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					 १ प्रेमचंद जयंती के अवसर पर
 
					मजदूर फिल्म की 
					नायिका बिब्बो-डॉ. गौतम 
					सचदेव
 
 बहुत 
							कम लोग जानते हैं कि एक साल से भी कम समय के लिये 
							मुम्बइया फ़िल्मों से जुड़ने वाले प्रेमचंद ने सन् 
							१९३४ में मज़दूर उर्फ़ मिल नाम की जिस फ़िल्म की पटकथा 
							लिखी थी, उसकी नायिका कौन थी – वह थी बिब्बो। उसका 
							असली नाम था इशरत सुल्ताना। इशरत सुल्ताना का जन्म 
							पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाज़ार के समीपवर्ती इशरताबाद 
							नामक इलाक़े में हुआ था। उसकी माँ हफ़ीज़न बाई कोठे पर 
							नाचने-गाने वाली तवायफ़ थी। इशरत सुल्ताना के आरम्भिक 
							जीवन के बारे में बहुत-सी बातें अज्ञात हैं या 
							विवादास्पद हैं, जैसे कि उसका जन्म कब हुआ, उसके पिता 
							का क्या नाम था और उसका नाम बिब्बो किसने रखा। यदि 
							फ़िल्मों में प्रवेश के समय उसकी उम्र २० वर्ष की रही 
							हो, तो कह सकते हैं कि उसका जन्म सन् १९१२ के आसपास 
							हुआ था और २०१२ उसकी जन्मशती का वर्ष है। उसका नाम 
							बिब्बो रखे जाने के बारे में दो सम्भावनाएँ हो सकती 
							हैं – या तो उसने उस समय की हिन्दी फ़िल्मों के अनेक 
							अभिनेताओं के समान अपना नाम बदल लिया था या बिब्बो 
							उसका घर का नाम था। बिब्बो की 
					पहली फ़िल्म के बारे में पहले कुछ लोगों का विचार था कि यह 
					१९३१ में बनी हिन्दी की पहली सवाक् फ़िल्म आलम आरा थी, जिसमें 
					उसने एक गौण भूमिका निभाई थी, लेकिन प्रामाणिक स्रोतों के 
					अनुसार उसकी पहली फ़िल्म १९३३ में बनी मायाजाल थी। बिब्बो के 
					अभिनय की शुरू में ही सराहना होने लगी थी, इस लिये बहुत जल्दी 
					वह हिन्दी सिनेमा की एक प्रमुख अभिनेत्री बन गई। मायाजाल 
					फ़िल्म की निर्देशक थी शान्ति दवे और निर्माता थे अजन्ता 
					सिनेटोम कम्पनी के मालिक मोहन भवनानी। मोहन भवनानी ने ही 
					प्रेमचंद को मुम्बई बुलाया था, उनके साथ पटकथाएँ लिखने का 
					अनुबन्ध किया था और उनकी मज़दूर फ़िल्म का निर्देशन भी किया 
					था। 
 खेद है कि लोग बिब्बो जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री, गायिका और 
					संगीत निर्देशक को भूल गये, लेकिन भारतीय और पाकिस्तानी 
					फ़िल्मों में बिब्बो का सचमुच ऐतिहासिक महत्त्व है। उसने 
					प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य कथाकार की पहली और एकमात्र फ़िल्म में 
					नायिका की भूमिका अदा की और वह हिन्दी फ़िल्मों की पहली महिला 
					संगीत निर्देशक थी। उत्कृष्ट अभिनय के लिये उसे पहला सम्मान 
					भारत में नहीं, पाकिस्तान में मिला था - ‘निगार’ नामक सम्मान। 
					आम तौर पर यह माना जाता है कि अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दन 
					बाई मुम्बइया फ़िल्मों की पहली महिला संगीत निर्देशक थी, लेकिन 
					सच्चाई यह है कि उसने सन् १९३५ में बनी तलाशे-हक़ नामक फ़िल्म 
					से पहले किसी फ़िल्म का संगीत निर्देशन किया था, जबकि बिब्बो 
					ने उससे एक वर्ष पहले यानि सन् १९३४ में अदले-जहाँगीर फ़िल्म 
					का संगीत निर्देशन किया था। बिब्बो ने १९३७ में एक और फ़िल्म 
					क़ज़्ज़ाक की लड़की में भी संगीत दिया था, जो उसने अपने पति के 
					साथ मिलकर बनाई थी। अगर इन दोनों संगीत निर्देशकों की फ़िल्मों 
					की संख्या के आधार पर तुलना करें, तो जद्दन बाई निश्चय ही 
					बिब्बो से आगे थी, क्योंकि उसने कम-से-कम चार अन्य फ़िल्मों 
					में भी संगीत दिया था, जिनके नाम हैं हृदय मन्थन (१९३६), मैडम 
					फ़ैशन (१९३६), जीवन स्वप्न (१९३७) और मोती का हार (१९३७)।
 
 बिब्बो को घुट्टी में संगीत मिला था और वह जन्म से ही अपनी माँ 
					हफ़ीज़न बाई को नाचते-गाते देखती आ रही थी। फ़िल्मों में आते 
					ही बिब्बो ने गाना भी शुरू कर दिया था और इस क्षेत्र में भी 
					अपना सिक्का जमाया था। उस समय की सारी अभिनेत्रियाँ गाती थीं, 
					क्योंकि हिन्दी फ़िल्मों में अभी पार्श्व गायन शुरू नहीं हुआ 
					था। बिब्बो भी उन जैसी ही लोकप्रिय थी। उस समय की कुछ 
					गायिका-अभिनेत्रियों के नाम हैं शान्ता आप्टे, ख़ुर्शीद, कानन 
					देवी, देविका रानी, रतनबाई (शोभना समर्थ की माँ), रेणुका देवी, 
					सरदार अख़्तर (महबूब ख़ाँ की पत्नी), नसीम (सरदार अख़्तर की 
					बहिन) और उमा देवी आदि। सम्भव है बिब्बो ने प्रेमचंद की मज़दूर 
					फ़िल्म में भी कोई गाना गाया हो, लेकिन इसका कहीं कोई उल्लेख 
					नहीं मिलता। सन् १९३० और १९४० के दशकों की हिन्दी फ़िल्मों के 
					गानों के प्रशंसक आज भी बिब्बो के गानों को याद करते हैं, 
					जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं – ओ जादूगर मतवाले, तुमने मुझको 
					प्यार सिखाया और ख़िज़ाँ ने आके चमन को उजाड़ देना है। 
					उपर्युक्त तीनों गानों के सहगायक सुरेन्द्र हैं। इनके अलावा 
					बिब्बो ने और भी कई गाने सुरेन्द्र के साथ गाये थे।
 
 अभिनेत्री के रूप में मज़दूर में बिब्बो ने एक आदर्शवादी मिल 
					मालिक की भूमिका अदा की थी और उसका नाम था पद्मा। इस फ़िल्म 
					में कपड़ा मिलों के शोषित मज़दूरों के जीवन का यथार्थ चित्रण 
					किया गया था, लेकिन व्यापक रूप से इसपर प्रेमचंद के आदर्शवाद 
					की पूरी छाप थी। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि 
					अगर मालिक उदार, दयालु और मज़दूरों का हितचन्तक हो, तो न केवल 
					मज़दूर ख़ुश रहते हैं, बल्कि वे मेहनत भी ज़्यादा करते हैं। 
					इसके विपरीत अगर मज़दूरों पर अत्याचार किया जाए, तो वे मालिकों 
					से झगड़ा करते और हड़तालें करते हैं। इससे वे अपने वेतन का 
					नुकसान तो करते ही हैं, मालिकों और देश की अर्थव्यवस्था को भी 
					हानि पहुँचाते हैं। दो घंटे पैंतीस मिनट की इस सुखान्त फ़िल्म 
					की शूटिंग एक मिल में की गई थी और मज़दूरों को मशीनों पर 
					साक्षात् काम करते दिखाया गया था। भारतीय फ़िल्मों के इतिहास 
					में इस तरह की लोकेशन शूटिंग पहली बार की गई थी, क्योंकि तब तक 
					स्टूडियो में सेट लगाकर ही शूटिंग कर ली जाती थी।
 
 मज़दूर की कहानी संक्षेप में यह है कि एक बहुत ही सज्जन और 
					दयालु मिल-मालिक था, जिसकी मृत्यु होने पर उसकी बेटी पद्मा और 
					बेटा विनोद मिलकर मिल को चलाने लगते हैं। दोनों के चरित्र और 
					स्वभाव में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। पद्मा अपने पिता के समान 
					बड़ी दयालु, उदार और मज़दूरों के हितों का ध्यान रखने वाली है, 
					लेकिन विनोद आवारा, शराबी और अत्याचारी है। वह मज़दूरों की 
					उपेक्षा ही नहीं करता, उनके साथ निर्मम व्यवहार भी करता है, 
					जिसके कारण वे हड़ताल कर देते हैं। पद्मा अपने एक मित्र कैलाश 
					के साथ उन मज़दूरों के आन्दोलन का नेतृत्व करती है। यह देखकर 
					विनोद को ग़ुस्सा आता है और वह पद्मा की पिटाई करता है। मामला 
					पुलिस के पास पहुँचता है और विनोद को जेल की सज़ा हो जाती है। 
					मिल को फिर से चालू करने और मज़दूरों को काम पर वापस लाने के 
					लिये आख़िर गाँव की पंचायत के सरपंच को बुलाया जाता है और वह 
					आकर दोनों पक्षों में समझौता कराता है। पद्मा के अनुरोध पर 
					मज़दूर फिर से काम पर आ जाते हैं और वह अपने पिता के समान मिल 
					को फिर से बड़ी कुशलता से चलाने लगती है। इसके बाद उसकी अपने 
					मित्र कैलाश से शादी हो जाती है।
 
 इस फ़िल्म में विनोद की भूमिका एस.बी. नायमपल्ली ने अदा की थी 
					और कैलाश की भूमिका जयराज ने। फ़िल्म के कुछ अन्य प्रमुख 
					अभिनेता थे – ताराबाई (कैलाश की माँ), ख़लील आफ़्ताब (मिल का 
					मैनेजर), अमीना अन्नबी (कामकाजी औरत) और एस.एल. पुरी (मिल का 
					फ़ोरमैन)। मज़दूरों का अभिनय करने वाले अभिनेताओं में 
					उल्लेखनीय हैं भूडो आडवानी, नवीन याज्ञिक, एफ़.एस. शाह और अबू 
					बकर। मोहन भवनानी की इच्छा थी कि प्रेमचंद भी अपनी फ़िल्म में 
					अभिनय करें, लेकिन उन्होंने इससे पहले कभी अभिनय किया नहीं था। 
					वे पहले तो इनकार करते रहे, लेकिन जब भवनानी ने बार-बार आग्रह 
					किया, तो वे इस शर्त पर राज़ी हुए कि मैं अपनी घुटनों तक ऊँची 
					साधारण धोती और कुर्ता पहनूँगा। दो-तीन मिनट की छोटी-सी भूमिका 
					में प्रेमचंद को अपने दैनंदिन जीवन जैसा व्यवहार करना था, फिर 
					भी उनका अभिनय बहुत अच्छा रहा। अन्य अभिनेता इतने बड़े लेखक के 
					साथ काम करके वैसे ही बड़े ख़ुश थे। जब उन्होंने उन्हें अपने 
					बीच एक अभिनेता के रूप में पाया तो और भी गर्व का अनुभव करने 
					लगे। स्वयं प्रेमचंद ने अपने एक पत्र में लिखा था कि कम्पनी के 
					सारे कर्मचारी और अभिनेता मेरी बहुत इज़्ज़त करते हैं। मज़दूर 
					फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी बी. मित्रा ने की थी और उसके संगीत 
					निर्देशक थे बी.एस. हूगन। फ़िल्म की कहानी को पूरी तरह से 
					प्रेमचंद की कहानी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने केवल अजन्ता 
					सिनेटोन द्वारा सुझाये कथाबिन्दुओं को ही अपनी पटकथा में ढाला 
					था और इसके संवाद भी लिखे थे।
 
 मज़दूर फ़िल्म मज़दूरों की समस्याओं को उजागर करने वाली 
					सामाजिक फ़िल्म थी, लेकिन आज यह सिर्फ़ इतिहास की चीज़ बनकर रह 
					गई है। न उसकी पटकथा और प्रिंट मिलते हैं और न ही कोई कतरन, 
					लेकिन प्राप्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि उस ज़माने में उसकी 
					काफ़ी चर्चा हुई थी और एशिया नामक प्रसिद्ध अमरीकी पत्रिका तक 
					में उसका बहुत अच्छा रिव्यू छपा था। इस फ़िल्म की प्रसिद्धि के 
					कई कारण थे, जैसे एक तो यह प्रेमचंद की कहानी पर बनी थी, 
					जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया था। दूसरे इसमें मिल मालिकों का 
					अत्याचार दिखाया गया था, जिससे उत्साहित होकर अनेक स्थानों के 
					मज़दूरों ने उद्योगपतियों के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया था। 
					इससे अनेक प्रभावशाली उद्योगपति नाराज़ हो गये थे, जिन्होंने 
					अंग्रेज़ सरकार पर दबाव डालकर देश के अऩेक प्रान्तों के सेंसर 
					बोर्डों से इस फ़िल्म पर प्रतिबन्ध लगवा दिया था। इससे इसका और 
					भी प्रचार हुआ और दिल्ली जैसे जिन थोड़े-से स्थानों में यह 
					प्रदर्शित हुई, वहाँ के सिनेमाघरों के बाहर दर्शकों की भीड़ 
					लगी रहती।
 
 बिब्बो की उन दिनों बड़ी माँग थी। वह ख़ूब पैसे भी कमा रही थी 
					और अपनी ख़र्चीली आदतों के कारण विलास सामग्री पर खुलकर ख़र्च 
					भी कर रही थी। वह अनिन्द्य सुन्दरी थी और एक तरह से अपने 
					ज़माने की फ़ैशन मॉडल कहलाती थी। कहते हैं जब उसकी सैरे 
					परिस्तान नामक फ़िल्म लगी, जिसमें उसने मास्टर निसार के साथ 
					बड़ा प्रभावशाली अभिन्य किया था, तब कई दर्शक सिर्फ़ उसके 
					रूप-सौन्दर्य को देखने जाते थे। बिब्बो के दीवाने तो नवाब और 
					बड़े-बड़े जागीरदार तक भी थे और कुछ तो उससे शादी तक करना 
					चाहते थे। फ़िल्मी दुनिया में एक बार यह अफ़वाह उड़ी थी कि 
					बिब्बो ने सर शाहनवाज़ भुट्टो से गुप्त विवाह कर लिया है। सर 
					शाहनवाज़ भुट्टो अविभाजित भारत की जूनागढ़ रियासत के दीवान हुआ 
					करते थे, बाद में जिनके पुत्र ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो 
					पाकिस्तान के प्रधान मन्त्री बने।
 
 उस ज़माने में बिब्बो के बेहद महँगे वस्त्रों और जूतों की भी 
					ख़ूब चर्चा होती थी। वह हिन्दी फ़िल्मों की ऐसी अकेली नायिका 
					थी, जिसकी पोशाकों और सैंडिलों पर हीरे और नगीने जड़े होते थे। 
					बढ़िया कपड़ों और जूतों के साथ-साथ बिब्बो को रूमाल जमा करने 
					का बड़ा शौक़ था। वह घुड़दौड़ देखने और घोड़ों पर पैसा लगाने 
					की भी शौक़ीन थी। कहते हैं उसे उस समय के सारे प्रसिद्ध घोड़ों 
					के नाम मालूम थे।
 
 
  फ़िल्मी 
					जीवन के आरम्भिक वर्षों में बिब्बो का ख़लील सरदार नाम के एक 
					सुन्दर और युवा अभिनेता से प्यार हो गया था और वह उससे शादी 
					करके लाहौर चली गई थी। शादी का जश्न मनाने के लिये १९३७ में उन 
					दोनों ने वहाँ क़ज़्ज़ाक़ की लड़की नामक फ़िल्म बनाई, लेकिन वह 
					पिट गई। इससे उनका रोमांस तो ठंडा हुआ ही, उनकी शादी भी टूट 
					गई। टूटे दिल के साथ बिब्बो वापस मुम्बई आ गई और फिर से 
					मुम्बइया फ़िल्मों में काम करने लगी। उसकी चर्चित फ़िल्मों के 
					नाम हैं वासवदत्ता, ग़रीब परवर, मनमोहन, जागीरदार, डायनामाइट, 
					ग्रामोफ़ोन सिंगर, प्यार की मार, शाने-ख़ुदा, सागर का शेर, 
					बड़े नवाब साहिब, नसीब और पहली नज़र। पहली नज़र वही फिल्म है, 
					जिसमें मुकेश ने पार्श्व गायक के रूप में पहला गाना गाया था – 
					दिल जलता है तो जलने दे। भारत में बिब्बो की आख़िरी फ़िल्म थी 
					१९४७ में बनी पहला प्यार, जिसका निर्देशन ए.पी. कपूर ने किया 
					था। 
 सन् १९५० में बिब्बो भारत को हमेशा के लिये छोड़कर पाकिस्तान 
					चली गई और वहाँ की फ़िल्मों में काम करने लगी। वहाँ उसी साल 
					उसने अपनी पहली पाकिस्तानी फ़िल्म शम्मी में अभिनय किया। यह 
					फ़िल्म पंजाबी में थी। पाकिस्तान में बिब्बो की बहुत-सी 
					फ़िल्में चर्चित हुईं, जिनमें से कुछ के नाम हैं दुपट्टा, 
					गुलनार, नज़राना, मंडी, क़ातिल, कुँवारी बेवा, ज़हरे-इश्क़, 
					सलमा, ग़ालिब और फ़ानूस। फ़ानूस में उसने प्रसिद्ध पाकिस्तानी 
					अभिनेता आज़ाद के साथ सराहनीय अभिनय किया, लेकिन फ़िल्म चली 
					नहीं, अलबत्ता ग़ालिब फ़िल्म में उसके अभिनय की सभी फ़िल्म 
					समीक्षकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। सन् १९५८ में 
					ज़हरे-इश्क फ़िल्म में उत्कृष्ट अभिनय के लिये उसे ‘निगार’ 
					सम्मान प्राप्त हुआ। बिब्बो की आख़िरी पाकिस्तानी फ़िल्म थी 
					१९६९ में बनी बुज़दिल।
 
 बिब्बो बड़ी हाज़िरजवाब थी। अपनी चुटकियों और चुटीली 
					टिप्पणियों से वह पुरुषों तक के कान काटती थी। भाषा के शुद्ध 
					उच्चारण और प्रभावशाली संवादों के लिये पाकिस्तानी दर्शक आज भी 
					बिब्बो को याद करते हैं। कहते हैं पाकिस्तानी फ़िल्म उद्योग 
					में आने वाली अनेक नई अभिनेत्रियाँ सही उच्चारण और संवाद सीखने 
					के लिये बिब्बो के पास जाया करती थीं।
 
 जीवन के अन्तिम वर्षों में बिब्बो घोर आर्थिक संकटों में पड़ 
					गई थी और उसके सारे मित्र और चाहने वाले उसे छोड़ गये थे। किसी 
					ज़माने में लाखों दिलों की धड़कन और अद्वितीय सुन्दरी मानी 
					जाने वाली इस कलाकार का सन् १९७२ में बड़ा दुखद अन्त हुआ।
 
                            २९ 
							जुलाई २०१३ |