स्वाभिमानी क्रान्तिकारी: प्रीतिलता
वाद्देदार
डॉ. उषा राय
घोड़े की
पीठ पर बैठकर रानी लक्ष्मीबाई ने अपने आदमियों से कहा-मैं
कभी जिन्दा शत्रु के हाथ नहीं लगूँगी, किंतु मेरे मरने पर
मेरा शरीर भी शत्रु के हाथ न लगे, उसका बन्दोबस्त तुम्हारे
हाथों में है। इस प्रकार युद्ध में जाने से पहले रानी ने
अपने शरीर का बन्दोबस्त किया और निश्चिंत होकर शत्रुमर्दन
किया। क्रान्तिकारी प्रीतिलता वाद्देदार भी नारी नारीत्व की अभिमानिनी थी। क्रान्ति का कार्य और शरीर रक्षा
दोनों अनिवार्य हैं। क्रान्तिकारी धर्म में पकड़े जाने पर
आखिरी मार्ग यही रहता है, कि आत्महत्या कर ली जाये। बहादुर
नारियों के लिए यह बहुत बड़ी बन्दिश है कि वे जीते जी शत्रु
के हाथ में न पड़ें, अन्यथा शरीर का अपमान हो सकता है,
अमानुषिक अत्याचार हो सकता है। इसलिए किसी भी कीमत पर शरीर
शत्रु के हाथ न लगे यह व्यवस्था करके, मन में दृढ़संकल्प
धारण करके ही प्रीतिलता वाद्देदार अंग्रेजों पर धावा करने
उतरी।
२४ सितम्बर १९३२ चटग्राम में, पहाड़ तले स्थित ’यूरोपियन
क्लब‘ पर धावा बोलना एक दुस्साहस भरा काम था, जिसे अंजाम
दिया प्रीतिलता वाद्देदार ने। चटगाँव क्रान्ति के जनक
सूर्यसेन ’मास्टर दादा‘ को पता चला कि आज ’यूरोपियन क्लब‘
में खाने पीने नाचने गाने का प्रोग्राम है। इस प्रोग्राम
में बड़े-बड़े अंग्रेज दिग्गज उपस्थित होने वाले हैं। उन
दिनों इन अंग्रेज दिग्गजों की दिग्गजयी सिर्फ इस बात पर
होती थी, कि उन्होंने कितने हिन्दुस्तानियों को और कितनी
बेरहमी से प्रताड़ित किया है। दलपति सूर्यसेन मास्टर दादा
ने अपनी प्यारी लाडली प्रीतिलता को पुकारा और मुस्कराकर
बोले-प्रीति हमेशा तू कहती है कि हमारे मास्टर को लड़कों पर
भरोसा है लड़कियों पर नहीं। जा! आज अपने भाइयों का नेतृत्व
तू सँभाल। आज के हमले की कमान मैं तुझे सौंपता हूँ।‘‘
प्रीतिलता यह सुनकर गद्गद् हो गयी, और उसने दलपति को एक
लम्बी सलामी ठोंकी। प्रीति ने स्वयं हमले की योजना बनायी।
सबसे पहले वस्त्रचयन-सभी क्रान्तिकारी देहाती मुसलमानों के
भेष में रहेंगे। लुंगी शर्ट और माथे पर दुपल्ली टोपी,
कन्धे पर गमछा होगा।
प्रीति ने स्वयं धोती पहनी और कछोटा बाँधकर हल्की पगड़ी
लगायी। वस्त्रचयन के बाद हमले की योजना बनायी गयी।
निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचकर कौन कहाँ से हमला करेगा, यह
प्रीति ने तय किया और सभी क्रान्तिकारियों ने हामी भरी।
कुल हमलावर थे आठ। शांति चक्रवर्ती, काली किंकर दे, सुशील
दे, महेश चौधरी, महेन्द्र, काली, वीरेश्वर, पन्ना सेन,
प्रफुल्लसेन, भोला, स्वयं मास्टर दादा आदि सभी लोग इस हमले
में शामिल थे। केवल रायफल और हथगोले हथियारों के नाम पर
थे। प्रीति के पास तलवार हथगोले और बन्दूक। सभी के मन में
गोरे अंग्रेजों के प्रति भरपूर नफरत थी। उन्होंने अपनी
आँखों के सामने देखा था, अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को
गाजरमूली की तरह काटते हुए, और उनके जुल्म के शिकार लोगों
को कीड़े मकोड़ों की तरह मरते हुए। उससे भी ज्यादा भारतीयों
को अपमानित करते हुए गोरे उन्हें पैरों से दुत्कार कर
नाचने गाने और पीने पिलाने में मस्त हो जाते थे। आज अवसर
मिला है प्रीति और उसके साथियों को उन भेड़ियों को मारने
का।
देशप्रेम और बलिदान की भावना ने प्रीति को असुरमर्दिनी बना
दिया। उसने निश्चित समय और निश्चित स्थान से ’यूरोपियन
क्लब‘ पर हमला बोल दिया। रह रहकर बम के धमाके और गोलियों
की वर्षा होने लगी। अपने कार्य को अंजाम देती हुई प्रीति,
हथियार बटोरती हुई प्रीति, हथियार अपने सूर्यसेन मास्टर
दादा के लिये क्योंकि वह जानती थी कि क्रान्ति की सफलता
बहुत कुछ हथियारों पर निर्भर करती हैं, प्रीति के साथ भोला
को गोली लग गयी और उसने प्राण त्याग दिये। प्रीति धीर वीर
और गम्भीर थी। उसने अपने साथियों को उनके नाम से पुकारा और
हमले के पैंतरे को बदला। उसका यह स्पष्ट आदेश था कि यदि
कोई गोरा हो उसे तुरन्त मौत के घाट उतार दो और यदि कोई
देसी हो तो उसे भाई समझकर माफ कर देना। किन्तु वहाँ से भगा
देना। हमला सौ प्रतिशत सफल रहा। कहीं कोई नहीं। चारों ओर
घूमकर देख लिया गया। प्रीतिलता ने सबसे कहा-
‘सब लोग गोल गोल होकर खड़े हो जाएँ, हम मातृ वन्दना करेंगे।
आज हमें आक्रमण में संपूर्ण विजय मिली है।’
विजय भी कोई मामूली नहीं, कुल तेरह गोरे मारे गये, और
ग्यारह मौत के कगार पर थे। विलायत का सिंहासन डोल गया इस
घटना से। लेकिन तभी उस पहाड़ तले ‘यूरोपियन क्लब’ के स्थायी
चौकीदार पुलिस बद्रीनारायण और उसके साथी वहाँ पहुँचे जहाँ
प्रीतिलता अपने एक-एक साथी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा
रही थी। बद्रीनारायण और उसके साथी ने ‘वन्दे मातरम्’ की
आवाज से यह जान लिया कि ये हमलावर कोई और नहीं भारतमाता के
ही लाड़ले हैं। ‘वन्दे मातरम्’ की समवेत आवाज से यह भी पता
चल गया कि उनमें से एक भारतमाता की लाड़ली भी है। इसी लाड़ली
को गोरों और दूसरे सिपाहियों की नजर से बचाने के लिये
धीरे-धीरे उसके पास पहुँचे लेकिन उल्टा हो गया। प्रीतिलता
ने सोचा कि जब तक ये शत्रु पास आये तब तक शरीर का इन्तजाम।
और एक गोली की धाँय। प्रीतिलता वाद्देदार की गरिमामय देह
धरती माँ पर कुर्बान होकर गिर पड़ी।
२४ सितम्बर १९३२ की ऐतिहासिक विजय के बाद उस दल की नेता ने
अपने आपको गोली मार ली, क्रान्ति के इतिहास में यह एक
अनोखी घटना थी। इस घटना का कारण कुमारी प्रीतिलता
वाद्देदार की गरिमामय नारी देह ही थी। जीते जी शत्रु के
हाथ में जाने से अच्छा है, मृत्यु को प्राप्त होना। वहाँ
कोई अंग्रेज नहीं केवल हिन्दू अथवा मुसलमान सिपाही थे।
सबने उसे बचाने की कोशिश की लेकिन वह दुनिया छोड़कर जा चुकी
थी। सबने इस वीर नारी के शरीर को सामने से हटाकर थोड़ी ऊँची
जगह पर रख दिया और इज्जत के साथ सर झुका लिया। इस
क्रान्तिकारी महिला ने क्रान्तिकारिता, वीरता, कुशल
नेतृत्व के साथ ही साथ दुनिया को नारीत्व की गरिमा का भी
पाठ पढ़ा दिया।
भारत भूमि अजेय रहे, जहाँ ऐसी महिलाएँ जन्म लेती हैं।
१६ सितंबर २०१३
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