व्यक्तित्व

अनुभूतियों के सशक्त चित्रकार

जगन्नाथदास रत्नाकर
कुमुद शर्मा


ब्रजभाषा काव्यधारा के अंतिम सर्वश्रेष्ठ कवि जगन्नाथदास ’रत्नाकर‘ आधुनिक हिंदी साहित्य में अनुभूतियों के सशक्त चित्रकार, ब्रजभाषा के समर्थ कवि और एक अद्वितीय भाष्यकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने खड़ीबोली के युग में जीवित व्यक्ति की तरह हृदय के प्रत्येक स्पंदन को महसूस करने वाली ब्रजभाषा का आदर्श खड़ा किया, जिसके हर शब्द की अपनी गति और लय है।

रत्नाकरजी हिंदी लेखन की ओर उस समय प्रवृत्त हुए जब खड़ीबोली हिंदी को काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने का व्यापक अभियान चल रहा था। आचार्य द्विवेदी, श्रीधर पाठक, पं. नाथूराम शंकर शर्मा जैसे लोग खड़ीबोली हिंदी को भारी समर्थन दे रहे थे, लेकिन काव्यभाषा की बदलती लहर रत्नाकर के ब्रजभाषा-प्रेम को अपदस्थ नहीं कर सकी। वे ब्रजभाषा का आँचल छोड़कर खड़ीबोली के पाले में जाने को किसी भी तरह तैयार नहीं हुए। जब उनके समकालीन खड़ीबोली के परिष्कार और परिमार्जन में संलग्न थे तब वे ब्रजभाषा की त्रुटियों का परिष्कार कर साहित्यिक ब्रजभाषा के रूप की साज-सँवार कर रहे थे। उन्होंने ब्रजभाषा का नए शब्दों, मुहावरों से ऐसा श्रृंगार किया कि वे सूर, पद्माकर और घनानंद की ब्रजभाषा से अलग केवल उनकी ब्रजभाषा बन गई, जिसमें उर्दू और फारसी की रवानगी, संस्कृत का आभिजात्य और लोकभाषा की शक्ति समा गई। जिसके एक-एक वर्ण में एक-एक शब्द में और एक-एक पर्याय में भावलोक को चित्रित करने की अदम्य क्षमता है।

रत्नाकरजी का जन्म सन् १८६६ में काशी में मुगल राजदरबार से जुड़े एक वैभव संपन्न परिवार में हुआ और निधन २२ जून, १९३२ को हुआ। वंशानुक्रम से मिली फारसी प्रारंभ में रत्नाकरजी की अभिव्यक्ति की संगिनी बनी। हिंदी का संस्कार उन्हें अपने हिंदी-प्रेमी पिता से मिला। स्कूली शिक्षा में उन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। काशी के क्वींस कॉलेज से उन्होंने बी.ए. की परिक्षा उत्तीर्ण की। जब वे जीविकोपार्जन की तरफ मुड़े तो वे अबागढ़ के खजाने के निरीक्षक, अयोध्या नरेश प्रताप नारायण सिंह तथा उनकी मृत्यु के बाद महारानी जगदंबा देवी के निजी सचिव नियुक्त हुए। अयोध्या में रहते हुए रत्नाकरजी की कार्य-प्रतिभा समय-समय पर विकास के अवसर पाती रही। महारानी जगदंबा देवी की कृपा से उनकी काव्य कृति ’गंगावतरण‘ सामने आई।

रत्नाकरजी की संवेदनशीलता ने बचपन में ही कविता में ढलना शुरू कर दिया था। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने उर्दू व फारसी के साथ हिंदी में कवित्त लिखना शुरू कर दिया था। वे ’जकी‘ उपनाम से उर्दू शायरी करते थे। बाद में उन्होंने ब्रजभाषा काव्य को ही अपना क्षेत्र बना लिया। काव्य सृजन के साथ-साथ उन्होंने अपनी पठन रूचि को भी बराबर विकसित किया। वे साहित्य, दर्शन, अध्यात्म, पुराण-सब पढ़ डालते। राजनीतिक उलझनों और कचहरी के मामलों में उनके काव्य-सृजर को मनमाना विस्तार भले ही न मिल पाया हो, लेकिन व्यस्तता के बावजूद उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य संपदा की वृद्धि करने वाली कृतियाँ रचीं। उनकी प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं-मौलिक काव्य: ’हिंडोल‘, ’हरिश्चंद्र‘, ’गंगावतरण‘, ’उद्धवशतक‘, ’कलकाशी‘, ’समस्यापूर्ति‘, ’जयप्रकाश‘, ’सर्वस्व‘, ’घनाक्षरी नियम रत्नाकर‘, ’गंगा विष्णु लहरी‘, ’रत्नाष्टक‘, ’वीराष्टक‘, ’प्रकीर्ण पदावली‘। संपादित: ’चंद्रशेखर कृत हमीर हठ’, कृपाराम कृत हिततरंगिणी‘ और ’दूलह कृत कंठाभरण‘, ’टीका बिहारी रत्नाकर‘, ’सुधासर‘, ’दीपप्रकाश‘। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी कवि पोप की प्रसिद्ध रचना ’एसे ऑन क्रिटिसिज्म‘ का रोला छंद में अनुवाद भी किया।

इन कृतियों में ’उद्धवशतक‘ और ’बिहारी रत्नाकर‘ को विशेष महत्व मिला। ’उद्धवशतक‘, ’भ्रमरगीत‘ परंपरा का विशिष्ट काव्य बना तो ’बिहारी रत्नाकर‘ ’बिहारी सतसई‘ पर लिखी गई कविताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया।

भक्तिकाल की भाव प्रवणता और रीतिकाल की श्रंगारिकता को उन्होंने अपनी कविता के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगा रिकता की खूबी यह रही कि इसके अंतर्गत भक्ति, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका ग्रंथ ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। श्रंगार रस के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो कवि स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं बल्कि हृदय की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणीब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है।

सच कहा जाये तो रत्नाकरजी ने अपनी कृतियों से की सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने अंलकारों के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो हिंदी में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज है।

आलोचकों को शिकायत रही कि रत्नाकरजी ने अपने काव्य में युगीन संदर्भो की अनदेखी की है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।

ब्रजभाषा काव्य परंपरा में भाव-व्यंजक भाषा और भावलोक के सशक्त चित्रों के कारण रत्नाकरजी साहित्य में हमेशा याद किए जाएँगे।

५ अगस्त २०१३