फ़िल्म इल्म


बच्चों का फिल्म संसार
—अजय ब्रह्मात्मज


बच्चों से बातें करने के लिए आवश्यक नहीं है कि आप तुतलाएँ। आप साफ़ उच्चारण में उनसे बातें करें तो भी वे सीखते हैं। हाँ, शब्दों के चुनाव में सावधानी रखें कि वे उनकी समझ में आ जाएँ। अगर यह छोटी सी बात हमारे फ़िल्मकार समझ जाएँ तो बच्चों के लायक फ़िल्मों की संख्या बढ़ सकती हैं और सोच में बदलाव आ सकता है। आम धारणा है कि बच्चों के लिए बनी फ़िल्मों में बड़ों की सोच के कारण ऐसी असहजता आ जाती है कि बच्चे उन फ़िल्मों को देखना पसंद नहीं करते। अगर आप बच्चों को बताएँ कि उनके लिए विशेष तौर पर बनी फ़िल्में ही उन्हें देखनी चाहिए तो वे हरगिज़ नहीं देखेंगे। यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अलग–थलग नहीं होना चाहता।

देश में बनी बाल फ़िल्मों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, लेकिन इतनी कम भी नहीं है कि हम शर्मिंदा हों। देश के प्रथम प्रधानमंत्री का बाल प्रेम जगजाहिर है। उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वयं उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की थी कि बच्चों को ध्यान में रखकर फ़िल्में बननी चाहिए। उनकी इस इच्छा से प्रेरित होकर ११ मई १९५५ को चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी की स्थापना की गई। इसके पहले अध्यक्ष पंडित हृदयनाथ कुंजरू बने। सरकारी संस्था के गठन के बाद इसे ज़िम्मेदारी दी गई कि वह बाल फ़िल्मों के निर्माण, वितरण और प्रदर्शन की व्यवस्था करे। यह सोचा गया कि बच्चों को स्वस्थ और संपूर्ण मनोरंजन देने के साथ उनके ज्ञान और चरित्र के विकास पर भी ध्यान दिया जाए। वे आधुनिक भारत को उपयोगी नागरिक बनें।

मुझे लगता है कि इस उद्देश्य ने ही सारी गड़बड़ी पैदा कर दी। फ़िल्मकार बच्चों को समझाने और पढ़ाने के उद्देश्य से फ़िल्में बनाने लगे और चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी के अध्यक्ष और अन्य महत्वपूर्ण सदस्य सरकारी आदेशों और उद्देश्यों के पालन को ही अपने कर्म की इतिश्री समझने लगे। नतीजा यह हुआ कि बाल फ़िल्मों की स्थिति सामान्य से बुरी और फिर बुरी से बदतर होती चली गई। आरंभिक प्रयासों में अवश्य ही तपन सिन्हा और सत्येन बोस जैसे फ़िल्मकारों ने कुछ मनोरंजन फ़िल्मों का निर्माण किया। इन फ़िल्मों को पुरस्कार मिले। बच्चों ने भी उन्हें सराहा। लेकिन कालांतर में चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी में नोकरशाही के बढ़ते प्रभाव में फ़िल्मकारों की पहल भी संकीर्ण होती चली गई। कुछ फ़िल्में बनीं भी तो पर्याप्त वितरण व्यवस्था न होने के कारण सही तरीके से प्रदर्शित नहीं हो सकीं।

चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ने १९५५ से २००६ के बीच लगभग पचास वर्षों में डेढ़–दो सौ फ़िल्में अवश्य बनाई हैं, लेकिन उनके वितरण की सुचारू व्यवस्था नहीं है। यही समस्या राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम की फ़ीचर फ़िल्मों की भी थी। इसी कारण सरकारी अनुदान से बनी ये फ़िल्में आम दर्शकों तक नहीं पहुँच सकीं। हमने देखा कि सरकारी मदद से चल रहा समांतर सिनेमा दर्शकों के अभाव में असमय काल कवलित हो गया। कहीं बच्चों की फ़िल्मों के साथ भी यही न हो। चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी में बैठे अधिकारियों और अध्यक्ष की अहंन्यता के कारण कई फ़िल्मकार उनसे संपर्क करना पसंद नहीं करते। इसका बड़ा उदाहरण 'मकड़ी' है।

विशाल भारद्वाज की फ़िल्म 'मकड़ी' चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी के सहयोग और अनुदान से बनी थी। फ़िल्म पूरी होने के बाद तत्कालीन अध्यक्षा सई परांजपे ने उसे पसंद नहीं किया और कहा कि यह फ़िल्म बच्चों के लायक नहीं है। विशाल भारद्वाज ने चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी के पैसे लौटाए और उस फ़िल्म को स्वतंत्र रूप से रिलीज़ किया। 'मकड़ी' को न केवल बच्चों ने बल्कि सभी उम्र के दर्शकों ने पसंद किया। तात्पर्य यह है कि सरकारी रवैये और देखरेख में बच्चों के लिए बेहतरीन फ़िल्म बनने की संभावना कम हो जाती है।

और फिर सवाल यह है कि कौन सी एवं कैसी फ़िल्में होती हैं बच्चों की? शायद आप यकीन न करें कि सत्यजित राय की पाथेर पांचाली बच्चों के लिए सुंदर फ़िल्म है। ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीटयूट ने दुनिया भर से चुनी ५० सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्मों में इसे शामिल किया है। अगर उस लिस्ट को देखें तो उसमें कई ऐसी फ़िल्में हैं, जो आम तौर पर बड़ों द्वारा प्रशंसित की गई हैं। एक बार निजी बातचीत में श्याम बेनेगल ने कहा था कि उन्हें अमर अकबर एँथोनी चिल्ड्रेन फ़िल्म लगती है। उन्होंने यह बात व्यंग्य या मज़ाक में नहीं, पूरी गंभीरता के साथ कही थी। उनका आशय यह था कि बच्चे उसे देखते हुए लोटपोट होते हैं। ज़रूरी तो नहीं है कि हमेशा बच्चों को सिखाने के लिए ही कहानी रची जाए।

ग़ौर करें तो हिंदी सिनेमा मुख्य रूप से व्यापक दर्शकों की रुचि को ध्यान में रखकर ही विकसित हो रहा है। अगर किसी फ़िल्म को अधिकाधिक दर्शक देखेंगे तो व्यवसाय होगा और व्यवसाय फ़िल्म इंडस्ट्री की पहली शर्त है। यही कारण है कि बच्चे, बुद्धिजीवी, बुजुर्ग और बाकी अल्पसंख्यक दर्शक समूहों के लिए फ़िल्में नहीं बनतीं। हमें फ़िल्मकारों को प्रेरित करना होगा कि वे बच्चों को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनाएँ। अन्यथा ये बच्चे अपनी रुचि का सिनेमा या अन्य मनोरंजन खोजते रहेंगे। अंग्रेज़ी भाषा के साथ पल–बढ़ रहे शहरी बच्चों को तो विकल्प मिल गया है। वे विदेशों से आ रही बच्चों की फ़िल्मों, टीवी कार्यक्रम और अन्य शो देख रहे हैं। उनका सौंदर्यबोध उसी के अनुरूप विकसित हो रहा है। कल को ये बच्चे बड़े होंगे तो उन्हें देशज हिंदी सिनेमा भी अच्छा नहीं लगेगा। उनकी पसंद हॉलीवुड की फ़िल्मों से निर्धारित होगी। आश्चर्य न करें, इसके संकेत मिलने लगे हैं।

चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी फिलहाल हर दूसरे साल एक बाल फ़िल्म समारोह का आयोजन करती है। वहाँ देश–विदेश में बनी फ़िल्में दिखाई जाती हैं। समारोह के बाद उन फ़िल्मों को देश के बाकी बाल दर्शकों तक पहुँचाने की कोई चिंता नहीं की जाती। अगर चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी देश में उभरे मल्टीप्लेक्स और अन्य संस्थाओं की मदद से अपनी फ़िल्मों का लघु फ़िल्म समारोह करे तो भी बाल दर्शकों को अपने देश की फ़िल्में देखने को मिल सकती हैं। दूरदर्शन पर ऐसी फ़िल्मों के प्रसारण की माँग लंबे समय से अटकी पड़ी है।

१६ नवंबर २००६