उपयोग के लिए काफी उत्साहजनक नतीजे मिले। तब कंपनी के
डायरेक्टर दवा उत्पादन के लिए प्रेरित हो गए और ६ मार्च १८९९
को बर्लिन के इंपीरियल पेटेंट ऑफिस में ट्रेडमार्क के रूप में
एस्पिरिन नाम का पंजीकरण करवाया गया। एस्पिरिन पहली बड़ी दवा थी जो गोलियों के रूप में बनाई और बेची गई थी। एक साल बाद उसे पाउडर के रूप में भी लाया गया था। एसमें एसिटिल सैलीसिलिक एसिड को स्टार्च के साथ मिलाकर खुराक तैयार की गई थी, जिससे पाउडर को पानी में घोलकर जरूरत के अनुसार खुराक बनाई जा सकती थी। देखते ही देखते एस्पिरिन काफी कारगर दवा के रूप में लोकप्रिय हो गई। क्योंकि सिरदर्द, दाँत दर्द, तंत्रिका और जोड़ों के दर्द, कफ, छींक जैसी समस्याओं से ग्रस्त मरीज़ के लिए यह दवा काफी कारगर सिद्ध हुई। १ फरवरी १९०० में अमेरिका के हौफमान को एसिटिल सैलीसिलिक एसिड के उत्पादन के पेटेंट को मंजूरी मिल गई थी और उसी साल इसका अंतर्राष्ट्रीय पंजीकरण हो गया। बावजूद इसके ५० सालों तक चिकित्सा जगत में यह प्रश्न ही बना रहा कि यह दवा काम कैसे करती है। सन १९७१ में लंदन के रायल कालेज ऑफ फिजीशियन में ब्रिटिश औषध विज्ञानी जॉव आर. वीने ने पहली बार उसकी मूल क्रियाविधि का पता लगया था। उन्होंने प्रोस्टाग्लैंडिस की उत्पत्ति के आधार पर इस दवा की कार्याविधि का प्रयोग किया और निष्कर्ष निकाला कि एसिटिल सैलीसिलिक एसिड प्रोस्टाग्लैंडिस के अवरोध के कारण काम करता है। इस प्रक्रिया में जैव रासायनिक क्रिया के लिए साइम्लो ऑक्सीनेज नामक एंजाइम की जरूरत होती है तथा एराकियोडिक एसिड से निश्चित प्रोस्टाग्लैंडियंस का निर्माण रुक जाता है। यह एक सनसनीखेज खोज थी, जिसके लिए वान को वर्ष १९८२ में चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बहरहाल वान की यह खोज जहाँ एसिटिल सैलीसिलिक एसिड के लिए काफ़ी लाभकारी साबित हुई, वहीं इस क्रम में नई खोजें आज भी जारी हैं। १९ अक्तूबर २००९ |