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जन से भिड़ता तंत्र
प्रभु जोशी
यह आकस्मिक नहीं कि पिछले एक लंबे
अर्से से हमारे मीडिया में जितनी भी आयोजित-प्रायोजित बहसें होती रही हैं, उनमें
अमूमन एक शब्द बहुधा उपयोग में आता रहता है, लगभग एक केंद्रीय शब्द की तरह। वह है:
संकट। प्रतिभागियों की जमात संकट की तलाश करते हुए कभी राजनीति से नाथकर उसे
राजनीतिक संकट बना देती है या अर्थशास्त्र से जोड़कर आर्थिक संकट।
कुल मिलाकर पूरे मामले में भाववादी तरीके का इजहार करते हुए कोई प्रतिभागी उसे
नैतिक फिसलन में ले जाकर छोड़ देता है तो कोई किसी दल को राजनीतिक लांछन से बचाने के
लिए प्रणालीगत विफलता में व्याख्यायित कर डालता है। लेकिन जब किसी अराजनीतिक
विद्वान को आमंत्रित कर लिया जाता है तो वह समाजशास्त्री की निर्विकार मुद्रा में
सारे संकट को संक्रमण काल की अनिवार्य अन्विति बताकर सभी को निर्दोष साबित कर देता
है। कई बार ऐसे में कहा जाने लगता है कि ये तो मात्र आत्मकालिक असंगतियाँ हैं, जो
एक वक्त के बाद स्वतः नीचे तलछट की तरह जम जाएँगी। इस सबके समानांतर जब कोई
पत्रकारों की वरिष्ठ बिरादरी से आता है तो वह भ्रष्टाचार को मुख्य संकट की तरह
प्रतिपादित करता है। जबकि ऊँचे दर्जे को कॉर्पोरेटी चिंतक भ्रष्टाचार को
अर्थव्यवस्था के साथ ही व्यवस्था को भी गतिमान बनाने वाले घटक के रूप में
प्रतिपादित कर देता है। अलबत्ता, वह भ्रष्टाचार को लेकर सवाल उठाकर उसे आंदोलन का
रूप देने वाली कोशिशों को ही संकट की तरह चिन्हित कर देता है। साथ ही वह सरकारों और
सत्ताओं को सलाह देता हुआ बरामद होता है कि उन्हें चाहिए कि वे ऐसे लोगों और
आंदोलनों से बेलिहाज होकर निबटें।
दरअसल, इन तमाम जिरहों और बहसों-मुबाहिसों से अलग भारतीय राष्ट्र-राज्य की मौजूदा
स्थिति का वस्तुगत आकलन करें तो हम देखते हैं कि भारत में अब राजनीति निवेश का सबसे
बड़ा लाभकारी क्षेत्र है। प्रजातंत्र उन लोगों की जेब में है, जिनमें सबसे ऊँची बोली
लगाने का सामर्थ्य है। सत्ता से राजनीतिक संस्कृति का पूर्णतः लोप हो चुका है। अब
उसमें केवल प्रबंध कौशल का वर्चस्व है। नौकरशाही की प्रतिबद्धता नीतियों नहीं
नेताओं के प्रति है। कभी लौह आवरण की तरह ख्यात रही नौकरशाही अपनी रीढ़ निकारकर उसे
सत्ता के सौदागरों को बेच चुकी है। वह लचीलेपन का कीर्तिमान रच रही है। वित्तबुद्धि
से कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को निरस्त करती सरकारें बाजार को अपना
‘स्टेट्समैन’ मान रही हैं। उधर समाज के भीतर उठने वाली लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का
स्वरूप राजनीतिक नहीं रह गया है, उसे सांस्कृतिक उद्योग के लिए रास्ता बनाने वाले
मीडिया ने उलट दिया है। उसने मध्यवर्गीय व्यक्ति के असंतोष को ख्वाहिशों की
छोटी-छोटी किस्मों में बदलकर उसे विचार के बजाय वस्तुओं का दीवाना बना दिया है। यही
वजह है कि बौद्धिकता के क्षेत्र में जो मध्यवर्ग पहले सर्वाधिक प्रभावशाली था, वहाँ
से वह एक सिरे से अनुपस्थित है।
जिस तरह की सोच की बंजरता पिछले
दशकों में भारतीय मध्यमवर्ग में देखी गई है, वैसी दुनिया के किसी अन्य समाज में
शायद ही देखी गई हो। वह दरिद्र भारत की दरिद्रता की दारुणता के लिए स्वयं को
जिम्मेदार नहीं पाता, बल्कि इसे वह उसकी ही जिम्मेदारी मानता है। मीडिया में
कॉर्पोरेटी बुद्धिजीवी आता है और इंडिया की बढ़ती विकास दर पर ‘इकॉनॉमिक हिटमैनों-
की पीठ थपथपाता विश्लेषण करता है, जिसमें व्यवस्था नहीं, व्यक्ति ही केंद्र में
होता है। मसलन, वह समस्या के मुख्य कारकों से दूर प्रवृत्तिमूलकता में ही सारे दोष
देखता है। वह कहता है कि देखिए केजरीवाल और नीलेकणी दो व्यक्ति हैं, जो एक ही
आईआईटी नामक संस्थान के उत्पाद हैं। एक समस्या पैदा करता है, दूसरा समाधान ढूँढता
है। नीलेकणी सत्ता की ऊँचाई से देश को देख रहे हैं, अतः वह दूर-दूर तक देख पा रहे
हैं, जबकि केजरीवाल सड़क से देख रहे हैं। वे अपने आसपास से ज्यादा दूर देख नहीं पाते
और दिक्कत यही है कि इस ‘निकट-दृष्टिदोष’ के तहत ही पूरे देश का आह्वान किया जा रहा
है। जबकि हकीकत में ये दो व्यक्ति नहीं, दो विचारधाराएँ और दो रास्ते हैं, जो हमें
संकट की समझ तक ले जाते हैं। ये दोनों एक-दूसरे के विपरीत अलग-अलग ध्रुवांतों पर
हैं यह ‘आसमानी’ व ‘जमीनी’ दृष्टि का द्वंद है।
गाँधी कहा करते थे कि जब तुम किसी अनिर्णय के बीच हो तो सोचो कि तुम्हारे निर्णय से
अधिकतम लोगों का अधिकतम हित किस तरह पूरा होगा। इसलिए बहुत के हित को प्रथमिकता ही
हमारे चिंतन की सार्थकता होगी। वही संकटमोचक होती है। और, आज जो संकट देश और समाज
में दिखाई दे रहा है, वह बहुसंख्यक के हितों को हाशिए पर कर देने वाली नीतियों की
वजह से हो रहा है। यही वजह है कि मामूली आदमी को राहत दिलाने के दावे के साथ तय की
जा रही चीजें मामूली आदमी की ही राहत छीनने के सफल षड्यंत्र का रूप ले रही हैं।
इसलिए, जब हम संकट को देखते हैं तो पता चलता है कि वहाँ महज खो-खो का खेल है। हम
देखते हैं कि संकट का वह हुलिया तो है ही नहीं, जिसकी घोषण की जा रही थी।
दरअसल, हमारे यहाँ तो संवैधानिक प्राधिकार की वैधता का ही संकट है। नेहरू युग में
नवस्वतंत्र राष्ट्र को ‘राष्ट्र-राज्य’ बनाने का जो सपना देखा गया था, वह धराशायी
हो चुका है। वह स्थापत्य अब लाक्षागृह में बदल गया है, जहाँ नैतिकता के दावेदारों
को स्वाहा हो जाना है। बाहर जनकल्याणकारी का बोर्ड लगा है, जबकि भीतर से जन ही गायब
है। संविधान जन नहीं, अभिजन के हितों की चिंता में है। यह भारत नहीं, इंडिया के
भूमंडलीकरण की बुद्धि से बनाया जा रहा नया संविधान है, जिसके बनने के पहले बलि
चढ़ानी होगी: राष्ट्र-राज्य के दायित्वों की, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की, शिक्षा,
चिकित्सा, आवागमन, परिवहन, प्रसारण और राष्ट्रीय आत्म गौरव की भी, जो हममें रूस की
मैत्री के बाद आ गया था।
बहरहाल, यह भूमंडलीकरण के सुनहरे मुखौटे वाला उदारवादी जनतंत्र नहीं, युद्धरत
लोकतंत्र है, जहाँ जातियों से जातियाँ, संप्रदाय से संप्रदाय, धर्म से धर्म, राज्य
से राज्य, भाषा से भाषा, गाँव से शहर, राज्य से केद्र और भूगोल से इतिहास भिड़ चुका
है।
हमें हमारा कश्मीर चाहिए, हमारा
पंजाब और हमारा हिमाचल चाहिए। आधार कार्ड बाँटती सत्ता सबको आधारहीन कर चुकी है। जो
जहाँ है, स्वयं को दमित-अपमानित पा रहा है। राज्यों की जिम्मेदारियों की गठरियाँ
उतारकर एनजीओ ने अपने झोलों में डाल ली हैं। उनके अध्ययनों पर अध्ययन आ रहे हैं।
तंत्र तिरोहित है। कुल मिलाकर, नोम चोम्स्की के शब्दों की सहायता से कहूँ कि यह
संकट एक फेल्ड-स्टेट का है। यहाँ धूमिल की भी एक कविता की पंक्ति याद आ रही है: ‘न
जन है, न तंत्र है, बस आदमी के खिलाफ आदमी का खुला-सा षड्यंत्र है।’
२८ जनवरी २०१३ |