यू.के. में हिन्दी


ब्रिटन में
हिन्दी रेडियो के पहले महानायक रवि शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा


साठ और सत्तर के दशक में युनाइटेड किंगडम में हिन्दी मीडिया केवल नाम मात्र के लिए ही मौजूद था। प्रयास तो बहुत हुए किन्तु निरंतरता बरकरार रख पाना शायद बहुत कठिन और दुश्कर काम रहा होगा। हिन्दी की अपनी समस्या यह है कि वह भारतीयता की पहचान बन कर उभर नहीं पाई है। शायद यही कारण रहा होगा कि पंजाबी, गुजराती, बंगाली अपने क्षेत्रीय स्वाद को बचाए रहीं जबकि हिन्दी सब की होने के कारण किसी की भी नहीं हो पाई।

प्रिंट मीडिया की ओर देखते हैं तो मात्र एक हिन्दी का साप्ताहिक समाचार पत्र दिखाई देता है अमरदीप। और वह भी वरिष्ठ पत्रकार जगदीश मित्तर कौशल की जीवट-लगन का ही नतीजा है जो यह समाचार पत्र आज भी प्रकाशित हो रहा है यानि कि शुरू होने के ३२ वर्ष बाद भी। साहित्यिक पत्रिका के रूप में भी एक ही मिसाल है-भाई पद्मेश गुप्त द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका 'पुरवाई' जो कि भारत और इंगलैण्ड के साहित्यकारों के बीच एक पुल का काम कर रही है।

आज इंग्लैण्ड में टेलिविजन पर भारत से स्टार जी सोनी बी ४ यू आदि चैनल आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन वो भी भारत के चैनल अधिक हैं। स्थानीय स्वाद की वहाँ भी कमी दिखाई देती है। और जो दो एक प्रयास हुए भी वो टिक नहीं पाए। जहाँ तक रेडियो का प्रश्न है युनाइटेड किंगडम में बहुत से लीगल इल­लीगल रेडियो शुरू हुए लेकिन यहाँ के हिन्दी रेडियो का इतिहास सनराईज रेडियो के संघर्ष की दास्तान का पर्यायवाची है और सनराईज रेडियो का एक ही अर्थ है यानि कि रवि शर्मा।

रवि शर्मा से बातचीत उन्हें अतीत के झरोखों में ले जाती है। लेकिन जब वे बात करते हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे कल ही की बात हो। जब भारत में रहा करते थे तो रेडियो पर बी बी सी की हिन्दी सेवा सुन सुन कर रोमांचित हुआ करते थे। किन्तु जब लंदन आए तो पता चला कि वह तो केवल एक छलावा था। बी बी सी की हिन्दी सेवा आप लंदन में सुन ही नहीं सकते थे। मैंने एक ग्रूंडिग का ट्रांज़िस्टर भी खरीदा जिसमें शॉर्ट वेव की सुविधा थी, लेकिन रेडियो के साथ कुश्ती करने के बावजूद मैं कैलाश बुधवार, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, रजनी कौल और राज नारायण बिसरिया की आवाज नहीं सुन पाता था। ऑल इंडिया रेडियो सुनने का भी प्रयास करता था, लेकिन आवाज कट कट कर आती थी। भारत ने कभी इस बात को महसूस नहीं किया कि विश्व तक पहुँच ने कि लिए मीडिया कितना जरूरी है। भारत से बाहर बसी एशियन कम्यूनिटी के लिए कभी नहीं सोचा। बी बी सी पर सुरेश जोशी, चमन लाल चमन, महेन्द्र कौल कभी कभार वीकेण्ड पर कोई प्रोग्राम दिया करते थे। हिन्दी फिल्मी गीतों के लिए लोग तरस जाया करते थे। देश का कोई समाचार भी नहीं मिलता था। हिन्दी की मीडिया में नामौजूदगी भी दूसरी पीढ़ी में हिन्दी न पहुँच पाने का एक मुख्य कारण है।

ऐसे में अवतार लिट ने अपना ग़ैरकानूनी रेडियो स्टेशन शुरू किया सीना रेडियो। जैसे ऐलान था कि हम सीना तान कर काम कर रहे हैं। कर लो जो करना हो। रेडियो एफ एम चैनल पर आता था। पहुँच कम थी। डिपार्टमेण्ट ऑफ ट्रेड एण्ड इंडस्ट्री डी टी आई अपना काम करता था। वो छापा मारते थे मशीनें उठा कर ले जाते थे फ़ाइन करते थे। अवतार लिट डटे रहे। अवतार लिट से मेरी भी मुलाक़ात हुई। उन्होंने मुझे कोई घास नहीं डाली। सुरेश जोशी ने भी कोई और मकदम नहीं किया। लेकिन मैं निरुत्साहित नहीं हुआ। जुटा रहा। शहर में एक और भी ग़ैरकानूनी रेडियो था संगम रेडियो। सब अपने अपने स्तर पर संघर्ष कर रहे थे।

फिर एक बार अवतार लिट घर आए और अंग्रेजी में बोले "यू कैन वर्क फ़ॉर मी। आई विल पे।" उस समय के हिसाब से अच्छे खासे पैसे भी दिए। मैनें शर्त रखी की ग़ैरकानूनी रेडियो में वहाँ आकर काम नहीं करूँगा। अगर पुलिस ने पकड़ लिया तो जेल के चक्कर काटने पड़ेंगे। मेरी मध्यवर्गीय सोच! अवतार लिट ने कुछ देर के लिए सोचा और बोले- चलो तुम मेरे लिए घर से ही प्रोग्राम रिकॉर्ड कर दिया करो। लेकिन 'लाईव' प्रोग्राम का थ्रिल ही कुछ अलग होता है। कई बार सुबह छह बजे उठ कर ग़ैरकानूनी रेडियो पर भी काम करने पहुँच जाता था। एक बार पुलिस ने पकड़ भी लिया। फ़ाइन अवतार लिट ने दिया। लेकिन यहाँ की पुलिस हरयाणा की तरह डंडे नहीं मारती। सभ्य पुलिस है।

एक बार स्थिति आई कि सीना रेडियो कुछ अर्से के लिए बंद करना पड़ा। अवतार लिट ने कहा कि तुम किसी और जगह काम नहीं करोगे। तुम टेलेंटिड हो तुम्हें भटकने की जरूरत नहीं। अवतार लिट के घर पर ही विज्ञापन बनाते थे। फिर हमने मिलकर जनता से हस्ताक्षर कैम्पेन चलवाया। मैनें भी उसमें बहुत भागदौड़ की। लोगों से सिग्नेचर और सपोर्ट लेटर इकठ्ठे किए। और हम कानूनी तौर पर १४१३ एफ एम पर लाइव हो गये। लंदन में पहला भारतीय कानूनी रेडियो। वैसे मज़ेदार बात यह है कि जब रेडियो ग़ैर­कानूनी था तब भी पुलिस और सिविक ऑथारटीज हमारे यहां संदेश प्रसारित करवाते थे क्योंकि वे जानते थे कि एशियन समुदाय तक अगर अपनी आवाज पहुँचानी है तो इसके अलावा कोई चारा नहीं है। है न मज़ेदार बात; लीगल संस्थाएँ एक इल-लीगल रेडियो का इस्तेमाल करें। आज अवतार लिट के अलावा इल-लीगल दिनों का कोई भी साथी सनराईज रेडियो में नहीं है। एक अजित पनेसर हैं, जिनसे शिफ़्ट वर्क के चलते मुलाक़ात ही नहीं हो पाती। लेकिन उन दिनों की यादें तो मेरी धरोहर हैं।

अवतार लिट का मानना है कि रवि शर्मा सनराईज रेडियो का एक अटूट हिस्सा है। एम ए एम एड किये रवि शर्मा स्थानीय हिन्दी रेडियो के प्रसारकों में सबसे अधिक वेतन पाने वाले कलाकार हैं। उनका कहना है कि बीबीसी में काम कर के पत्रकारिता की भूख तो शांत हो जाती है, लेकिन आपके भीतर का कलाकार असंतुष्ट रह जाता है। इसके लिए कमर्शियल रेडियो ही सही जगह है।

मुझे अपने स्टेज शो लेकर मॉरीशस, जर्मनी, स्वीडन, हॉलेण्ड, नार्वे और रीयूनियन जाने का मौका मिला है। सोचिए रोहतक के निकट एक हरयाणवी गाँव टटोली में जन्मा निम्न मध्य वर्ग का एक लड़का जो अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सप्ताह में एक दिन पेडल रिक्शा चलाता था, आज विश्व भर के दौरे कर रहा है। मेरे दादा जी, पिता जी सभी अध्यापक थे। हम चार भाई और दो बहनें हैं। रेडियो का सफर मैंने १९७६ में ऑल इण्डिया रेडियो रोहतक से शुरू किया था। मैने विवाह १९८५ में लंदन में ही किया। जन्म संगिनी का नाम है आशा किरण; जो कि सरकारी महकमें में मैनेजर के पद पर काम कर रही हैं। एक पुत्र संकल्प और पुत्री रागिनी अभी स्कूल जाते हैं।

मैंने भी फिल्मों में जाने के बारे में सोचा था। खास तौर पर वहाँ के ग्लैमर के कारण। लेकिन पहले 'सरवाइवल' का संघर्ष और उसके बाद नायक बनने की उम्र निकल गई। बस इसीलिए नहीं जा पाया। वो जैसे मिल्टन ने कहा है न "इट इज बेटर टु रूल इन हेल दैन टु सर्व इन हैवन!" इसका अर्थ यह कदापि न लें कि लंदन नरक है। एक मीठी सी हंसी;

अपने आजतक के रेडियो के सफर में मुझे कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं। एशियन फिल्म और मीडिया बरमिंघम का यू- के- एशियन अवार्ड, नेशनल डी-जे, बेस्ट ब्रॉडकास्टर अवार्ड, यू-के- हिन्दी समिति का संस्कृति सम्मान। यह कहना ठीक नहीं होगा कि मुझे सम्मान या पुरस्कार से कोई फर्क नहीं पड़ता। वास्तव में अच्छा लगता है जब कभी सम्मान या पुरस्कार मिलते हैं। लेकिन मुझे उनका लोभ नहीं हैं। काम कर रहा हूँ, यदि सम्मान भी मिल जाते हैं तो कहीं कुछ अच्छा लगता है। मैने अपने जीवन में ग़ल्तियाँ कर कर के सीखा है।
अच्छा तो तब भी लगता है जब लोग भीड़ में पहचान लेते हैं।

रेडियो की एक विशेषता है रहस्यमयता। मैं बचपन से हिन्दी के समाचार सुना करता था तो कई वर्षों तक तो यह भी नहीं जान पाया कि विनोद कश्यप महिला हैं या पुरूष। ऐसे ही देवकी नंदन पांडे, अशोक वाजपेयी आदि के नाम और उनकी आवाज से तो पूरा हिन्दी जगत वाकिफ था लेकिन उनके चेहरों पर एक रहस्य का आवरण चढ़ा हुआ था। मैं इस मामले में कुछ अधिक भाग्यशाली हूँ कि मेरे श्रोता और प्रशंसक मुझे स्टेज शो करते, मंदिर में भजन गाते, टेलिविजन पर विज्ञापनों में देख चुके हैं। इसलिए पहचान जाते हैं। मेरी प्रभु से बस एक ही प्रार्थना है कि मुझ में घमण्ड ना आने पाए और मेरा अपने प्रशंसकों के साथ प्रेम का रिश्ता यों ही बना रहे।

जो हिन्दी का हाल है, वही हिन्दी मीडिया का भी हाल है। ब्रॉडकास्टिंग में भी अंग्रेजी का वर्चस्व सभी सीमाएँ लाँघ गया है। संचार साधनों और मीडिया में अंग्रेजी बुरी तरह से हावी है। रही सही कसर कम्पयूटर ने पूरी कर दी है। भारत के फिल्मी कलाकार कमाते हिन्दी फिल्मों से हैं, खाते हिन्दी फिल्मों का हैं, लेकिन एक दो को छोड़ कर बोलते सभी अंग्रेजी में हैं।

सनराईज रेडियो की मोनोपोली तोड़ना आसान काम नहीं है। लेकिन मैं यह मानता हूँ कि श्रोताओं के लिए विकल्प जरूरी होता है। प्रतियोगिता आवश्यक है और उससे क्वालिटी में निखार आता है। वैसे आजकल ब्रिटेन में सनराईज रेडियो एक तरह का मानदंड बन गया है जिस पर दूसरे चैनलों को खरा उतरना पड़ेगा।

मैं ब्रिटेन में बसे भारतीय या एशियन मूल के लोगों को यही कहना चाहूँगा कि यहाँ रहते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़े रहें। रेडियो के जरिए हम यह प्रयास कर रहे हैं। परिवार के तौर पर आप अपनी संस्क़ृति, त्यौहार, रीति रिवाज़ों को ज़िन्दा रखें, तभी विश्व में हमारे सम्मान होगा। हम अपने शरीर का रंग तो नहीं बदल सकते लेकिन अपनी एक पहचान तो बना सकते हैं। और यह भी कि हिन्दी किसी संकीर्ण समाज या देश की भाषा नहीं है। उसकी उदारता यही है कि वह अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने में समा कर साथ चलने में सक्षम है।