प्रकृति और पर्यावरण


पलाश वन फूले


माघ मास के अंत में शीत ऋतु अपनी वृद्धावस्था से गुज़रती हुई अंतिम सांसें भरने लगती है। वहीं वसंत ऋतु धीरे धीरे अपनी यौवनावस्था की दहलीज़ पर दस्तक देने लगती है।

ऋतुराज वसंत के स्वागत का प्रमुख श्रेय लाल रंग से आवृत्त पलाश वृक्ष को ही जाता है। पलाश एक छोटा मध्यम आकार का बारह से पन्द्रह मीटर ऊँचा वृक्ष होता है। इसका तना गाँठदार तथा छाल मोटी, राख के रंग की होती है। नयी शाखाएँ तथा पत्ते रोओं तथा रोमिकाओं से आवृत्त होते हैं। पत्ते हरे मोटे चौड़े तथा तीन पर्णकों में विभक्त रहते हैं, जिसमें से पाश्र्व के दो पत्ते तो एक दूसरे के आमने सामने लगे रहते हैं और तीसरा सिरे पर लगा रहता है जो अपेक्षकृत बड़ा और लम्बाई चौड़ाई में बराबर होता है। सर्दियों में पत्ते झर जाते हैं और टेढ़ी मेढ़ी शाखाएँ नंगी खड़ी रहती हैं।

हिन्दी में पलाश को ढाक टेसू केसू तथा छौला बंगाली तथा मराठी में पलस गुजराती मे खाखरी कन्नड़ में मुत्तूगा तमिल में पिलासू उड़िया में पोरासू तेलुगू में मोदूक मलयालम में मुरक्कच्यूम संस्कृत में पलाश किंशुक तथा लैटिन में ब्यूटिया फ्रोंडोसा या ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहते हैं।

इसका ब्यूटिया नाम १६ फरवरी २००१8वीं सदी के वर्गिकी के एक संरक्षक ब्यूट के अर्ल जोहन की स्मृति में रखा गया था। मोनोस्पर्मा ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है एक बीज वाला।

संस्कृत भाषा का शब्द पलाश दो शब्दों से मिलकर बना है— पल और आश। पल का अर्थ है मांस और अश का अर्थ है खाना। अर्थात पलाश का अर्थ हुआ ऐसा पेड़ जिसने मांस खाया हुआ है। खिले हुए लाल फूलों से लदे हुए पलाश की उपमा संस्कृत लेखकों ने युद्धभूमि से दी है। वाल्मीकि कहते हैं — "लंका में युद्ध के समय रणस्थली वानरों और राक्षसों के रूधिर की प्रचुरता से ढकी हुई ऐसी चमक रही थी मानो माघ मास में खिले हुए टेसुओं से ढकी हो।"

लेकिन संस्कृत साहित्य में इसके सुंदर रूप का वर्णन भी श्रंगार रस के साथ प्रचुरता से हुआ है।पुष्पित पलाश वृक्ष के संबंध में कालिदास की कल्पना बहुत ही सरस है। वे लिखते हैं — "वसंतकाल में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की शाखाएँ वन की ज्वाला के समान लग रहीं थीं और इनसे ढकी हुई धरती ऐसी लग रही थी मानो लाल साड़ी में सजी हुई कोई नववधू हो।"
फरवरी के अंत में पलाश वृक्ष की नंगी शाखाओं पर काले रंग की पुष्प कलिकाओं के गुच्छ प्रकट होने लगते हैं। यह वसंत ऋतु के आगमन का संकेत होता है। फाल्गुन मास में जब सारा वृक्ष नारंगी लाल रंग के उज्ज्वल फूलों से आवृत हो जाता है तो एैसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति के होलिकोत्सव में सबसे मुख्य अतिथि यही हो। इन दिनों पलाश के जंगल ऐसे प्रतीत होते हैं मानो सारा जंगल ही आग की लपटों में धधक रहा हो। इसी कारण इस वृक्ष को जंगल की ज्वाला भी कहते हैं।

पलाश के फूल गहरे लाल रंग के होते हैं और तोते की चोंच के समान दिखाई देते हैं, इसलिये पलाश को संस्कृत में किंशुक (क्या यह तोता है?) भी कहते हैं।

वसंत में खिलना शुरू करने वाला यह वृक्ष गरमी की प्रचंड तपन में भी अपनी छटा बिखेरता रहता है। जिस समय गरमी से व्याकुल हो कर सारी हरियाली नष्ट हो जाती है, जंगल सूखे नज़र आते हैं दूर तक हरी दूब का नामों निशान भी नज़र नहीं आता उस समय ये न केवल फूलते हैं बल्कि अपने सर्वोत्तम रूप को प्रदर्शित करते हैं।

आयुर्वेद में पलाश के अनेक गुण बताए गए हैं और इसके पाँचों अंगों — तना, जड़, फल, फूल और बीज से दवाएँ बनाने की विधियाँ दी गयी हैं।
पलाश के बड़े पत्तों का उपयोग पत्तल और दोने बनाने में भी खूब किया जाता है।

१६ फरवरी २००१