डॉ. पीतांबर बड़थ्वाल
कुमुद शर्मा
डॉ.
पीतांबरदत्त बड़थ्वाल हिंदी के ऐसे सुपुत्र हैं जिन्होंने
हिंदी में अनुसंधान और खोज परंपरा का प्रवर्तन किया तथा
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाबू श्यामसुंदर दास की परंपरा
को आगे बढ़ाते हुए हिंदी आलोचना को मजबूती प्रदान की।
उन्होंने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा को
अधिक सामर्थ्यवान् बना विकासोन्मुख शैली को सामने रखा।
अपनी गंभीर अध्ययनशीलता और शोध के प्रवृत्ति के कारण
उन्होंने हिंदी में प्रथम डी.लिट् होने का गौरव प्राप्त
किया। उनके शोध का
विषय था- हिन्दी काव्य मे निर्गुणवाद।
हिंदी साहित्य के फलक पर शोध प्रवृत्ति की प्रेरणा का
प्रकाश बिखरनेवाले बड़थ्वालजी का जन्म १३ दिसंबर, १९०१ को
उत्तर प्रदेश गढ़वाल में लैंस डाउन अंचल के समीप पाली गाँव
में हुआ और निधन २४ जुलाई, १९४४ को पाली मे ही हुआ।
बड़थ्वालजी ने अपनी साहित्यक छवि के दर्शन बचपन में ही करा
दिए थे। बाल्यकाल में ही वे ’अंबर‘ नाम से कविताएँ लिखने
लगे थे। किशोरावस्था में पहुँचकर उन्होंने कहानी लेखन
प्रारंभ कर दिया। १९१८ के ’पुरूषार्थ में उनकी दो कहानियाँ
प्रकाशित हुई। कानपुर में अपने छात्र जीवन के दौरान ही
उन्होंने ’हिलमैन‘ नामक मासिक पत्रिका का
संपादन करते हुए अपनी
संपादकीय प्रतिभा को भी प्रदर्शित किया।
जिस समय बड़थ्वालजी में साहित्यिक चेतना जगी उस समय हिंदी
के समक्ष अनेक चुनौतियाँ थीं। कठिन संघर्षों और प्रयत्नों
के बाद उच्च कक्षाओं हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था तो हो
गई थी, लेकिन हिंदी साहित्य के गहन अध्ययन और शोध को कोई
ठोस आधार नहीं मिल पाया था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाबू
श्यामसुंदर दास जैसे रचनाकार आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय
थे। बड़थ्वालजी ने इस परिदृश्य में अपनी अन्वेषणात्मक
क्षमता के सहारे हिंदी क्षेत्र में शोध की सुदृढ़ परंपरा की
नींव डाली।
संत साहित्य के संदर्भ में स्थापित उनकी नवीन मान्यमाओं ने
उनकी शोध क्षमता को उजागर किया। उन्होंने पहली बार संत,
सिद्ध, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज और विश्लेषण में अपनी
अनुसंधानात्मक दृष्टि को लगाया। शुक्लजी से भिन्न उन्होंने
भक्ति आंदोलन को हिंदू जाति की निराशा का परिणाम नहीं
अपितु उसे भक्तिधारा का सहज-स्वभाविक विकास प्रमाणित कर
दिया। इस संदर्भ में लिखे उनके शोध लेख उनकी गंभीर अध्ययन
और मनन शक्ति के साथ-साथ उनकी मौलिक दृष्टि के भी परिचायक
हैं। परिवर्ती साहित्यकारों ने उनकी साहित्यिक मान्यताओं
को विश्लेषण का आधार
बनाया।
बाबू श्यामसुंदर दास के निर्देशन में अंग्रजी में लिखे उनक
शोध प्रबंध ’द निर्गुण स्कूल ऑफ हिंदी पोयट्री‘ पर काशी
विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट, की उपाधि प्रदान की।
हिंदी साहित्य जगत में उस शोध प्रबंध का जोरदार स्वागत
हुआ। उसे भूरि-भूरि प्रशंसा मिली। प्रयाग विश्वविद्यालय के
दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. रानाडे ने इस पर अपनी
सम्मति व्यक्त करते हुए कहा कि ’यह केवल हिंदी साहित्य की
विवेचना के लिए ही नहीं अपितु रहस्यवाद की दार्शनिक
व्याख्या के लिए भी एक महत्वपूर्ण देन है।‘ बाद में यह शोध
प्रबंध ’हिंदी में निर्गुण संप्रदाय‘ नाम से प्रकाशित हुआ।
यह सच है कि हिंदी जगत् में बड़थ्वालजी ने अपनी शोध
प्रवृत्ति और समीक्षा दृष्टि के कारण ही पहचान बनाई, लेकिन
उनके ’कणेरीपाव‘, ’गंगाबाई‘, हिंदी साहित्य में उपासना का
स्वरूप‘, कवि केशवदास जैसे विचारात्मक निबंधों में उनकी
निबंध कला का उत्कर्ष देख उनके निबंधकार रूप को भी हिंदी
संसार में भरपूर सराहना मिली। उनके प्रकाशित निबंध संग्रह
हैं-’योग प्रवाह‘ (सं. डॉ. संपूर्णानंद), ’मकरंद‘ (सं. डॉ.
भागीरथ मिश्र), ’डा. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के श्रेष्ठ निबंध
(सं. गोविंद चातक) हिंदी के अतिरिक्त अंग्रजी में भी
उन्होंने कुछ श्रेष्ठ साहित्यिक निबंध लिखे,
जिनमें-मिस्टिसिज्म इन
हिंदी पोयट्री‘ और
’मिस्टिसिज्म इन कबीर‘ विशेष उल्लेखनीय हैं।
बड़थ्वालजी के निबंधों की विशेषता यह है कि निबंध का मूल
भाव प्रारंभ में ही स्पष्ट हो जाता है। निबंध के प्रारंभिक
वाक्य रोचक प्रस्तावना की तरह उभरते हैं। फिर लेखक विषय की
गहराई में उतरता चला जाता है। तार्किक ढंग से विषय सामग्री
को सजाकर वह पाठक को लुभाते हुए बड़ी रोचकता और जिज्ञासा के
साथ विषय के निष्कर्ष तक पहुँचाता है। शोध लेखों और
निबंधों के अतिरिक्त उन्होंने ’प्रणायाम विज्ञान और कला‘
तथा ’ध्यान से आत्मचिकित्सा‘ जैसी पुस्तकें लिखकर
प्राकृतिक चिकित्सा और योग प्रणाली में अपनी रूचि प्रकट
की। गढ़वाली लोक-साहित्य की तरफ भी उनका गहरा रुझान था।
बच्चों के लिए उन्होंने ’किंग आर्थर एंड नाइट्स ऑव द राउंड
टेबल‘ का हिंदी अनुवाद भी किया।
शोधकर्ता और निबंधकार के साथ-साथ बड़थ्वालजी अपनी दार्शनिक
प्रवृत्ति के लिए भी विख्यात थे। आध्यात्मिक रचनाओं को
उन्होंने अपने अध्ययन का आधार बनाया। उन्होंने धर्म,
दर्शन, और संस्कृति की विवेचना की। उनका समूचा लेखन उनकी
गहरी अध्ययनशीलता का ही परिणाम है। कहा जाता है कि
मस्तिष्क की दासता उनके स्वभाव के विपरित
थी। एक-एक पंक्ति को
प्रकाशित होने से पहले कई बार लिखते हुए उन्हें देखा गया।
बड़थ्वालजी हिंदी के सच्चे सेवी थे। तर्काधारित और प्रमाणों
से पुष्ट अपनी मान्यताओं को उन्होंने मँजी हुई भाषा एवं
कसे हुए वाक्यों में व्यक्त किया। लेकिन उनके कसे हुए
वाक्य-विन्यास और मँजी तथा सधी भाषा सहज और व्यावहारिक ही
रही। उन्होंने स्वयं कहा, 'भाषा फलती-फूलती तो है साहित्य
में, अंकुरित होती है बोलचाल में, साधारण बोलचाल पर बोली
मँज-सुधरकर साहित्यिक बन जाती है।‘ इस तरह भावाभिव्यजंन के
लिए उन्होंने जिस शैली को अपनाया उसमें उनका सर्वाधिक
ध्यान भाषा पर ही रहा। उन्होंने संस्कृत, अवधि, ब्रजभाषा,
अरबी एवं फारसी के शब्दों को खड़ीबोली के व्याकरण और
उच्चारण में ढालकर अपनाया।
बड़थ्वालजी निश्चय ही विपुल साहित्य की सर्तना करते, यदि वे
लंबी उम्र लेकर आते। डॉ. संपूर्णानंद ने ठीक ही कहा है,
’यदि आयु ने धोखा न दिया होता तो वे और भी गंभीर रचनाओं का
सर्जन करते।‘ अल्पावधि में ही उन्होंने अध्ययन और अनुसंधान
की जो सुदृढ़ नीव डाली उसके लिए वह हमेशा याद किए जाएँगे।
१ अक्तूबर २०१२
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