व्यक्तित्व


रचनाधर्मिता के बृहस्पति- रामनरेश त्रिपाठी
अवध वैरागी


किसी भी हिंदी-प्रेमी के मानस-पटल पर कविवर रामनरेश त्रिपाठी का चित्र प्रतिबिंबित होते ही एक ऐसे मनीषी की छवि उभरती है, जो वास्तव में बहुश्र थे। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण, बाल-साहित्स सभी पर उन्होंने अधिकार के साथ लिखा। अपने युग के कवियों में वे बहुप्रशंसित बहुसमादृत और बहुप्रतिष्ठित रहे। हिंदी-साहित्य की सभी विधाओं में उन्होंने न केवल लिखा, बल्कि अभिनव प्रयोग किया। उनके बताये दिशा-निर्देशों पर चलकर अनेक कवियों और लेखकों ने हिंदी-साहित्य को विपुल संपदा से भरपूर किया। सच्चे अर्थों में रामनरेश त्रिपाठी रचना-धर्मिता के बृहस्पति थे।

पहला एकांकी नाटक

सन् १९३४ में त्रिपाठीजी द्वारा प्रणीत नाटक ‘जयंत’ तीन अंकों और छब्बीस दृश्यों से भरपूर एक ऐसा अभिव नाटक है, जिसमें दीन-दुखियों की करुणा का बड़ा सजीव व मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया गया है। इस नाटक में उन्होंने मानवीय घुटन, कुंठा तथा संत्रास को साकार और अंतवेंदना का चिरंतन चित्र प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार ‘अजनबी’ ‘प्रेमलोक’ ‘पैसा परमेश्वर’ आदि नाटकों में त्रिपाठीजी ने देश और समाज की समकालीन परिस्थितियों को इतिहास का अविस्मरणीय हिस्सा बनाया है। उनकी बहुज्ञता के बारे में जिज्ञासा व्यक्त करने पर उन्होंने एक अवसर पर कहा था- ‘कह तो दिया कि कोई विषय ऐसा नहीं’ जिस पर न लिख सकूं। पाक-शास्त्र से लेकर नापाक-शास्त्र तक सबमें मेरी अबाध गति है।’ ‘बा और बापू’ त्रिपाठी का, हिंदी का और संभवतः उत्तर भारत की किसी भी भाषा में लिखा गया पहला एकांकी नाटक है। बाबू देवकीनंदन खत्री, गोपालदास गहमरी और किशोरीलाल गोस्वामी की परंपरा को ‘लक्ष्मी और सुभद्रा’ नामक दो उपन्यासों की रचना कर त्रिपाठीजी ने न केवल आगे बढ़ाया बल्कि समृद्ध भी किया। त्रिपाठीजी के उपन्यास मन में कौतमहल जगाने के साथ-साथ पाठकों के सामने समस्या रखते हैं आर समाधान भी सुझाते हैं। ‘आंखों देखी कहानियां’ त्रिपाठीजी का ग्यारह कहानियों का संग्रह है। इन कहानियों में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन का यथार्थ प्रस्तुत किया गया है। वास्तव में आज जो रिपोर्ताज की शैली में रोचक और समसामयिक चित्रों में भरपूर लिखी जा रही कहानियों सत्यकथा आदि के प्रेरक वास्तव में त्रिपाठीजी ही रहे हैं। ‘‘तुलसीदास और उनकी कविता’’ हिंदी-समालोचना के क्षेत्र में त्रिपाठीजी की अत्यंत प्रसिद्ध कृति है। त्रिपाठीजी तुलसी-साहित्य के मर्मज्ञ के रूप में हिंदी-जगत में जाने जाते है। रामचरित-मानस के तो वे प्रख्यात व्याख्याता थे ही।

विभिन्न मत

आज गोस्वामी तुलसीदासजी क जन्म-स्थल के बारे में जोर-शोर से विवाद छिड़ा हुआ है। विद्वानों में तीन मत हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास का जन्म बांदा जिले में राजापुर में हुआ था। कुछ मानते हैं कि गोंडा जिले के किसी स्थान पर हुआ था। कई विद्वानों की राय में एटा जिले का सूकर-क्षेत्र तुलसीदासजी की जन्मस्थली है। कविवर रामनरेश त्रिपाठी ने एटा जिले में गोस्वामी का जन्म माना है। तुलसी जन्मस्थली के बारे में सोंरो (एटा) के पक्ष को प्रमाणित करते हुए ‘खेलत अवध खोरि, गोली भंवराचकडोरि’ के ‘चकडोरि’ शब्द के बारे में कहा है कि ब्रज और उसके आसपास के जिलों में भौंरा और चकडोरि खेलने का रिवाज बहुत है। अयोध्या, बनारस अथवा राजापुर में यह खेल नहीं खेला जाता। जबकि सोंरो (एटा) में इसका बड़ा प्रचार है। त्रिपाठीजी मानते हैं कि तुलसीदास का जन्म ऐसे स्थल पर हुआ था, जहां भौरां और चकडोरि खेलने का रिवाज बहुत था। रामचरितमानस और तुलसीदास के बारे में जितनी महत्वपूर्ण सम्मतियां अब तक प्राप्त हैं, उनमें कविवर रामनरेश त्रिपाठी की सम्मति और दृष्टिकोण अभिनव है। तुलसीदास ने अपनी काव्य-साधना में किन-किन भाषाओं के शब्दों का उपयोग किया है, उस पर अभूतपूर्व समालोचनात्मक दृष्टि त्रिपाठीजी की है। उदाहरण के तौर पर कवितावली की दो पंक्तियों को लें-
‘‘भई आस सिथिल जगन्निवास झील की।
कहैं मैं विभीषन की कछु न सबील की।’’
इन पंक्तियों में दिल फारसी का और सबील अरबी का शब्द है, जिन्हें राम के मुख से कहलाया गया है। ऐसे रहस्यों का उद्घाटन अभूतपूर्व है। अपने कथन के संदर्भ में त्रिपाठीजी के तर्क अकाट्य हैं। प्रमाण प्रस्तुत करने का उनका तरीका अद्भुत है।

त्रिपाठीजी अप्रतिम हिंदी-सेवी तो थे ही, साथ ही वे साहित्रू-सेवी, समाज-सेवी, राष्ट्र-सेवी और जन-सेवी भी थे। कवि-रूप में त्रिपाठीजी एक महान स्तंभ की तरह हैं। कविता में प्रयुक्त विभ्ज्ञिन्न प्रकार के छंदों को देखकर सहज ही भान होता है कि भाषा उनकी वशवर्तिनी हो गयी थी। वे जब जिस छंद में चाहते थे, भाषा अनके संकेतों का अनुसरण करती थी। ‘कविता कौमुदी’ के कई भागों के माध्यम से उन्होंने हिंदी-साहित्य का अभिनव इतिहास रचा और जीवन के सभी पक्षों पर कविता की कमनीय दृष्टि दौड़ायी ‘कविता-कौमुदी’ (पहला भाग) हिंदी में, जिसकी प्रस्तावना राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने लिखी, त्रिपाठीजी ने ‘हिंदी का संक्षिप्त इतिहास’ लिखा। इस इतिहास के माध्यम से उन्होंने ग्राम-गीतों के मर्म और उनकी सर्जना के पक्षों पर अद्भुत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। ग्राम-गीतों का संकलन करने वाले त्रिपाठीजी हिंदी के प्रथम कवि थे। त्रिपाठीजी को ग्राम-गीत कविता कौमुदी के पहले संस्करण पर निम्नलिखित विद्वानों की प्रशंसात्मक सम्मतियां प्राप्त हुई- महामना पंडित मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी, डॉ. भगवान दास, लाला लाजपत राय, सर सीताराम, विश्व कवि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर, बाबू रामानंद चटर्जी, महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित रामनारायण मिश्र, मिस्टर ए.जी. शेरिफ, राष्ट्रकवि बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पंडित अमरनाथ झा, डॉ. बाबूराम सक्सेना आदि।

लोक गीतों का प्रचलन

रेल को सौतन के रूप में इंगित करने वाले एक ग्राम-गीत की सरसता, मधुरता और मार्मिकता से कविवर रामनरेश त्रिपाठी इतना प्रभावित हुए कि वे ग्राम-गीतों के संग्रह में तन-मन-धन से जुट गये। ‘कविता-कौमुदी (तीसरा भाग)- ग्राम-गीत’ में त्रिपाठीजी ने लिखा- सन् १९२४ के आसपास की बात है। मैं प्रयाग से जौनपुर जा रहा था। भन्नौर-स्टेशन पर कुछ स्त्रियाँ, कुछ मर्दों को, जो कलकत्ते जा रहे थे, पहुंचाने आयी थीं और रो रही थीं। ट्रेन स्त्रियों को रोती हुई छोड़कर चल दी। कलकत्ते जाने वाले मर्द संयोग से थर्ड क्लास के उसी डिब्बे में आ बैठे थे, जिसमें मैं था। उनके साथ तीन-चार स्त्रियां भी थीं, जो अपने पररेशी पतियों के साथ या पास कलकत्ते जा रही थीं। रेल चलते ही स्त्रियां गाने लगीं। वह गीत यह है-
पुरुष से आई रेलिया पछिऊं से जहजिया
पिय के लादि लेई गई हो।
रेलिया होइ गयी मोर सवतिया पिय के लादि लेइ गइ हो।।
रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी उहै पइसवइ बैरी हो।
दसवा-देसवा भरमाइव उहै पइसवइ बैरी हो।।
भुखिया न लागै पिअसिया न लागै हमके मोहिया लागइ हो।
तोहरी देखिके सुरतिया हमके मोहिया लागइ हो।।
सेर भर गोहूंवा बरिस दिन खइवै पिय के जाइ न देबौ हो।
रखवै अंखिया हजुरवां प्रिय के जाइ न देवै हो।।
रेल की तुलना सौत से होती हुई सुनकर मैं एकाएक चौंक पड़ा। यह तो बिलकुल नयी उपमा है। किसी स्त्री ही ने यह गीत रचा होगा। नहीं तो, ऐसी मर्म की बात कहने की इस जमाने में फुरसत ही किसको ? क्या स्त्रियाँ भी कवितामय हृदय रखती हैं ? मैं यह बात सोचने लगा। रेल तो प्रत्यक्ष सौत का-सा कार्य करती है। वह पति को लेकर भाग जाती है। मुझे गीत रचने वाली के हृदय की सरसता बड़ी ही मधुर जान पड़ी। बस, इसी घटना के बाद से मैं ग्राम-गीतों की ओर आकर्षित हुआ हूँ।’’

कविवर रामनरेश त्रिपाठी का मानना था कि किसी भी भाषा-शास्त्री के लिए जनपदीय बोलियां कामधेनु की तरह हैं। इसका अमृतपान किये बिना जन-जीवन का मर्म नहीं समझा जा सकता।

व्यापक दृष्टिकोण

संस्था पुरुष त्रिपाठीजी के संपूर्ण कृत्य को एक आलेख या निबंध में समेटना बड़ा कठिन कार्य है। उनके व्यापक दृष्टिकोण को समझने के लिए उनकी कुछ काव्य-पंक्तियों पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। ‘पथिक’ के माध्यम से व्यक्ति को युग-बोध और जीवन-बोध देते हुए वे कहते हैं-
‘‘क्षमा, शांति, करुणा, उदारता, श्रद्धा, भक्ति, विनयिता।। सजनता, शृचिता, मनस्विता, मेघा मन निर्भयता।।
यह सम्पत्ति धरोहर प्रभु की तुम्हें मिली धरने को। अवसर पर प्रस्तुत रख जन-हित में वितरण करने को।’’
और फिर आदमी को आत्म-निरीक्षण भी करना है-
‘‘किसी के दोष जब कहने लगो तब
न तुम खुद दोष अपने भूल जाना।
किसी का घर अगर है कांच का तो
उसे क्यों चाहिए ढेले चलाना ?’’

तमाम मौकों पर तमाम तरह से आदर्शों की बातें करने के बावजूद-
‘‘कोई ऐसा पाप नहीं है
जो करने से बचा हुआ हो
फिर भी हम करते रहते हैं।
कोई ऐसा झूठ नहीं है
जो कहने से शेष रहा हो
फिर भी हम करते रहते हैं
कोई ऐसी मौत नहीं ह
जो जीवन में बदल चुकी हो
फिर भी हम मरते रहते हैं।’’

फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी सं. १९४६ दिनांक ४ मार्च, १८९० में जन्में और पौष शुक्ल एकादशी सं. २०१८ दिनांक १६ जनवरी, १९६२ को ७२ वर्ष की आयु में महाप्रयाण करने वाले कवि-सम्राट रामनरेश त्रिपाठी ने अपने जीवन-काल में लगभग सौ पुस्तकों का प्रणयन किया। आर्य भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय ‘प्रार्थना’’- ‘हे प्रभो ! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए’ के रचयिता त्रिपाठीजी ही थे। उनके-जैसा आशु-कव्य विरले ही कवियों में देखने को मिलता है।

१९५८ में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की ‘सम्मेलन पत्रिका’ के संपादक पंडित ज्योति प्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ द्वारा ‘हमारे पूर्वज’ शीर्षक एक कविता भेजने के आग्रह के उत्तर में त्रिपाठीजी ने ‘निर्मलजी’ को अपने गांव से ८ अप्रैल, १९५८ को एक कविता मयी पाती भेजी- डॉ. कोइरीपूर, जि. जौनपुर ८.४.५८।
अब तो चलते के दिन आये !
पता नहीं है जीवन का रथ किस मंजिल तक जाये। मन तो कहता ही रहता है, नियराये-नियराये।।
कर बोला जिह्वा भी बोली, पांव पेट भर धाये। जीवन की अनन्त धारा में सत्तर तक बह आये।।
चले कहां से कहां आ गये, क्या-क्या किये कराये। यह चलचित्र देखने ही को अब तो खाट-बिछाये।।
जग देखा, पहचान लिए सब अपने और पराये। मित्रों का उपकृत हूँ जिनसे नेह निछावर पाये।।
प्रिय निर्मल जी! पितरों पर अब कविता कौन बनाये? मैं तो स्वयं पितर बनने को बैठा हूँ मुँह बाये।
-रामनरेश त्रिपाठी

इसी प्रकार की कवितामयी पाती १९ अप्रैल, १९५८ को त्रिपाठीजी ने लखनऊ में अपने अत्यंत आत्मीय स्वतंत्रता-संग्राम के प्रमुख सेनानी, संस्कृत-हिंदी के उद्भट विद्वान् और आकाशवाणी के कर्मठ अधिकारी पंडित कमलापति मित्र को भी लिखी, जिसमें अंतरंगता को रेखांकित करती हुई कुछ मर्मस्पर्शी पंक्तियां और भी देखने को मिलती है। त्रिपाठीजी की इस पाती से भी लगता ह कि वे अपने जीवन की संध्या-बेला में काम का संकेत समझकर प्रयाण के लिए मानसिक तैयारी करने लगे थे- डॉ. कोइरीपुर, जि. जौनपुर १९.४.५८।

प्रिय कमलापति जी,
नमस्कार! सहृयता से भरा हुआ आपका ५.४.५८ का कोर्ड पाकर हर्ष हुआ। लखनऊ आने का विचार स्थगित कर देना पड़ा। नये फोड़े हाथ में निकल आये। डाक्टर की दवा चल रही है। यात्रा नहीं कर सकता।
अब तो चलने के दिन आये।
जीवन की अनंत धारा में सत्तर तक बह आये। पता नहीं, यह जर्जर नौका और कहां तक जाये।।
मैं सवार था, तब तो मनसा की तरंग पर धाये। अब तो फोड़ा ही सवार है, इसको कौर हटाये।।
चलता ही रहता हूं घर पर लेटे खाट बिछाये। मन तो कहता ही रहता है, नियराये-नियराये।।
किसने दिया, छीन कब लेगा, यह जब बिना बताये। कवि कोविद विज्ञान-विशारद कोई पता न पाये।।
ये ही प्रभु मनोरंजन के मुनियों के मन भाये। कहां-कहां बन-बीहड़ में वे अपने जनम बिताये।।
आंख मूंदकर चले राह में पग-पग ठोकर खाये। किंतु कुछ नहीं मिला फिर गये घर को बिना कमाये।।
मैं तो कुछ भी नहीं, मानकर अपने खले दिखाये। दिखा सका सो दिखा दिया अब कौन वृथा पछताये।।
चलने की बेरियाँ अब उठकर को पकवान बनाये। मित्रों का उपकृत हूँ, जिनके नेह-निछावर पाये।।
-रामनरेश त्रिपाठी

कविवर रामनरेश त्रिपाठी स्वर्गीय पंडित कमलपति मिश्र और उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री अरविंद मिश्र (संप्रतिः सहायक निदेशक, सूचना एवं जन संपर्क विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ) से मिलने लखनऊ प्रायः आते रहते थे। त्रिपाठीजी के लखनऊ प्रवास के दौरान मिश्रजी का निवास साहित्य-तीर्थ बन जाता था। आज भी त्रिपाठीजी पर शोध करने वाले बहुत से जिज्ञासु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक पहलुओं पर श्री अरविंद मिश्र से अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त करते हैं।

१७ फरवरी २०१४