विज्ञान वार्ता | |
प्रजनन विज्ञान
एवं क्लोनिंग में |
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महाभारत में एक दृष्टांत है:
शक्तिशाली कुरू वंश के ज्येष्ठ परंतु अंधे राजकुमार धृतराष्ट्र
से विवाह के लिए न केवल सहमत होने बल्कि आजीवन स्वयं की आँखों
पर पट्टी बाँध कर संसार में अपने भावी पति की तरह कुछ भी न
देखने का निश्चय करने वाली दृढ़प्रतिज्ञ राजकुमारी गांधारी से
महर्षि व्यास अत्यंत
प्रभावित हुए। आशीर्वचन स्वरूप उन्होंने गांधारी को सौ पुत्रों
की माँ होने का वरदान दे दिया। समय आने पर गांधारी गर्भवती भी
हुईं। परंतु यह गर्भधारण-काल आश्चर्यजनक रूप से लंबा होता चला
गया। प्रतीक्षा करते-करते लगभग दो साल का समय बीत गया। इसी
अंतराल में धृतराष्ट के छोटे भाई पांडु की पहली पत्नी कुंती ने
युधिष्ठिर को जन्म दे दे दिया। उस समय की प्रथा के अनुसार कुल
का ज्येष्ठ पुत्र ही साम्राज्य का उत्तराधिकारी होता था।
साम्राज्य का अधिकार यों ही अपने जाए के हाथों से फिसलता देख
कर दुख एवं ईर्ष्या से दग्ध गांधारी ने अपने पेट पर ज़ोर-ज़ोर
से हाथ मारे। फलस्वरूप असमय प्रसव के कारण एक अपरिपक्व
मांस-पिंड का जन्म हुआ। गांधारी ने महर्षि व्यास को 'सौ पुत्रो
की माँ होने के आशीर्वचन' की याद दिलाई होगी और संभवत: ताना भी
मारा होगा। अपने वचन की लाज रखने के लिए महर्षि व्यास ने उस
मांस-पिंड के एक सौ एक टुकड़े किए एवं घी के अलग-अलग कुंभों मे
रख दिया। एक साल बाद पहला कुंभ खोलने पर उसमें एक स्वस्थ बालक
पाया गया, जिसका नाम दुर्योधन रखा गया। तत्पश्चात अन्य कुंभ भी
खोले गए। प्रत्येक से एक बालक एवं आखिरी कुंभ से एक बालिका की
प्राप्ति हुई। इस प्रकार गांधरी की सौ पुत्रों की माँ होने की
इच्छा-पूर्ति के साथ-साथ एक पुत्री की माँ होने का गौरव अलग से
मिला। सबसे बड़ी बात, महर्षि व्यास के आशीर्वचन की लाज भी बची। ये पौराणिक कथाएँ सच पर आधारित हैं या मात्र रचनाकार की कपोल कल्पना है? ना...ना मैं इस बहस में भी पड़ना नहीं चाहता। अगर उपरोक्त दृष्टांत मात्र रचनाकार की कपोल-कल्पना है तो उस रचनाकार को आज से हज़ारों साल पहले ऐसी परिकल्पना प्रस्तुत करने के लिए मेरा शत-शत प्रणाम और यदि यह सच पर आधारित है तो इससे आश्चर्यजनक और क्या हो सकता है? उपरोक्त दृष्टांत क्या प्रजनन-विज्ञान की उन ऊँचाइयों की झलक नहीं दिखा रहा है, जहाँ पहुँचने के लिए आज हम प्रयासरत हैं। अगर ध्यान से उपरोक्त दृष्टांत का विश्लेषण किया जाय तो कहानी कुछ यों बनती है - एक अभागी महिला जो गर्भ धारण तो अवश्य करती है परंतु कुछ अपरिहार्य कारणों से भ्रूण का विकास बेहद धीमा है या फिर अचानक रुक गया है। असमय गर्भपात से प्राप्त मांस-पिंड रूपी भ्रूण की कोशिकाएँ भ्रूणीय विकास की प्रारंभिक अवस्था में हैं। अभी भी उनमें विभेदीकरण (differentiation) की प्रक्रिया प्रारंभ नहीं हुई है। इन कोशिकाओं को अलग-अलग कर लिया जाता है एवं उन्हें विशेष प्रकार के पात्रों में प्रतिस्थापित किया जाता है जहाँ वही रासायनिक, भौतिक एवं जैविक परिस्थितियाँ कृत्रिम रूप से उपलब्ध कराई गई हैं जैसा कि गर्भाशय में होती हैं। यहाँ इन कोशिकाओं का संपूर्ण विकास होता है और प्रत्येक कोशिका से एक संतान का जन्म। या यों कहें कि संपूर्ण रूप से एक नहीं, दो नहीं, बल्कि 'एक सौ एक टेस्ट ट्यूब बेबीज़' का जन्म! इस पूरी कथा में वर्णित कुंभ एवं घी को आज के शाब्दिक अर्थों में नहीं देखा जाना चाहिए। संभवत: कुंभ का अर्थ यहाँ एक ऐसे पात्र से है जो कृत्रिम गर्भाशय का कार्य करता रहा हो एवं घी का अर्थ रसायनों के ऐसे संमिश्रण से है जो भ्रूणीय विकास के लिए पोषक तत्व प्रदान करते रहे हों। ऐसे कुंभ एवं घी के निर्माण की विधा का कहीं उल्लेख नहीं है। गोपनीयता शायद एक कारण रहा हो। आज भी सही मायने में टेस्ट ट्यूब बेबी मात्र एक परिकल्पना ही है। आज का आधुनिक विज्ञान शुक्राणु तथा डिंब को मानव शरीर से बाहर निकाल कर प्रयोगशाला की कृत्रिम परिस्थतियों में निषेचित करा सकने में सक्षम है तथा इस कृत्रिम निषेचन से प्राप्त युग्मक को कृत्रिम परिस्थितियों में ही शरीर के बाहर भ्रूणीय विकास की प्रारंभिक प्रक्रिया, कोशिका विभाजन के लिए भी प्रेरित कर सकता है। परंतु उसके आगे के भ्रूणीय विकास एवं संपूर्ण मानव शिशु के निर्माण हेतु कोशिका पिंड रूपी इस प्रारंभिक भ्रूण को संपूर्ण रूप से या फिर इससे अलग की गई कोशिकाओं को किसी मादा के गर्भाशय में पुनर्स्थापित करना ही पड़ता है। अब तक हम ऐसा कोई भी उपकरण नहीं विकसित कर पाए हैं जो कृत्रिम गर्भाशय का काम कर सके। हाँ, वर्तमान समय में स्टेम सेल तकनीकी क्षेत्र मे हो रहे अनुसंधान एवं प्रगति के बल भ्रूणीय विकास की प्रारंभिक अवस्था से कोशिकाओं को अलग कर प्रयोगशाला की कृत्रिम परिस्थतियों में एक ऊतक विशेष या फिर लीवर, इस्प्लीन या फिर आँख, नाक, कान, हृदय के कुछ भागों के विकास में आंशिक सफलता अवश्य मिल रही है (स्टेम सेल तकनीक के संबध में विस्तृत जानकारी हेतु देखें (http://www.abhivykti-hindi.org/vigyan_varta/2003/stem.htm) आशा है, निकट भविष्य में हम अपनी प्रयोगशालाओं मे कृत्रिम रूप से एक पूरे मानव अंग या फिर संपूर्ण मानव शिशु का विकास भी कर सकेंगे। लेकिन इस सफलता के लिए एक कृत्रिम गर्भाशय का विकास करना पहली शर्त है। गांधारी के दृष्टांत को और ध्यान से देखा जाए तो ऐसा लगता हे कि जाने-अनजाने महर्षि व्यास ने क्लोनिंग की नींव भी रख दी थी। गांधारी की सभी एक सौ एक संतानों का विकास एक ही भ्रूणीय पिंड से प्राप्त कोशिकाओं द्वारा हुआ था अत: उनमें शत-प्रतिशत अनुवांशिक समानता होगी ही। क्लोन्स की परिभाषा के अनुसार ये सभी संतानें एक-दूसरे की क्लोन तो होंगी ही, गांधारी की क्लोन्स भले ही न हो। क्लोनिंग संबंधी विस्तृत जानकारी हेतु देखें (http://www.abhivyakti-hindi.org/vigyan_varta/vigyan/2003/dolly.htm) हाँ, इसमें एक पेंच अवश्य है- एक ही प्रकार की भ्रूणीय कोशिकाओं से विकसित होने के कारण इन सभी एक सौ एक संतानों का लिंग भी एक होना चाहिए, तो फिर एक मादा संतान की उत्पत्ति कैसे हुई? म्यूटेशन द्वारा शायद ऐसा संभव है। ये सब तो चलिए, पुरानी बातें हैं। इनको यहीं छोड़ते हैं। आइए, अब हम आज की बात करें। आज-कल हम क्लोनिंग द्वारा अपना हम शक्ल उत्पन्न करने के प्रयास में लगे हुए हैं और वह भी शरीर की सामान्य कोशिकाओं द्वारा। डॉली की सफल उत्पत्ति के बाद तो इस दिशा में होड़ लगी हुई है। क्लोनिंग एवं स्टेम सेल तकनीकी क्षेत्र में नित नए-नए अनुसंधान सामने आ रहे हैं। इन अनुसंधानों ने निकट भविष्य में मानव क्लोनिंग एवं अंग-विशेष के प्रयोगशालाओं में उत्पादन की संभावना को प्रबल बना दिया है। इसे ले कर क्या वैज्ञानिक जगत, क्या राजनीतिक जगत, क्या व्यापारिक जगत... क्या साधारण जन...सभी में उत्सुकता है। कोई भी नया अनुसंधान चारों ओर हलचल मचा दे रहा है। और भी क्यों न? इनके बल, हम अपने लंबे जीवन से भी एक कदम आगे, अमरत्व के सपने जो देखने लगे हैं। ज़रा सोचिए, आप सशरीर नहीं तो कम से कम अपने क्लोन के रूप में तो ज़िंदा रह ही सकते हैं। हाँ व्यक्तित्व एवं स्मृति की समस्या अवश्य होगी। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि भविष्य में स्मृति-स्थानांतरण की तकनीक भी विकसित कर ली जाएगी। यदि यह नहीं भी संभव है तो पुराने जर्जर अंगों के स्थान पर नए अंग तो प्रतिस्थापित किए ही जा सकते हैं। बस अंग बदलते रहिए और चलते रहिए! इसी उत्सुकता को भुनाने और नाम कमाने की होड़ में फरेबी लोग ही नहीं, बल्कि कुछ वैज्ञानिक भी समय-समय पर शोशे छोड़ते रहते हैं। आइए ऐसे दावों की एक झलक देखी जाए:
असफलताएँ एवं खोखले दावे लोगों में निराशा उत्पन्न करते हैं। लेकिन वैज्ञानिक कभी हार नहीं मानते। वे किसी भी चीज़ को असंभव मानते ही नहीं। आशा की किरण कहीं न कहीं अवश्य छिपी रहती है। मानव क्लोनिंग की तरफ़ से निराश लोगों के मन में बंदरों की रेशस प्रजाति (लाल मुख वाले बंदर) की सफल क्लोनिंग के समाचार ने फिर से आशा की किरण जगा दी है। ये बंदर और हम मानव, दोनों ही स्तनधारियों के उच्चतम समूह प्राइमेट्स के सदस्य हैं। इन बंदरों की क्लोनिंग प्राइमेंट्स में क्लोनिंग की पहली सफलता है। इसके पूर्व किए गए गए सभी प्रयास असफल सिद्ध हुए थे। और यह माना जाने लगा था कि प्राइमेट्स में फिलहाल क्लोनिंग संभव नहीं हैं। लेकिन इस सफलता ने हमारे मन में फिर से यह विश्वास उत्पन्न कर दिया है कि शायद हम मानव क्लोनिंग के बेहद करीब हैं। आइए, देखा जाए कि इन बंदरो की क्लोनिंग कैसे की गई : - असफलता के
कारण नवंबर 2007 में पोर्टलैंड अवस्थित ऑरेगॉन हेल्थ एंड सांइंस यूनिवर्सिटी के तेरह वैज्ञानिकों ने डॉ. शोख़रात मितालीपोव के नेतृत्व में पहली बार इस समस्या पर विजय पाई है। आधारभूत तकनीक तो डॉली वाली यानी सोमैटिक सेल न्यूक्लिअर ट्रांसफ़र ही थी, जिसमें यह प्रयास किया गया कि एक दस साल के वयस्क बंदर के त्वचा की कोशिका के न्युक्लियस को किसी मादा के अंडाशय से प्राप्त डिंब की कोशिका में प्रतिस्थापित किया जाय। ऐसे 304 डिंबों से उनके अर्धसूत्री न्युक्लियस को बाहर निकालने के लिए नई इमेजिंग तकनीक का उपयोग किया गया, जिसे ऊसाइट (oosight) नाम दिया गया है। इस तकनीक में डिंब के न्युक्लियस को माइक्रोस्कोप द्वारा अच्छी तरह देखने के लिए उसे स्टेन करने या फिर अल्ट्रावायलेट किरणों से उद्भासित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मात्र पोलरॉयड प्रकाश के उपयोग से ही काम चल जाता है। परिणाम स्वरूप इनके न्युक्लियस को बिना उन प्रोटीन कांप्लेक्स (जिनकी आवश्यकता वयस्क शरीर की सामान्य कोशिका के न्युक्लियस को ऐसे डिंबों में प्रतिस्थापना के बाद पुनर्संरचित कर भ्रूणीय विकास हेतु कोशिका विभाजन के लिए होती है) को क्षति पहुँचाए ही डिंब से बाहर निकाला जा सका। इस विधा के उपयोग के बावजूद भी उपरोक्त 304 चार डिंबों में से मात्र दो डिंब ही ऐसे थे जिनमें भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हो सकी। इन लोगों द्वारा त्वचा के सामान्य कोशिकाओं के न्युक्लियस से युक्त लगभग 100 डिंबों को लगभग 50 मादा बंदरों के गर्भाशय में प्रतिरोपित कर क्लोन उत्पन्न करने का प्रयास किया लेकिन किसी में भी सफलता नहीं प्राप्त हुई। इस संदर्भ में इस टीम का कहना है कि यह मात्र भाग्य की बात है। डॉली की उत्पत्ति भी ऐसे 277 प्रयासों में एक सफल परिणाम थी। लेकिन प्रयोगशाला की पेट्रीडिशेज़ में भ्रूणीय विकास के रास्ते पर चल पड़े इन डिंबों से निर्मित हो रही कोशिकाओं को अलग कर स्टेम सेल की तरह इस्तेमाल किया एवं वयस्क शरीर के निर्माण में काम आने वाले कई प्रकार की ऊतक कोशिकाओं, यथा- हृदय एवं स्नायुतंत्र की वयस्क कोशिकाओं के उत्पादन में सफलता अवश्य हासिल की। यह सफलता अंधेरी सुरंग में दिखाई पड़ने वाली प्रकाश की एक क्षीण किरण के समान ही है परंतु इसने वैज्ञानिकों में मानव क्लोनिंग को लेकर एक नया उत्साह अवश्य जगा दिया है। मानव क्लोनिंग न भी सही, नाना प्रकार की ऐसी वयस्क कोशिकाओं का उत्पादन अवश्य संभव है जिनसे पार्किन्सन या फिर डायबिटीज जैसी असाध्य बीमारियों का उपचार सफलता पूर्वक किया जा सकता है। 24 दिसंबर 2007 |