विश्व
हिंदी दिवस के अवसर पर
ब्रिटेन
में
हिंदी-अस्तित्व
से
अस्मिता
तक
अनिल शर्मा (उच्चायोग
लंदन)
आज जब सारी दुनिया में गए
भारतीय अपने मातृदेश की ओर देख रहे हैं और चाहते हैं कि
अपने देश, भाषा और संस्कृति के साथ साथ जुड़ाव और प्रगाढ़ हो
तो ब्रिटेन के भारतीय इस स्थिति से अपने को अलग कैसे रख
सकते हैं। भारत के ब्रिटेन के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे हैं।
इसके चलते भारतीय मूल के लोग बड़ी संख्या में ब्रिटेन में
हैं। यहाँ तक कई नगरों में वे बहुसंख्यक हो गए हैं जैसे
लेस्टर। उनके सामने सवाल यह था कि वे किस तरह अपनी
संस्कृति, अपनी पहचान, अपनी विशिष्टता को बनाए रखें इसके
लिये जरूरी था कि अपनी भाषा को बचाया जाए और अगली पीढ़ी को
थाती अपनी विरासत को सौंपा जाए।
जहाँ तक हिंदी की स्थिति है, आज से लगभग १४ वर्ष पूर्व किए
अपने हिंदी संबंधी सर्वेक्षण में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
के प्राध्यापक सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने स्पष्ट किया था कि
हिंदी का अपना कोई क्षेत्र या सीमा नहीं हैं अर्थात हिन्दी
के लोग किसी क्षेत्र विशेष में नहीं रहते जैसे कि गुजराती,
पंजाबी या बांग्ला भाषी परंतु हिंदी भाषियों में अपनी भाषा
को साहित्यिक और शैक्षणिक क्षेत्र में जीवंत रखने की ललक
दिखाई देती है।
हिंदी एक संपर्क भाषा
हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में भारत में भी इस्तेमाल की
जाती है और विदेशों में रहने वाले भारतीय भी आपसी आत्मीय
बातचीत के लिये हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। ब्रिटेन में
पाकिस्तानी भी बड़ी संख्या में हैं। वे अपनी बातचीत में
उर्दू का प्रयोग करते हैं जो बोलचाल की भाषा की दृष्टि से
हिंदी से भिन्न नहीं हैं। अतः बोलचाल की दृष्टि से पंजाबी,
गुजराती, बंगाली, दक्षिण भारतीय और दक्षिण एशिया के
विभिन्न देशों से आए लोग हिंदी का ही संपर्क भाषा के रूप
में इस्तेमाल करते हैं।
हिंदी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
५०–६० के दशक में कामगारों के रूप में बड़ी संख्या में
कामगारों का आना हुआ। साउथहॉल जैसे क्षेत्र भारतीय क्षेत्र
के रूप में विख्यात होने लगे। जे.एम. कौशल, धर्मेन्द्र
गौतम (सं – प्रवासी) डॉ. श्याम मनोहर पांडे, प्रेम चन्द
सूद जैसे लोगों ने मानस सम्मेलन आदि के द्वारा हिंदी के
पौधे को सींचना शुरू किया और हिंदी के वृक्ष के तने विविध
क्षेत्रों में फैलने लगे। ९० के दशक में तो सक्रियता इस
कदर बढ़ी कि विश्व हिंदी के मानचित्र पर ब्रिटेन एक
महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभरा।
हिंदी साहित्य
विदेशों में मारिशस के बाद शायद ब्रिटेन ही ऐसी जगह है
जहाँ हिंदी साहित्य सृजन की दृष्टि से सक्रियता सर्वाधिक
है। साहित्य के विविध क्षेत्रों में किए जा रहे कार्य के
लेखे–जोखे का एक प्रयास यहाँ किया गया है –
हिंदी कविता
यू.के. में हिंदी कविता की एक अत्यंत सशक्त परंपरा है।
वरिष्ठ कवियों में डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव के काव्य
संग्रह 'टेम्स में बहती गंगा की धार' और 'कुछ कहता है यह
समय' यहाँ की ज़िंदगी का एक काव्यात्मक दस्तावेज़ है। सोहन
राही (सुर रेखा) गीतों और गज़लों के लोकप्रिय शायर हैं
जो हिंदी और उर्दू दोनों में लिखते हैं। उनकी पंक्तियाँ
लोकजीवन में रची बसी हैं, गौतम सचदेव (अधर का पुल, एक और
आत्मसर्पण) का काव्य कहीं छायावादी शब्दावली के साथ दर्शन
की गहराई में चला जाता है तो कहीं सामाजिक यथार्थ से रूबरू
होता हैं, मोहन राणा (जगह, जैसे जनम कोई दरवाजा, इस छोर
से, सुबह की डाक) नई कविता के कवि हैं और हर पल सच से
मुठभेड़ में व्यस्त, उनकी कविता आने वाले समय में प्रवासी
कवियों को हिंदी कविता में नया मुहावरा और पहचान देने का
काम कर सकती है, अचला शर्मा लिखती कम हैं पर उनका लिखा
हुआ प्रायः सशक्त होता है, पद्मेश गुप्त (सागर का पंछी)
ने अपनी शैली विकसित की है और उनकी कविताएँ उनके इस जीवन
दर्शन को काव्य में सशक्त संप्रेषण के साथ प्रस्तुत करती
हैं, वे मंच के भी सशक्त कवि एवं संचालक हैं। उषा राजे
सक्सेना (विश्वास की रजत सीपियाँ, इंद्रधनुष की तलाश
में) मुक्त छंद और नई कविता दोनों में अधिकार के साथ लिख
रही हैं, निखिल कौशिक (अगर तुम लंदन आना चाहते हो, खड़ा
होता नहीं अपने आप कोई) अपनी विशिष्ट काव्यात्मक
संकल्पनाओं के साथ गहरी छाप छोड़ते हैं, दिव्या माथुर (अंतः सलिला, ख्याल तेरा,
११ सितंबर–सपनों की राख तले)
और शैल अग्रवाल और उषा वर्मा (क्षितिज अधूरे) संवेदनशील
कवयित्रियाँ हैं। डॉ. कृष्ण कुमार दर्शन के कवि हैं
(मैं अभी मरा नहीं)। तेजेन्द्र शर्मा कविता विधा में
समर्थता के साथ योगदान दे रहे हैं। पद्मेश गुप्त की दूर
बाग में सौंधी मिट्टी (संपादित) यहाँ की कविता की पहचान
स्थापित करने में सफल रहा। श्यामा कुमार, तोषी अमृता,
तितिक्षा शाह एवं अनुराधा शर्मा भी अच्छा लिख रही हैं।
हिंदी कहानी
ब्रिटेन में हिंदी कहानी पूरे जोशोखरोश के साथ अपनी
उपस्थिति दर्ज करा रही है इसका काफी श्रेय तेजेन्द्र
शर्मा और उनकी संस्था कथा को दिया जा सकता है। लेखिका त्रय
दिव्या माथुर (आक्रोश), उषा राजे सक्सेना (प्रवास
में) और शैल अग्रवाल लगातार लिख रही हैं और शानदार लिख
रही हैं। उनकी रचनाएँ यहाँ के जीवन को न केवल भारतीय बल्कि
एक नारी की दृष्टि से भी देखती हैं। दिव्या माथुर की आक्रोश
की कहानियों में जहाँ पूर्व की संवेदना है वहीं पश्चिम की
वस्तुनिष्ठता भी है। उषा राजे की कहानियाँ प्रवास में मिले
चरित्रों के संस्मरणात्मक बिंदुओं को लेकर बुनी गई हैं
परंतु उनमें भाषा और भाव की गहन संवेदना है। शैल अग्रवाल
की एक विशिष्ट दृष्टि हैं जो संभावनाओं से ओत–प्रोत है।
किस्सागो कला में प्रवीण तेजेन्द्र शर्मा (देह की कीमत,
काला सागर, ढिबरी टाइट) की कहानियों में रोचकता और भाव
संपन्नता है, उनका विषयों का चुनाव भी विशिष्ट होता है।
पद्मेश की कहानियाँ उनके सघन जीवन अनुभवों से उपजी हैं अतः
दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती हैं। श्रीमती उषा वर्मा भी निरंतर
सृजन कर्म में रत हैं और जीवनानुभूतियों को कविता और कहानी
दोनों माध्यमों से प्रस्तुत कर रही हैं। उषा राजे सक्सेना
द्वारा संपादित 'मिट्टी की सुगंध' और कथा लंदन द्वारा
प्रकाशित 'कथा लंदन' कहानी संग्रह यहाँ के कहानीकारों की
कहानी में समर्थता की प्रामाणिक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
हाल में के.सी. मोहन का कहानी संग्रह 'कथा परदेश' हिंदी और
पंजाबी दोनों में प्रकाशित हुआ है। गौतम सचदेव (शीघ्र
प्रकाश्य, उस पार) की कहानियाँ विचार समर्थ और भाव समर्थ
हैं उनके कहानी संग्रह की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जा
रही है। कादम्बरी मेहरा (कुछ जग की) नई रचनाकार हैं।
हिंदी आलोचना
आलोचना के क्षेत्र में गौतम सचदेव एक ऐसा नाम है जिनका
प्रेमचंद पर किया गया दशकों पुराना काम 'प्रेमचंद कहानी
शिल्प' आलोचना के क्षेत्र में मानदंड है। यहाँ की
पत्रिकाओं, गोष्ठियों में उनकी आलोचना यहाँ के
साहित्यकारों को निरंतर मार्गदर्शन देती रही है। प्राण
शर्मा ने भी आलोचना के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया
है। विभिन्न गोष्ठियों में अचला जी के विचार परक और मौलिक
आलेख इस बात के परिचायक हैं कि उनकी कलम रचनाओं का
नीर–क्षीर करने में अत्यंत कुशल है। संजीव कुमार, अलका
सरावगी, ज्ञान चतुर्वेदी, भारतेंदु विमल के लेखन पर उनके
आलेख लेखकों के लेखन का समग्रता में मूल्यांकन करते हैं।
उषा वर्मा पुरवाई में लगातार पुस्तक समीक्षा कर रही हैं।
उपन्यास
प्रतिभा डाबर का 'यह मेरा चांद' और भारतेंदु विमल का 'सोन
मछली' यहाँ के प्रकाशित उपन्यास हैं। सोन मछली हिंदी के
लेखकों और समीक्षकों द्वारा अत्यंत सराहा गया। बम्बई की
बार कन्याओं पर केंद्रित यह उपन्यास अपनी प्रामाणिकता,
भाषा और संवेदनशीलता के कारण एक विशिष्ट रचना बना है।
आजकल भारतेंदु इसका अंग्रेजी रूपांतरण तैयार कर रहे हैं।
गद्य साहित्य
गद्य साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नरेश भारतीय की
रही है जिनकी पिछले ३ वर्षो में ३ स्ो अधिक पुस्तकें
प्रकाशित हुई हैं टेम्स के तट से, सामाजिक और राजनीतिक
विषयों पर निबंध, सिमट गई धरती (संस्मरणात्मक आत्मकथ्य)
और 'इस पार उस पार'। यह साहित्य यहाँ के जन जीवन का गहन
चित्रण प्रस्तुत करता है और राजनीतिक और सामाजिक सवालों से
दो चार होता है। नरेश भारतीय को उनकी हिंदी सेवाओं के लिये
हाल में भारत सरकार द्वारा जार्ज गिर्यसन सम्मान से भी
समानित किया गया है। इनके अतिरिक्त डॉ सत्येन्द्र
श्रीवास्तव की काव्य पुस्तकों में भी उनके निबंध और
संस्मरण हैं। स्वयं के बारे में कुछ भी बताने में झिझकने
वाली शहीद भगत सिंह की भतीजी श्रीमती वीरेन्द्र संधु की
भगत सिंह पर संस्मरणात्मक पुस्तक अमिट छाप छोड़ती हैं। शैल
अग्रवाल का अभिव्यक्ति वेबसाइट पर प्रकाशित स्तंभ 'लंदन
पाती' लोकप्रिय हुआ है, उनकी शैली और कथ्य प्रभावी है।
यहाँ मैं यूटा आस्टिन की पुस्तक ' हिंदी आखिर क्यों' का
विशेष उल्लेख करना चाहूँगा। उत्तर शीत युद्ध काल में हिंदी
जैसी भाषा की सार्थकता और प्रासंगिकता पर इस छोटी सी
पुस्तिका में महत्त्वपूर्ण विचार हैं मसलन वे वैश्वीकरण और
पश्चिमीकरण की आंधी को रोकने में भाषा की महत्त्वपूर्ण
भूमिका मानती हैं और जहाँ भाषा को लेकर हिंदी भाषियों की
उथली मानसिकता की खबर लेती हैं, वहीं अंग्रेजी की
उपनिवेशवादी मानसिकता को भी आड़े हाथों लेती हैं।
हिंदी नाटक
नाटकों की दृष्टि से डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव के ऊधम
सिंह, बेगम समरू आदि उल्लेखनीय हैं। हाल ही में उनका नाटक
संग्रह 'अनडिक्लेयरड मिस वल्र्ड' भी प्रकाशित हुआ
है
उनके नाटकों के कथ्य और भाव संपन्न होते हैं। इधर
बी.बी.सी. हिंदी सर्विस की अध्यक्षा अचला शर्मा की रेडियो
नाटक की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। सिर्फ नाटक की
पुस्तकें ही नहीं, हाल में ब्रिटेन में हिंदी के नाटक भी
होने लगे हैं। वर्ष २००२ में तेजेन्द्र शर्मा द्वारा
निर्देशित नाटक 'हनीमून' (हास्य नाटक) बड़ी संख्या में
दर्शकों तक पहुँचा, वहीं लेखक, निर्देशक परवेज़ आलम द्वारा
लिखित–निर्देशित नाटक 'पासपोर्ट' (भारतीयों और
पाकिस्तानियों के ब्रिटेन में संबंध) भी नई अभिव्यंजना और
प्रयोगों के साथ दर्शकों द्वारा सराहा गया।
हिंदी समाचार पत्र और पत्रिका
हिंदी के प्रति समर्पित श्री जे. एन. कौशल ने आज से ३० साल
पूर्व हिंदी का अखबार अमरदीप प्रारंभ किया था। उन्होंने
अपना जीवन इस कार्य में लगा दिया। समर्पण और प्रतिबद्धता
के बावजूद अमरदीप साधनों के अभाव में अपना मुकाम न पा सका।
६० और ७० के दशक में चेतक और प्रवासनी जैसी पत्रिकाओं ने
हिंदी का परचम फहराए रखा। १९९७ से पुरवाई पत्रिका के पांच
साल पूरे हो चुके हैं और पद्मेश गुप्त के संपादन में इसमें
नित निखार आया है। यह न केवल पिछले ५ वर्षों में यहं की
हिंदी गतिविधियों का आईना बनी है और इसके माध्यम से
ब्रिटेन के साहित्यकारों को एक मंच मिला है। भारत के बाहर
से प्रकाशित पत्रिकाओं में 'पुरवाई' का एक प्रमुख स्थान
है। इसके अतिरिक्त भारतीय उच्चायोग की पत्रिका भारत भवन ने
भी हिंदी के प्रचार–प्रसार में भूमिका का निर्वाह किया
हैं।
अनुवाद
लंदन स्कूल ऑफ ओरिएँटल इंस्टीट्यूट के डॉ. रूपर्ट स्नेल ने
बच्चन जी की आत्मकथा का अनुवाद कर हिंदी अनुवाद के क्षेत्र
में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। मध्यकालीन साहित्य के
अध्येता डॉ. रूपर्ट स्नेल ने कई अन्य कृतियों का भी अनुवाद
किया है। हाल में जर्मन मूल की ब्रिटिश महिला यूटा आस्टिन
ने भी अनुवाद क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
उन्होंने डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव की कविताओं का अनुवाद
'एनदर साइलेंस' के नाम से किया ही हैं साथ ही हिंदी की
महिला लेखिकाओं की चुनी हुई कहानियों का भी अनुवाद किया
है।
हिंदी शिक्षण
हिंदी शिक्षण पर डॉ. स्टूअर्ट मैकग्रैगर (सेवानिवृत्त
प्रोफेसर, केम्ब्रिज विश्वविद्यालय) की पुस्तक 'आउटलाइन
ऑफ हिंदी ग्रामर' प्रामाणिक थी और संदर्भ हेतु इस्तेमाल की
जाती रही है। इधर डॉ. रूपर्ट स्नेल की पुस्तक 'टीच युअर
सेल्फ' हिंदी विशेष लोकप्रिय हुई है और ब्रिटेन ही नहीं
विभिन्न देशों में प्रयोग की जाती है। यहाँ तक कि विभिन्न
विश्वविद्यालय भी इस पुस्तक का इस्तेमाल कर रहे हैं यह
पुस्तक की रोचकता, उपयोगिता और शोधपरक व्यवस्थित
प्रस्तुतिकरण का प्रतीक है। इसके पश्चात डॉ स्नेल ने '
बिगनर्स हिंदी स्क्रिप्ट' पुस्तक भी लिखी है जो नाम के
अनुसार हिंदी का प्रारंभिक ज्ञान रखने वालों के लिये हैं।
एक व्यक्ति जो पेशे से इंजीनियर है और जिसके दिमाग में
हिंदी के प्रति समर्पण इतना अधिक है कि पिछले १५ वर्षों से
वो अपने समर्पण के चलते हिंदी की कक्षाएँ चला रहे हैं, वो
हैं श्री वेद मोहला, उन्होंने अपने अनुभव को पुस्तकाकार
रूप में भी प्रस्तुत किया है और उनकी पुस्तक 'समूची हिंदी
शिक्षा'( चार भाग) अत्यंत उपयोगी और व्यावहारिक पुस्तक
है। जे. एम. नागरा की पुस्तक 'ओ लेवल हिंदी' और
'बी.बी.सी. हिंदी बोलचाल' भी कई विद्यालयों में प्रयोग की
जाती है।
विश्वविद्यालय
ब्रिटेन में स्नातक, स्नातकोत्तर और शोध स्तर पर हिंदी की
पढ़ाई लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएँटल स्टडीज, लंदन विश्वविद्यालय
और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उपलब्ध है। लंदन
विश्वविद्यालय में डॉ. रूपर्ट स्नेल और डॉ. लूसी
रोजेन्टाइन जैसे विद्वान विद्यार्थियों के मार्गदर्शन के
लिये उपलब्ध हैं, तो कैम्ब्रिज में डॉ. फ्रैंस्सिका आरसेनी।
वहाँ हाल ही तक डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव थे। यार्क
विश्वविद्यालय में हिंदी के क्षेत्र में सर्वाधिक सक्रिय
डॉ महेन्द्र वर्मा हैं जो भाषाविज्ञान के प्राध्यापक हैं
और भारतीय अध्ययन के एक भाग के रूप में हिंदी भी पढ़ाते
हैं। ऑक्सफोर्ड में डॉ. इमरे बंगा स्कूल ऑफ ओरिएँटल स्टडीज
में विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाते हैं। इमरे बंगा ने विश्व
भारती विश्वविद्यालय से घनानंद के साहित्य पर शोध किया है
और वृंदावन में रहकर सूरदास, बिहारी, चौरासी वैष्णव की
वार्ता पर अध्ययन किया है। ऑक्सफोर्ड में हिंदी के
प्राध्यापक का पद एक ट्रस्ट द्वारा पांच वर्ष के लिये
प्रायोजित था, अतः इस वर्ष के पश्चात ऑक्सफोर्ड में और डॉ.
महेन्द्र वर्मा की सेवानिवृत्ति के पश्चात यार्क में हिंदी
अध्ययन के भविष्य पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं।
हिंदी की संस्थाएँ
लंदन में काम कर रही संस्थाओं में यू. के. हिंदी समिति
पद्मेश गुप्त की अध्यक्षता में सर्वाधिक सक्रिय है। श्री
के .बी. एल सक्सेना, बृज गोयल, उषा राजे सक्सेना और दिव्या
माथुर ने इस संस्था को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित
करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। चाहे विश्व हिंदी
सम्मेलन हो, आंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन, हिंदी ज्ञान
प्रतियोगिता, पुरवाई या किसी साहित्यकार का आगमन यू. के.
हिंदी समिति सदा केंद्र में दिखाई देती है। यू. के. हिंदी
समिति द्वारा पांडुलिपि चयन के अंतर्गत भारतेन्दु विमल के
उपन्यास 'सोन मछली' एवं मोहन राणा के कविता संग्रह 'इस छोर
पर' का चयन कर साहित्यकारों को प्रकाशन सुविधा उपलब्ध कराई
गई है। हिंदी समिति प्रतिवर्ष ब्रिटेन के हिंदी सेवियों
को हिंदी सेवा सम्मान से सम्मानित करती है। लगातार
सक्रियता रख एक व्यापक दृष्टि से सभी भारतीय भाषाओं को साथ
लेकर चलने वाली गीतांजलि देश की अत्यंत महत्त्वपूर्ण संस्था
है, यह बर्मिंघम में स्थित है। १९९९ में आयोजित विश्व
हिंदी सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ कृष्ण कुमार इस संस्था के
प्रमुख हैं। आज से पांच वर्ष पूर्व जिस व्यक्ति का इस देश
में आगमन हुआ उसने अपने साहित्यिक और संस्थागत योगदान से
अपनी एक महत्त्वपूर्ण पहचान बनाई है।
'कथा' की कथा किस हिंदी प्रेमी को नहीं मालूम। कथा संस्था
द्वारा प्रत्येक वर्ष ब्रिटेन और भारत के एक–एक लेखक की
सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का चयन किया जाता है। चित्रा मुद्गल,
संजीव कुमार, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी जैसे लेखकों को सम्मानित
कर चुकी यह संस्था साहित्यिक क्षेत्र में निरंतर सक्रिय
रहती है। कथा की कहानी गोष्ठियाँ यहाँ के लेखकों को एक
साहित्यिक परिवेश प्रदान करती हैं। तेजेन्द्र शर्मा का
जीवंत व्यक्तित्व और उनकी संगनी नैना शर्मा के साथ से यह
संस्था महत्त्वपूर्ण कार्य करने में सफल रही है। बर्मिंघम
में हाल में ही स्थापित एक संस्था ने बड़े प्रभावशाली ढंग
से अपनी उपस्थिति दर्ज की है। केवल तीन–चार प्रभावी
कार्यक्रम ही नहीं अपितु हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता के समय
दिन–रात प्रयत्न कर ब्रिटेन के मध्य प्रदेश में कृति यू.
के. ने गहरी छाप छोड़ी है। इससे लंदन के बाहर हिंदी की
गतिविधियों को बल मिला है। तितिक्षा शाह, डॉ नरेन्द्र
अग्रवाल, डॉ. के.के. श्रीवास्तव, शैल अग्रवाल, अनुराधा
शर्मा, स्वर्ण तलवार की सक्रियता से मिडलैण्डस में हिंदी
के अच्छे भविष्य की आशा बंधती है। मॅनचेस्टर में जहाँ राम
पांडे, डॉ. सुमरा ने हिंदी का पौधा लगाया था आजकल डॉ.
अंजनी कुमार, निखिल कौशिक आदि सक्रिय हैं। हिंदी भाषा
समिति कार्यक्रमों को भव्यता के साथ सम्पन्न करती है।
यार्क में सरल सहज डॉ. महेंद्र वर्मा और उषा वर्मा भारतीय
भाषा संगम के तत्वावधान में हिंदी का झंडा उठाए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
ब्रिटेन के हिंदी प्रेमियों ने केवल अपने देश में ही नहीं
बल्कि अन्य देशों में चल रही हिंदी गतिविधियों का समन्वय
करने के लिये समय–समय पर अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों का
आयोजन किया है। ऐसा पहला अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
१९९३ मे मॅनचेस्टर में इंडियन एसोसिएशन द्वारा लता पाठक,
राम पांडे और रंजीत सुमरा ने आयोजित किया जिसमें डॉ.
लक्ष्मीमल्ल सिंघवी (तत्कालीन उच्चायुक्त) एवं
मॅनचेस्टर के महापौर, गोपाल दास नीरज, डॉ. रूपर्ट स्नेल,
पद्मा सचदेव, मार्गट गाट्जलाफ, मारिया नेगियसी, सुरेश
चन्द्र शुक्ल आदि ने भाग लिया। दूसरा
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन १९९७ में यू के हिंदी समिति
एवं गीतांजलि समुदाय के संयोजन में सितंबर १९९७ में लंदन
एवं बर्मिंघम में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में डॉ.
रामदरश मिश्र, कुंअर बेचैन, जगदीश चतुर्वेदी, शीन काफ
निज़ाम, डॉ. दाऊ जी गुप्त, डॉ. श्याम मनोहर पांडे आदि ने
भाग लिया। सम्मेलन के चार सत्रों में देश विदेश में हिंदी
की स्थिति, स्वरूप और प्रसार, भारतीयता की पहचान के रूप
में हिंदी, ब्रिटेन में हिंदी के व्यावहारिक प्रयोग से
संबंधित समस्याएँ और अंग्रेजी के वर्चस्व के सम्मुख हिंदी
को अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने
जैसे अनेक विषयों पर विचार हुआ। विश्व हिंदी सम्मेलन के
चंद महीनों में आयोजन की कहानी तो आश्चर्य चकित करने वाली
है ही। इस पृष्ठभूमि में यूरोप के हिंदी प्रेमियों को एक
मंच पर इकठ्ठा करने की और एक रणनीति बनाने की योजना के
लिये
लंदन में यू. के. हिंदी समिति द्वारा भारतीय उच्चायोग के
तत्वावधान और कथा, संस्कार भारती, कृति यू. के. हिंदी भाषा
समिति, मॅनचेस्टर, भारतीय भाषा संगम, यार्क और अन्य हिंदी
संस्थाओं के सहयोग से तृतीय अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
का आयोजन एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
कवि सम्मेलन
हिंदी का कोई ही प्रतिष्ठित कवि होगा जो ब्रिटेन न आया हो।
काका हाथरसी, अशोक चक्रधर, रामदरश मिश्र, केदारनाथ सिंह,
अरुण कमल, सीतेश आलोक, कन्हैयालाल नंदन, बेकल उत्साही,
नीरज, बाल कवि बैरागी, सुनील जोगी, नरेश शांडिल्य, सरोजनी
प्रीतम, सभी लंदन में कविता पाठ कर चुके हैं। कारण –
प्रत्येक वर्ष यू. के. हिंदी समिति के संयोजन में पूरे देश
में कवि सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। यह कवि सम्मेलन
बर्मिंघम में डॉ. कृष्ण कुमार के संयोजन में गीतांजलि
बहुभाषीय समुदाय, मॅनचेस्टर में डॉ. अंजनी कुमार के संयोजन
में हिंदी भाषा समिति और ब्रेडफर्ड और यार्क में डॉ.
महेन्द्र्र वर्मा के संयोजन में भारतीय भाषा संगम और
बेर्डफर्ड हिंदू मंदिर द्वारा आयोजित किया जाता है। इन कवि
सम्मेलनों का जनता को वर्ष भर इंतजार रहता है। ये एक तरह
से हिंदी के वार्षिक सम्मेलन हैं। इन कवि सम्मेलनों में
स्थानीय कवियों को भी जनता तक पहुँचने का अवसर मिलता है।
इन कवि सम्मेलनों की शुरूआत का श्रेय डॉ. लक्ष्मीमल्ल
सिंघवी और उनके मार्गदर्शन के अंतर्गत डॉ. सुरेन्द्र अरोड़ा
को जाता है। वहीं पिछले १० वर्षों से सफलतापूर्वक संयोजन का
श्रेय अंतर्राष्ट्रीय संयोजक पद्मेश गुप्त को है। इन कवि
सम्मेलनों में ४ कवि भारतीय सांस्कृतिक परिषद द्वारा
प्रायोजित किए जाते हैं। पिछले २ वर्षों से स्थानीय कवियों
को अधिक अवसर प्रदान करने के लिये एक राष्ट्रीय कवि सम्मेलन
की परंपरा की भी शुरुआत की गई है। ऐसे दो सम्मेलन,
मॅनचेस्टर और बर्मिंघम में आयोजित किए गए हैं। पिछले वर्ष
भारतीय उच्चायोग (पैरिस) में कार्यरत सुश्री रोमी टकयार
के प्रयास से पैरिस में भी एक अत्यंत सफल कवि सम्मेलन का
आयोजन किया गया। प्रयास किया जा रहा है कि कवि सम्मेलनों
की इस परंपरा का विस्तार पूरे यूरोप में हो।
भारतीय उच्चायोग
भारतीय उच्चायोग में हिंदी-प्रयोग के मिशन को बढ़ावा देने के
लिये राजभाषा कार्यान्वयन समिति कार्य करती
है तथा लंदन के सरकारी कार्यालयों में हिंदी के
प्रचार–प्रसार को प्रोत्साहन देने के लिये नगर राजभाषा
कार्यान्वयन समिति कार्य करती है। इन दोनों समितियों के
अध्यक्ष मंत्री (समन्वय) तथा सदस्य सचिव मिशन के हिंदी
एवं संस्कृति अधिकारी होते हैं। इस व्यवस्था के चलते हिंदी
की गतिविधियों को मिशन से निरंतर सहयोग और समर्थन मिलता
रहा है।
यद्यपि भारतीय उच्चायोग प्रारंभ से ही ब्रिटेन में हिंदी
के प्रचार–प्रसार में सक्रिय रहा है और ७० के दशक में भी
धर्मेन्द्र गौतम द्वारा उच्चायोग में हिंदी की कक्षाएँ
आयोजित की जाती रही हैं। परंतु यह कार्य अधिक व्यवस्थित रूप
से तब हुआ जबकि वर्ष १९८४ से हिंदी एवं संस्कृति अधिकारी
के पद पर अधिकारी भारत से आने लगे। श्रीमती सरोज
श्रीवास्तव पहली अधिकारी थीं वे जिस समय आई, कौशल जी जैसे
व्यक्ति साउथहाल जैसे क्षेत्रों में मानस के प्रचार–प्रसार
और हिंदी को जनता तक पहुँचाने के अभियान में लगे थे।
उन्होंने इन कार्यों में बढ़ चढ़ कर योगदान किया। डॉ. मधु
गोस्वामी के कार्यकाल में ब्रिटेन में हिंदी की स्थिति पर
डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने सर्वे किया। यार्क में हिंदी
की कार्यशाला डॉ. महेन्द्र वर्मा के तत्वावधान में की गई।
९० के दशक में डॉ. सिंघवी उच्चायुक्त थे और डॉ. सुरेन्द्र
अरोड़ा हिंदी और संस्कृति अधिकारी। इस समय हिंदी की
गतिविधियों को अत्यंत बल मिला। पुरवाई की शुरूआत, कवि
सम्मेलनों की परंपरा, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन याने
कार्यक्रमों का तांता ही लग गया। इस सब का परिणाम सामने
आया विश्व हिंदी सम्मेलन के रूप में। १९९९ में आयोजित इस
सम्मेलन को सफल बनाने में तत्कालीन उप उच्चायुक्त हरदीप
पुरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। एक दशक तक लगातार हो रही
हिंदी सेवा का परिणाम था विश्व हिंदी सम्मेलन। विश्व हिंदी
सम्मेलन के पश्चात देश–विदेश में ब्रिटेन को हिंदी के
मजबूत गढ़ के रूप में माना गया। श्री सतीश चंद्र ने अपने
कार्यकाल में लंदन नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की
स्थापना की और भारत भवन पत्रिका की शुरूआत की। यह दोनों
ठोस योगदान थे। इन सबके अतिरिक्त नेहरू केंद्र का हिंदी के
प्रचार–प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। नेहरू
केन्द्र में हिंदी के कार्यक्रमों की परंपरा केंद्र के
निदेशक श्री गोपाल गांधी एवं इंद्रनाथ चौधुरी के समय से चल
रही है। हिंदी और नेहरू केंद्र के बीच सबसे सशक्त संपर्क
सूत्र हैं सुश्री दिव्या माथुर। हिंदी की लेखिका और हिंदी
समिति की उपाध्यक्षा दिव्या माथुर का योगदान हिंदी के
प्रचार–प्रसार के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
भारतीय उच्चायोग में (मंत्री, समन्वय) श्री पी. सी.
हलदर अपने सहज स्वभाव और हिंदी के लिये की जाने वाली
प्रत्येक पहल के सक्रिय सहयोग और समर्थन देने के कारण
हिंदी प्रेमियों के प्रिय हैं। हिंदी के सभी प्रमुख
कार्यक्रम उनकी गरिमापूर्ण उपस्थिति पाते हैं। उन्होंने
डॉ. सिंघवी, श्री हरदीप पुरी की परंपरा को आगे बढ़ाया है।
हिंदी संबंधी कार्यों को वर्तमान उच्चायुक्त श्री रोनेन
सेन और उप उच्चायुक्त श्री सत्यव्रत पाल का भी पूर्ण
संरक्षण प्राप्त है।
उधर बर्मिंघम के कौंसोलेट जनरल श्री जे. एस. सपरा बर्मिंघम
में आयोजित कार्यक्रमों को स्थाई रूप से संरक्षण प्रदान
करते हैं। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है ब्रिटेन में भी हिंदी
के कार्यों का समन्वय विदेश मंत्रालय के हिंदी विभाग
द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिये इस वर्ष आयोजित
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के आयोजन में उप सचिव श्री
सुनील श्रीवास्तव की पहल का बहुत बड़ा हाथ है। अब प्रयत्न
यह है कि विशाल हिंदी समुदाय तक पहुँच बने और आने वाली
पीढ़ी को हिंदी से जोड़ने की ठोस नींव तैयार हो।
हिंदी मीडिया
ब्रिटेन में हिंदी के प्रचार–प्रसार में रेडियो पर हिंदी
के प्रसारण का बहुत हाथ है जो भी हिंदी भाषी ब्रिटेन में
प्रवेश करता है वो जब घर–बाज़ार में हिंदी में रेडियो
प्रसारण सुनता है तो उसे सुखद आश्चर्य होता है। सनराइज
रेडियो ने हिंदी की लोकप्रियता में बड़ा योगदान किया है।
यहाँ के लोकप्रिय प्रसारक रवि शर्मा को हाल में ही यू. के.
हिंदी समिति द्वारा उनके योगदान के लिये सम्मानित भी किया
है। रवि शर्मा, सरिता सब्बरवाल, राम भट्ट जैसे लोकप्रिय
प्रसारकों का हिंदी के प्रचार–प्रसार में बहुमूल्य योगदान
है। इसी प्रकार बर्मिंघम में ऐशियन नेटवर्क के संजय शर्मा,
मॅनचेस्टर में ए. एस. रेडियो आदि स्थानों से चलने वाले
रेडियो हिंदी के प्रचार–प्रसार के लिये महत्त्वपूर्ण
कार्य कर रहे हैं। जी टी. वी., स्टार और सोनी जैसे हिंदी
के लोकप्रिय चैनलों के आने से ब्रिटेन में हिंदी को बल
मिला है। बी. बी.सी. हिंदी सेवा की भूमिका इस संबंध में
प्रत्यक्ष तौर पर तो नहीं पर अप्रत्यक्ष तौर पर बड़ी
महत्त्वपूर्ण रही है। रत्नाकर भारतीय, ओंकारनाथ श्रीवास्तव,
कैलाश बुधवार, अचला शर्मा, गौतम सचदेव, नरेश भारतीय, विजय
राणा, अरुण अस्थाना आदि हिंदी जगत की रीढ़ है परंतु बी. बी.
सी. हिंदी की प्रसारण सेवा ब्रिटेन में न होने के कारण
यहाँ के श्रोता हिंदी सेवा का प्रत्यक्ष लाभ नहीं उठा पाते
हैं।
शिक्षण संस्थाएँ
हिंदी जब स्कूलों के पाठ्यक्रम में नहीं रही तो हिंदी के
सूत्र कुछ समर्पित व्यक्तियों ने संभाले। वेद मोहला का तो
मैंने ऊपर उल्लेख किया है। ग्लासगो की अरविंद बाला भसीन
बहुत सालों तक ब्रिटेन के उत्तर में हिंदी की मशाल जलाती
रहीं। पिछले कुछ सालों से कैंसर से लड़ने के बावजूद उनकी
निष्ठा जरा भी कम नहीं हुई है। भारतीय ज्ञान द्वीप के
नवकेशपाल और शशि पाल अपने हिंदी प्रेम के चलते एक दशक से
ज्यादा समय से प्रत्येक शनिवार को बच्चों की हिंदी कक्षाएँ
करते हैं। नाटिंघम की कला निकेतन की श्रीमती महेन्द्रा की
कहानी तो प्रेरणादायी है। जब हर जगह हिंदी के लिये बच्चों
की कमी का रोना रोया जा रहा है तो कला निकेतन में लगभग १००
विद्यार्थी दो दशकों से हिंदी पढ़ रहे हैं। वयस्क
विद्यार्थियों के लिये मेरी वार्ड सेंटर लंदन एक महत्त्वपूर्ण
केंद्र है यहाँ ज़्यादातर विद्यार्थी यूरोपीय हैं और
श्रीमती कमलेश अरोड़ा पूरे समर्पण के साथ अध्यापन में जुटी
हैं। भारतीय विद्या भवन लंदन के कृष्ण अरोड़ा पुराने और
लोकप्रिय अध्यापक हैं वही मॅनचेस्टर का विद्या भवन कमल
रॉनियार और नवल किशोर प्रिंजा के निरंतर प्रयत्नों से
हिंदी की मशाल जलाए है। बर्मिंघम के गीता भवन की मधु
शर्मा, देविना ऋषि का केंद्र सरे का बाल भवन, नार्दन
आयरलैण्ड का इंडियन कम्युनीटी सेंटर ऐसे ही कुछ स्कूल हैं।
मंदिर
मंदिर और शिक्षण संस्थाएँ हिंदी के प्रचार–प्रसार की धुरी
हैं। उनके इस महत्त्व को विदेश मंत्रालय ने स्वीकार किया
है। वर्तमान सचिव, पी.सी.डी. श्री जे.सी.शर्मा ने मंदिरों
और शिक्षण संस्थाओं द्वारा हिंदी के प्रचार–प्रसार के लिये
किये जा
रहे कार्य को यथासंभव सहयोग और समर्थन देने की नीति पर
विशेष बल दिया है। साऊथहाल का विश्व हिंदू मंदिर हिंदी
गतिविधियों का केंद्र है। श्री सुदर्शन भाटिया, श्री
बी.एम.गुप्ता, श्री बब्बर आदि के समर्थन से यहाँ नियमित
रूप से हिंदी की कक्षाएँ और कार्यक्रम होते रहते हैं।
हिंदू कल्चरल सोसायटी फिंचली के राजेन्द्र चोपड़ा हिंदी के
लिये वर्षों से कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार आर्य समाज
ईलिंग के श्री भारद्वाज और रामचंद्र शास्त्री, डॉ. ऋषि
अग्रवाल, श्री राम मंदिर के श्री अरुण ठाकुर, उमेश शर्मा,
स्लाव के शमा जी आदि हिंदी के लिये निरंतर प्रयास रत हैं।
बर्मिंघम के आर्य समाज में वार्षिक कवि सम्मेलन का आयोजन
किया जाता है। निरंकारी भवन के श्री उपासक हिंदी के
कार्यक्रमों के लिये भवन और साधनों के साथ निरंतर तैयार
रहते हैं। वूल्वरडैम्पटन के श्री डी.एल.चड्डा तो हिंदी के
लिये इतने तत्पर हैं कि उन्होंने न केवल कवि सम्मेलन का
आयोजन किया बल्कि कृति यू.के. को हिंदी के लिये धनराशि भी
प्रदान की। ब्रेडफर्ड मंदिर के श्री हंसमुख शाह ने वार्षिक
कवि सम्मेलन का जिम्मा अपने ऊपर लिया है। इससे स्पष्ट है
कि मंदिरों और धार्मिक संस्थानों का इस देश में हिंदी के
प्रचार–प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
हिंदी शिक्षण
ब्रिटेन में एक समय था कि हिंदी स्कूलों में पढ़ाई जाती थी।
हिंदी से ओ लेवल और ए लेवल किए पुराने लोग अभी भी मिल जाते
हैं। परंतु शिक्षा की व्यावसायिकता ने इसे स्कूल पाठ्यक्रम
की भाषा बने रहने पर विराम लगा दिया। अन्य भाषाएँ तो
पाठ्यक्रम में बनी रहीं परंतु विद्यार्थियों और हिंदी के
लिये सशक्त समर्थन होने के अभाव में हिंदी को स्कूल शिक्षण
से निकाल दिया और हज़ारो हिंदी भाषी बच्चे हिंदी शिक्षण से
वंचित हो गए।
केम्ब्रिज ओ लेवल परीक्षा
अब विकल्प के रूप में हिंदी विद्यार्थियों के लिये
केम्ब्रिज ओ लेवल की व्यवस्था की गई है। इस परीक्षा के
लिये विद्यार्थियों को स्वयं तैयारी करनी पड़ती है और हिंदी
के विभिन्न केंद्र (स्कूल नहीं) इसके लिये तैयारी करवाते
हैं। वेद मोहला जी का महालक्ष्मी सत्संग केंद्र, नाटिंघम
का हिंदी शिक्षण केंद्र, ग्लैसगो में श्रीमती भसीन के
विद्यार्थी, भारतीय विद्या भवन, लंदन के विद्यार्थी इन
परिक्षाओं में बैठते थे। परंतु नियमित शिक्षण और
प्रोत्साहन के अभाव में स्थिति ऐसी बनी कि वर्ष २००२ में
भारतीय विद्या भवन लंदन का परीक्षा केंद बंद हो गया और
पूरे देश में इस परीक्षा में बैठने वालों की संख्या ५० तक
भी हो तो गनीमत होगी। वैसे भी पिछले कुछ वर्षों में इस
परीक्षा के पाठ्यक्रम का स्वरूप कुछ ऐसा बदला कि यह
परीक्षा मारिशस और अन्य भारतीय डायसपोरा के देशों को ध्यान
में रख कर ली जा रही है।
हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता – एक सशक्त पहल
अब सवाल था कि हिंदी भाषी क्या करें? क्या इस यथास्थिति को
स्वीकार करें? क्या ब्रिटिश सरकार से गुहार करें? या कोई
पहल करें। यह पहल कहाँ से हो और कौन करे। यद्यपि हिंदी की
कई संस्थाएँ इस देश में सक्रिय थीं परंतु संस्थाओं की
सीमाओं के चलते कई बड़े योग्य और दूरदृष्टि वाले प्रतिबद्ध
वरिष्ठ लोग हिंदी के प्रचार–प्रसार में सक्रिय योगदान नहीं
दे पा रहे थे। डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, नरेश भारतीय,
डॉ. गौतम सचदेव, वेद मोहला, भारतेंदु विमल, विजय राणा कुछ
ऐसे ही नाम थे। ये विद्वान हिंदी परामर्श मंडल के नाम से
एक मंच पर आए और यह विचार किया गया कि दूसरी और तीसरी पीढ़ी
के भारतीय मूल के बच्चों को हिंदी से जोड़ने की
महत्वाकांक्षी योजना तैयार की जाए। इस तरह हिंदी के शिक्षण
केंद्रों को एक सूत्र में पिरोने की और बच्चों को हिंदी की
तरफ प्रेरित करने के लिये हिंदी शिक्षण योजना की नींव डाली
गई।
पहले वर्ष २००१ में यह प्रतियोगिता आर्य समाज ईलिंग में
आयोजित की गई सभी विद्यार्थी वहीं लिखित परीक्षा के लिये
आए। वहीं पर भाषण प्रतियोगिता का आयोजन था और हिंदी शिक्षण
की स्थिति पर एक विचार गोष्ठी का भी आयोजन किया गया। लगभग
१५० बच्चों ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया। इससे बड़ा
प्रोत्साहन मिला। यह केवल लंदन के लिये थी। इससे कुछ सबक
मिले मसलन एक स्थान पर प्रतियोगिता होने से सब स्थानों के
बच्चे उसमें भाग नहीं ले पाते अतः प्रतियोगिता को
विकेंद्रीकृत करने का निर्णय किया गया। इसके परिणामस्वरूप
वर्ष २००२ में ५०० से अधिक विद्यार्थियों ने इसमें भाग
लिया। प्रतियोगिता के आयोजन और पुरस्कार के लिये बड़ी संख्या
में स्थानीय लोग सामने आए। डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव,
सुदर्शन भाटिया, उषा राजे सक्सेना, राजेन्द्र चोपड़ा सुख
राज बसरा, धर्मेन्द्र त्रिपाठी, बी.एम.गुप्ता, अशोक शर्मा,
पाल निश्चल ऐसे ही कुछ नाम हैं। पुरस्कार समारोह का आयोजन
हिंदी कल्चरल सोसाइटी, फिंचली में किया गया था। इस अवसर पर
भाषण प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया था जिसमें ६३ बच्चों ने
भाग लिया, भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति से ओत–प्रोत
बच्चों के भाषण सबके हृदय में सदा के लिये अंकित हो गए। इस
कार्यक्रम की धुरी थे यू.के. हिंदी समिति के पद्मेश गुप्त
परंतु कृति यू.के. की तितिक्षा शाह और अनुराधा शर्मा ने इस
प्रतियोगिता को सफल बनाने के लिये अनथक प्रयत्न किया।
परीक्षा पत्र आदि को तैयार करने का कार्य वेद मोहला ने
किया। बर्मिंघम, सरे, मॅनचेस्टर, नार्दन आयरलैण्ड,
बैडफर्ड, नाटिंघम, लेस्टर जैसे स्थानों से आए
विद्यार्थियों के उत्साह देखते ही बनता था। इस परीक्षा के
आधार पर चुने हुए ७ विद्यार्थियों को भारत भ्रमण पर भेजा
जाएगा। इस कार्यक्रम की बड़ी उपलब्धि रही कि अनुज अग्रवाल,
गेब्रियल सेंगर (साउथ अफ्रीकन), नीरज पाल, रोशनी गोगना
एवं आशा वालिया जैसे हिंदी के प्रति समर्पण रखने वाले
युवक, युवतियों की पौध खड़ी होती दिखाई दे रही है।
अब आगे क्या?
इस वर्ष देश के सब हिंदी शिक्षण केंद्रों से संपर्क कर
लिया गया है। परंतु ऐसे विद्यार्थियों के लिये क्या
व्यवस्था की जाए जो किसी शिक्षण केंद्र से नहीं जुड़े इस पर
विचार किया जा रहा है। उनके लिये अगर शिक्षण सामग्री,
अभ्यास पुस्तिकाएँ आदि उपलब्ध करा दी जाएँ तो अपने
अभिभावकों आदि की सहायता से वे भी प्रतियोगता में भाग ले
सकते हैं। इससे प्रतियोगयों की संख्या हज़ारों में पहुँच
सकती है। यह प्रतियोगिता न केवल हिंदी शिक्षण के प्रति
उत्साह बढ़ाने में सक्षम रही हैं बल्कि इसके कारण हिंदी के
परिदृश्य को एक विस्तार मिला और समुदाय से जुड़ी विभिन्न
संस्थाएँ हिंदी की गतिविधियों के साथ और जुड़ी हैं। इस
परीक्षा और संकल्पना को अन्य देशों तक ले जाया जा सकता है।
हाल में हंगेरी और इटली से भी जानकारी मिली हैं कि वहाँ
अगले वर्ष विश्वविद्यालय और संस्थाएँ इस प्रतियोगिता को
करने को उत्सुक हैं। वास्तव में हिंदी शिक्षण विदेशों में
हिंदी गतिविधियों का मुख्य आधार है और सभी गतिविधियाँ इसके
इर्दगिर्द ही केंद्रित होनी चाहिए।
यदि हम चाहते हैं कि हिंदी बूढ़ी होती पीढ़ी और भारत से आए
लोगों तक सीमित न हो जाए तो हमें हिंदी को दूसरी–तीसरी
पीढी तक पहुँचाने की व्यापक योजना बनानी होगी। तभी ब्रिटेन
में हिंदी लंबे समय तक जीवित रहेगी और अपनी संस्कृति की
सुरभि को निरंतर फैला पाएगी। आज भारतीय मात्र कामगार नहीं
हैं डॉक्टर हैं, व्यापारी हैं, इंजीनियर हैं, आज उनका
संघर्ष अस्तित्व का नहीं, अस्मिता का है। अपनी पहचान का
है। अपनी जड़ों से जुड़ने का है। हिंदी उनकी अस्मिता बनेगी
यदि इन प्रयत्नों की भागीरथी बहती रहेगी।
२३ अक्तूबर
२००२ |