मन्ना डे का संगीत संसार
शैलेन्द्र चौहान
वयोवृद्ध एवं सुप्रसिद्ध
गायक मन्ना डे के शास्त्रीय संगीत से ओतप्रोत गीतों की मधुरता का आज भी कोई
सानी नहीं है। यद्दपि मन्ना ने जिस दौर में गीत गाने प्रारंभ किये उस दौर
में हर संगीतकार का कोई न कोई प्रिय गायक था, जो फिल्म के अधिकांश गीत उससे
गवाता था। कुछ लोगों को प्रतिभाशाली होने के बावजूद वो मान-सम्मान या श्रेय
नहीं मिलता, जिसके कि वे हकदार होते हैं। हिंदी फिल्म संगीत में इस दृष्टि
से देखा जाए तो मन्ना डे का नाम सबसे पहले आता है। यों तो मन्ना डे की
प्रतिभा के सभी कायल थे, लेकिन सहायक हीरो, कॉमेडियन, भिखारी, साधु पर कोई
गीत फिल्माना हो तो मन्ना डे को याद किया जाता था। मन्ना डे ठहरे सीधे-सरल
आदमी, जो गाना मिलता उसे गा देते। ये उनकी प्रतिभा का कमाल है कि उन गीतों
को भी लोकप्रियता मिली।
प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म एक मई १९२० को कोलकाता में हुआ।
मन्ना डे ने अपने बचपन की पढ़ाई एक छोटे से स्कूल 'इंदु बाबुर पाठशाला' से
की। 'स्कॉटिश चर्च कॉलिजियेट स्कूल' व 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से पढ़ाई करने
के बाद उन्होंने कोलकाता के 'विद्यासागर कॉलेज' से स्नातक की शिक्षा पूरी
की। मन्ना डे के पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे, लेकिन मन्ना डे का रुझान
संगीत की ओर था। वह इसी क्षेत्र में अपना कार्यक्षेत्र बनाना चाहते थे।
'उस्ताद अब्दुल रहमान खान' और 'उस्ताद अमन अली खान' से उन्होंने शास्त्रीय
संगीत सीखा। मन्ना डे के बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाकया है। उस्ताद
बादल खान और मन्ना डे के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल
खान ने मन्ना डे की आवाज़ सुनी और उनके चाचा से पूछा, यह कौन गा रहा है। जब
मन्ना डे को बुलाया गया तो उन्होंने कहा कि बस, ऐसे ही गा लेता हूँ। लेकिन
बादल खान ने मन्ना डे में छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद वह अपने
चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मन्ना डे ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा
अपने चाचा 'के सी डे' से हासिल की। अपने स्कॉटिश चर्च कॉलेज के दिनों में
उनकी गायकी की प्रतिभा लोगों के सामने आयी। तब वे अपने साथ के
विद्यार्थियों को गाकर सुनाया करते थे और उनका मनोरंजन किया करते थे। यही
वो समय था जब उन्होंने तीन साल तक लगातार 'अंतर-महाविद्यालय
गायन-प्रतियोगिताओं' में प्रथम स्थान पाया।
मन्ना डे को अपने कॅरियर के शुरुआती दौर में अधिक प्रसिद्धि नहीं मिली।
इसकी मुख्य वजह यह रही कि उनकी सधी हुई आवाज़ किसी गायक पर फिट नहीं बैठती
थी। यही कारण है कि एक जमाने में वह हास्य अभिनेता महमूद और चरित्र अभिनेता
प्राण के लिए गीत गाने को मजबूर थे। प्राण के लिए उन्होंने फिल्म 'उपकार'
में 'कस्मे वादे प्यार वफा...' और ज़ंजीर में 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी
जिंदगी...' जैसे गीत गाए। उसी दौर में उन्होंने फिल्म 'पडो़सन' में हास्य
अभिनेता महमूद के लिए एक चतुर नार... गीत गाया तो उन्हें महमूद की आवाज़
समझा जाने लगा। आमतौर पर पहले माना जाता था कि मन्ना डे केवल शास्त्रीय गीत
ही गा सकते हैं, लेकिन बाद में उन्होंने 'ऐ मेरे प्यारे वतन'..., 'ओ मेरी
जोहरा जबीं'..., 'ये रात भीगी भीगी'..., 'ना तो कारवाँ की तलाश है'... और
'ए भाई जरा देख के चलो'... जैसे गीत गाकर आलोचकों का मुँह सदा के लिए बंद
कर दिया। पहले वे के.सी डे के साथ थे फिर बाद में सचिन देव बर्मन के सहायक
बने। बाद में उन्होंने और भी कईं संगीत निर्देशकों के साथ काम किया और फिर
अकेले ही संगीत निर्देशन करने लगे। कईं फिल्मों में संगीत निर्देशन का काम
अकेले करते हुए भी मन्ना डे ने उस्ताद अमान अली और उस्ताद अब्दुल रहमान खान
से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेना जारी रखा। संगीत ने ही
मन्ना डे को अपनी जीवनसाथी 'सुलोचना कुमारन' से मिलवाया था। मन्ना डे ने
केरल की सुलोचना कुमारन से विवाह किया। इनकी दो बेटियाँ हुईं।
वे १९४० के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को
साकार करने के लिए मुंबई आ गए थे। वर्ष १९४३ में फिल्म 'तमन्ना' में बतौर
पार्श्व गायक उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालाँकि इससे पहले
वह फिल्म 'रामराज्य' में कोरस के रूप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है कि
यही एक एकमात्र फिल्म थी जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने देखा था। मन्ना
डे की प्रतिभा को पहचानने वालों में संगीतकार शंकर जयकिशन का नाम ख़ास तौर
पर उल्लेखनीय है। इस जोड़ी ने मन्ना डे से अलग-अलग शैली में गीत गवाए।
उन्होंने मन्ना डे से 'आजा सनम मधुर चाँदनी में हम...' जैसे रूमानी गीत और
'केतकी गुलाब जूही...' जैसे शास्त्रीय राग पर आधारित गीत भी गवाए। दिलचस्प
बात है कि शुरुआत में मन्ना डे ने यह गीत गाने से मना कर दिया था। मन्ना डे
ने १९४३ की "तमन्ना" से पार्श्व गायन के क्षेत्र में क़दम रखा। संगीत का
निर्देशन किया था कॄष्णचंद्र डे ने और मन्ना के साथ थीं सुरैया। १९५० की
"मशाल" में उन्होंने एकल गीत "ऊपर गगन विशाल" गाया जिसको संगीत की मधुर
धुनों से सजाया था सचिन देव बर्मन ने। १९५२ में मन्ना डे ने बंगाली और
मराठी फिल्म में गाना गाया। ये दोनों फिल्म एक ही नाम "अमर भूपाली" और एक
ही कहानी पर आधारित थीं। इसके बाद उन्होंने पार्श्वगायन में अपने पैर जमा
लिये।
गीतकार प्रेम धवन ने उनके बारे में कहा था कि 'मन्ना डे हर रेंज में गीत
गाने में सक्षम है। जब वह ऊँचा सुर लगाते हैं तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान
उनके साथ गा रहा है, जब वो नीचा सुर लगाते हैं तो लगता है उसमें पाताल
जितनी गहराई है, और यदि वह मध्यम सुर लगाते हैं तो लगता है उनके साथ सारी
धरती झूम रही है।' मन्ना डे केवल शब्दों को ही नहीं गाते, अपने गायन से वह
शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते हैं। अनिल विश्वास ने
एक बार कहा था कि 'मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं जो मोहम्मद रफी, किशोर
कुमार या मुकेश ने गाए हों। लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नहीं
गा सकता।' १९५० से १९७० के दशको में इनकी प्रसिद्धि चरम पर थी। मन्ना डे ने
अपने पाँच दशक के कॅरियर में लगभग ३५०० गीत गाए। भारत सरकार ने मन्ना डे को
संगीत के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान के लिए पद्म भूषण और पद्मश्री सम्मान
से नवाजा। इसके अलावा १९६९ में 'मेरे हज़ूर' और १९७१ में बाँग्ला फिल्म
'निशि पद्मा' के लिए 'सर्वश्रेष्ठ गायक' का राष्ट्रीय पुरस्कार भी उन्हें
दिया गया।
उन्हें मध्यप्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, उड़ीसा और बाँग्लादेश की सरकारों ने
भी विभिन्न पुरस्कारों से नवाजा है। मन्ना डे के संगीत के सुरीले सफर में
एक नया अध्याय तब जुड़ गया जब फिल्मों में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते
हुए उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। हिंदी के अलावा बाँग्ला और मराठी गीत भी गाए हैं। मन्ना
ने अंतिम फिल्मी गीत 'प्रहार' फ़िल्म के लिए गाया था। मन्ना दा ने हरिवंश
राय बच्चन की 'मधुशाला' को भी अपनी आवाज़ दी है जो काफ़ी लोकप्रिय है।
मन्ना डे के जीवन पर आधारित "जिबोनेरे जलासोघोरे" नामक एक अंग्रेज़ी
वृत्तचित्र ३० अप्रैल २००८ को नंदन, कोलकाता में रिलीज़ हुआ। इसका निर्माण
"मन्ना डे संगीत अकादमी द्वारा" किया गया। इसका निर्देशन किया डा. सारूपा
सान्याल और विपणन का काम सम्भाला सा रे गा मा (एच.एम.वी) ने। वर्ष २००५ में
'आनंदा प्रकाशन' ने बंगाली में उनकी आत्मकथा "जिबोनेर जलासोघोरे" प्रकाशित
की। उनकी आत्मकथा को अंग्रेज़ी में पैंगुइन बुक्स ने "मौमोरीज अलाइव" के
नाम से छापा तो हिन्दी में इसी प्रकाशन की ओर से "यादें जी उठीं" के नाम से
प्रकाशित की। मराठी संस्करण "जिबोनेर जलासाघोरे" साहित्य प्रसार केंद्र,
पुणे द्वारा प्रकाशित किया गया।
५ अगस्त २०१३ |