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रियो+२० सम्मेलन के बाद
सुरेश नौटियाल
ब्राजील में क्रिस्तो रिदेंतोर
(क्राइस्ट द रिडीमर) के शहर रियो द जनीरो में संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास या
पृथ्वी सम्मेलन (१३ से १९ जून तक आरम्भिक और २० से २२ जून तक फाइनल) के दौरान घाना
के एक प्रतिनिधि से बातचीत में हमने चुटकी ली कि राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों
के इस सम्मेलन में क्या चल रहा है तो उन्होंने जवाब दिया: ‘टॉक, टॉक, टॉक ...’
हिंदी में कहें तो ‘थोथा चना बाजे घना’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी, अर्थात
बातें तो बहुत पर सार्थक कुछ नहीं। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित अनेक
देशों के राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने २८३ बिंदुओं वाले जिस दस्तावेज को
अंगीकार किया है उसमें टिकाऊ विकास तथा आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय स्तरों पर
प्रतिबद्धता जताने की बात कही गयी है पर टिकाऊ विकास के लक्ष्य को हासिल करने के
लिये गरीबी उन्मूलन की सबसे बड़ी चुनौती से निपटने की कारगर विधि नहीं बताई गयी है।
जाहिर सी बात है कि इस दस्तावेज को लेकर जो असंतोष था, वह मुख्य सम्मेलन स्थल की
साइड एवेंट्स और शहर के विभिन्न इलाकों में चल रहे जनकार्यक्रमों में बराबर देखा जा
सकता था।
दूसरे शब्दों में, एक ओर औपचारिक रूप से बड़ी-बड़ी बातें बड़े-बड़े मंचों से कही जा
रही थीं तो दूसरी ओर रियो+२० सम्मेलन स्थल रियोसेंत्रो से कई-कई किलोमीटर दूर
फ्लेमिंगो पार्क में लगे टेंटों में चल रही विभिन्न विषयों पर गरमागरम बहसों को
सुनने से लगा था कि लोगों में गुस्सा ज्यादा है और वे चाहते हैं कि यहां मौजूद तमाम
देशों के नेता जिम्मेदारी का परिचय दें और रियो+२० पृथ्वी शिखर सम्मेलन को ऐतिहासिक
बनाने का काम करें। दस्तावेज में चूंकि बड़ी बातें हैं, इसलिये आर्थिक, सामाजिक और
पर्यावरणीय पक्षों के आपसी रिश्तों को समझते हुये टिकाऊ विकास की अवधारणा की समझ भी
बताई गयी है और यह भी कि इस सबके केंद्र में मनुष्य है। मजे की बात यह कि लोकतंत्र,
और मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुये दस्तावेज में कहा गया है कि
तमाम विषयों के साथ-साथ सामाजिक बराबरी, पर्यावरण संरक्षण, लैंगिक समानता, आर्थिक
प्रगति, बाल संरक्षण, इत्यादि आवश्यक हैं। पर यह सब कैसे होगा, यह सोचने की बात है।
पूर्व में हुये अनेक महत्वपूर्ण समझौतों और घोषणाओं के प्रति प्रतिबद्धता प्रकट
करते हुये दस्तावेज में कहा गया है कि टिकाऊ विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये
राजनीतिक इच्छाशक्ति को ऊर्जावान बनाना आवश्यक है।
दस्तावेज में इस बात को स्वीकार किया गया है कि १९९२ में पृथ्वी सम्मेलन के बाद से
दुनिया में प्रगति का पथ डांवांडोल वाला रहा है इसलिये पूर्व में की गयी
प्रतिबद्धताओं को पूरा करना जरूरी है। यहां यह कहना भी जरूरी है कि आज भी धरती पर
हर पांचवां व्यक्ति या एक अरब की आबादी घनघोर गरीबी में जीने को बाध्य है और हर
सातवां व्यक्ति या १४ फीसद आबादी कुपोषण की शिकार है। जलवायु परिवर्तन के कारण तमाम
देशों और खासकर गरीब मुल्कों पर बुरा प्रभाव पड़ा है और टिकाऊ विकास के लक्ष्यों तक
पहुंचना कठिन रहा है। दस्तावेज में सदस्य राष्ट्रों से आग्रह किया गया है कि वे ऐसे
एकतरफा उपाय न करें जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों अथवा संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के
विपरीत हों। पृथ्वी और इसके पारिस्थितिकी तंत्र के महत्व को स्वीकार करते हुये
दस्तावेज में कहा गया है कि वर्तमान और भविष्य की जरूरतों और आने वाली पीढ़ियों को
ध्यान में रखते हुये यह कहना आवश्यक है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य और सद्भाव बनाये
रखना आवश्यक है तथा टिकाऊ विकास के प्रोत्साहन में सरकार और विधायी संस्थाओं से
लेकर सिविल सोसायटी और तमाम क्षेत्रों और समुदायों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के महत्व को भी इसमें माना गया है। इसके अलावा किसानों,
मछुआरों, चरवाहों, वनपालकों, इत्यादि के महत्व को भी टिकाऊ विकास की प्रक्रिया में
स्वीकार किया गया है।
ग्रीन एकॉनमी अर्थात हरित आर्थिकी को टिकाऊ विकास और गरीबी उन्मूलन अभियान के लिये
आवश्यक माना गया है, हालांकि यह बात स्वीकार की गयी है कि प्रत्येक देश की अपनी
प्रतिबद्धतायें और जरूरतें हैं। इन सब बातों के बावजूद प्रेक्षकों का कहना है कि
दस्तावेज में वर्णित विषय स्थूलता लिये हैं और उनमें लक्ष्यभेदन क्षमता बहुत कम है
और इसके बिंदुओं पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की छाया देखी जा सकती है। बहुत सी
सरकारों के प्रतिनिधियों तक ने कहा है कि यह मसौदा अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है।
आदिवासियों के संगठनों की ओर से कहा ग्या है कि संयुक्त राष्ट्र, राष्ट्रों और
कॉर्पोरेशनों ने जलवायु परिवर्तन के जो झूठे समाधान सुझाये हैं, वे स्वीकार्य नहीं
हैं।
बहरहाल, राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने २८३ बिंदुओं वाले जिस दस्तावेज को
अंगीकार किया है उसमें मुख्य बातें हैं:
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(बिंदु-२) गरीबी – इसे सबसे
बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया है तथा मानवमात्र को गरीबी और भूख से
मुक्त करने का संकल्प दस्तावेज में लिया गया है।
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(बिंदु-६) लोगों को टिकाऊ
विकास की धुरी माना गया है और इस संदर्भ में विश्व को न्याय और समानता पर
आधारित तथा सबको साथ लेकर चलने लायक बनाने का संकल्प व्यक्त किया गया है।
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(बिंदु-१०) लोकतंत्र, सुशासन
और विधिसम्मत व्यवस्था और अनुकूल पर्यावरण को टिकाऊ विकास के लिये हर स्तर पर
महत्वपूर्ण मानते हुये ही लक्ष्यों को हासिल करने की बात कही गयी है।
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(बिंदु-१२) टिकाऊ विकास और
गरीबी उन्मूलन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये ग्रीन इकॉनमी अर्थात हरित
आर्थिकी को आधार बनाने की बात है, जो शायद पहली बार वैश्विक चिंतन के केंद्र
में आयी है।
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(बिंदु-१६) पर्यावरण और विकास
को लेकर १९९२ में पारित रियो घोषणापत्र अर्थात एजेंडा-२१ को पूरी तरह से लागू
करने का संकल्प इसमें व्यक्त किया गया है।
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(बिंदु-१७) टिकाऊ विकास के
संदर्भ में रियो में सम्पन्न तीनों कंवेंशंस का स्मरण दिलाते हुये सभी
राष्ट्रों से आग्रह किया गया है कि वे इन्हें लागू करने के उपाय करें।
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(बिंदु-१८) टिकाऊ विकास के
एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति को पुनर्जीवित करने के उपाय
करने की बात भी है।
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(बिंदु-१९) यह महत्वपूर्ण है
कि राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने इस बात को स्वीकार किया है कि पिछले
२० साल में गरीबी उन्मूलन और टिकाऊ विकास की गति प्रवाहमयी नहीं रही है,
वैश्विक स्तर पर निर्णय में तमाम राष्ट्रों और खासकर विकासशील देशों की
भागीदारी सुनिश्चित करने का संकल्प लिया गया है।
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(बिंदु-२४) बेरोजगारी और
दक्षता से कम स्तर के रोजगार की पहचान दस्तावेज में की गयी है और युवावर्ग के
लिये उपयुक्त रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने का संकल्प व्यक्त किया गया है।
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(बिंदु-३०) इस बात को भी
स्वीकार किया गया है कि अनेक लोग और खासकर गरीब अपने जीवन यापन के लिये अपने
आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर रहते हैं, लिहाजा प्राकृतिक संसाधनों
और पारिस्थितिकी तंत्र का उपयोग इस प्रकार हो कि ऐसे लोगों की जरूरतें भी पूरी
होती रहें और प्राकृतिक संसाधन तथा पारिस्थितिकीतंत्र भी सबल बने रहें।
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(बिंदु-३९) इसमें स्वीकार
किया गया है कि पृथ्वी ग्रह अर्थात धरती मां और इसके पारिस्थितिकी तंत्र तमाम
प्राणिमात्र के रहने की जगह हैं, इसलिये वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों की
आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय आवश्यकताओं में न्यायपूर्ण संतुलन बनाने के लिये
प्रकृति के साथ सद्भावपूर्ण संबंध आवश्यक है।
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(बिंदु-४१) विश्व की
प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार करते हुये कहा गया है कि सभी
संस्कृतियां और सभ्यतायें टिकाऊ विकास में अपनी भागीदारी करने में सक्षम हैं।
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(बिंदु-४४) टिकाऊ विकास में
सिविल सोसायटी की भूमिका के महत्व को स्वीकार किया गया है और कहा गया है कि
सूचना और संचार का बेहतर प्रवाह इसकी भूमिका को और सार्थक बना सकते हैं।
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(बिंदु-४९) टिकाऊ विकास के
लक्ष्यों को हासिल करने में आदम समाजों (आदिवासियों, अनुसूचित जातियों इत्यादि)
की भागीदारी को महत्वपूर्ण बताया गया है।
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(बिंदु-५२) पर्यावरण के
अनुकूल उत्पादन गतिविधियों के माध्यम से टिकाऊ विकास में किसानों और खासकर छोटे
किसानों, मछुआरों, पशुचारकों और वनवासियों के योगदान को सराहा गया है।
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(बिंदु-५६ और ६२) विभिन्न
देशों की भिन्न परिस्थितियों और विकास की भिन्न विधियों को स्वीकार करते हुये
टिकाऊ विकास और गरीबी उन्मूलन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिये ग्रीन इकॉनमी
अर्थात हरित आर्थिकी को अपनाना आवश्यक है और इस संदर्भ में प्रत्येक राष्ट्र को
ग्रीन इकॉनमी अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
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(बिंदु-८७) टिकाऊ विकास के
लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणीय गवर्नेंस की आवश्यकता पर बल दिया गया
है।
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(बिंदु-९७ और ९८) टिकाऊ विकास
के क्षेत्रीय आयाम को स्वीकार करते हुये कहा गया है कि टिकाऊ विकास की नीतियों
को राष्ट्रीय स्तर पर ठोस कार्यक्रमों में बदले जाने की आवश्यकता है और इस
कार्य को अंजाम देने में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर तक
सरकारी तंत्र द्वारा नीतियां बनाये जाने की आवश्यकता है।
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(बिंदु-१०८ और १०९) सुरक्षित,
पर्याप्त और पोषक भोजन की सर्व उपलब्धता के लिये आवश्यक रणनीतियां बनाने के बात
भी कही गयी है और यह भी स्वीकार किया गया है कि गरीबों का बड़ा हिस्सा गावों
में निवास करता है, लिहाजा कृषि और ग्रामीण क्षेत्र को फिर से प्रभावी बनाने की
आवश्यकता है।
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(बिंदु-११० और १११) कृषि और
किसानी की भिन्न परिस्थितियों की पहचान करते हुए कृषि सहकारिता क्षेत्र को
मजबूत किये जाने पर बल दिया गया है और टिकाऊ कृषि के तमाम अंगों यथा फसल,
पशुपालन, मत्स्यपालन, वनसंरक्षण इत्यादि पर विशेष ध्यान दिये जाने पर जोर दिया
गया है।
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(बिंदु-११६) खाद्य पदार्थों
के अत्यधिक दामों पर अंकुश लगाने के लिये इसके कारणों की पहचान कर उपाय करने की
बात कही गयी है।
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(बिंदु-११९, १२१, १२२ और १२४)
टिकाऊ विकास की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में जल के बड़े भारी महत्व को
स्वीकारते हुये कहा गया है कि टिकाऊ विकास की प्रक्रिया में इसे समाहित किये
जाने और साथ ही टिकाऊ विकास के तीनों आयामों को इससे और सेनिटेशन से जोड़ने की
आवश्यकता है तथा सुरक्षित पेयजल और सेनिटेशन की सुविधा उपलब्ध कराने की
वचनबद्धता दोहराई गयी है। साथ ही जल की मात्रा और गुणवत्ता ठीक रखने के लिये
पारिस्थितिकीतंत्रों के संरक्षण और टिकाऊ रखरखाव की आवश्यकता पर बल दिया गया
है।
दस्तावेज में शब्दों की स्थूलता,
लक्ष्यभेदनहीनता और एक्शन प्लान की अनुपस्थिति के मद्देनजर कुछ विश्लेषक तो रियो+२०
सम्मेलन को प्रथम विश्व युद्ध के बाद दुनिया के सामूहिक नेतृत्व की सबसे बड़ी
असफलता के रूप में देख रहे हैं। एक ओर पूरी दुनिया की पारिस्थितिक व्यवस्था चरमरा
रही है तो दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और रूस जैसे देशों के नेताओं ने इस
सम्मेलन से अनुपस्थित रहकर अपनी गैर-जिम्मेदारी का परिचय दिया है, जो आये उन्होनें
बार-बार टिकाऊ विकास की बात कही जो वास्तव में बायोस्फियर की क्षति के लिये
जिम्मेदार है।
जल प्रदूषण को कम करने और जल की
गुणवत्ता सुधारने की आवश्यकता भी बताई गयी है। (बिंदु-१२५ और १२८) विकास की
प्रक्रिया से लेकर स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन तक में ऊर्जा (बिजली) की भूमिका का
उल्लेख करते हुये कहा गया है कि जेंडर समानता और सभी वर्गों को साथ लेकर चलने में
ऊर्जा की उपलब्धता आवश्यक है और दुनिया में शेष १.४ अरब लोगों तक ऊर्जा अर्थात
बिजली पहुंचाने का लक्ष्य हासिल करना है तथा टिकाऊ विकास के लिये स्वच्छ और
रिन्युबल ऊर्जा स्रोतों और उपयुक्त प्रौद्योगिकी अपनाने की जरूरत है। (बिंदु-१३०)
दस्तावेज में कहा गया है कि सुनियोजित और पर्यावरण अनुकूल पर्यटन टिकाऊ विकास के
तीनों आयामों में योगदान कर सकने में सक्षम है,लिहाजा विकासशील देशों में इस दिशा
में उपयुक्त उपाय करने की जरूरत है। (बिंदु-१३२) टिकाऊ विकास में यातायात और आवागमन
को महत्वपूर्ण बताते हुये कहा गया है कि परिवहन और आवागमन के क्षेत्र में पर्यावरण
का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये। (बिंदु-१३४) टिकाऊ विकास में सुनियोजित ढंग से
बसाये गये शहरों की भूमिका को स्वीकार किया गया है और कहा गया है कि शहरों का विकास
इस प्रकार हो कि लोगों को आसानी से आवास व्यवस्था उपलब्ध हो। (बिंदु-१३८,१३९ और
१४०) इन बिंदुओं में कहा गया है कि टिकाऊ विकास की अवधारणा में स्वास्थ्य पूर्व
शर्त है और सभी वर्गों के लोगों को मिलाकर स्वस्थ समाज का निर्माण जरूरी है जो मानव
के विकास के लिये परम आवश्यक है। पूरी आबादी को स्वास्थ्य-चिकित्सा के सुविधा भी
अनिवार्य है तथा एचआईवी-एड्स सहित तमाम संक्रमण वाली और अन्य बीमारियों से लड़ने के
उपाय जरूरी हैं। (बिंदु-१४७-१५६) रोजगार के नये अवसर पैदा किये जाने की आवश्यकता पर
भी बल दिया गया है।
श्रम के महत्व को स्वीकारते हुये खासकर महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अनौपचारिक और
भुगतान रहित श्रम का संज्ञान भी लिया गया है और कहा गया है कि टिकाऊ विकास में इसकी
खासी भूमिका है। सम्मानजनक नौकरी के महत्व का भी उल्लेख है और कामगारों के
स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक की व्यवस्था की बातें हैं, (बिंदु-१८७) प्राकृतिक आपदा
की संभावना की पूर्व सूचना प्रणाली की उपयुक्त व्यवस्था पर बल दिया गया है ताकि
जान-माल के नुकसान को कम किया जा सके, (बिंदु-१९०-१९२) जलवायु परिवर्तन को वर्तमान
समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में मानते हुये कहा गया है कि खासकर विकासशील देश
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना कर रहे हैं,लिहाजा इससे निपटने के लिये
सभी देशों के बीच सहयोग जरूरी है और क्योतो प्रोटोकॉल में शामिल देशों से आग्रह है
कि वे अपनी वचनबद्धता पूरी तरह से निभायें, (बिंदु-१९३-१९६) इन बिंदुओं में वनों से
होने वाले सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभों का उल्लेख करते हुये कहा गया है कि
वनों का टिकाऊ ढंग से प्रबंधन जरूरी है, (बिंदु-१९७-२०४) जैव-विविधता के महत्व और
इससे जुड़े पारिस्थितिकी, अनुवांशिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, शैक्षिक,
सांस्कृतिक, मनोरंजनक और कलात्मक अभिव्यक्तियों और गुणों का उल्लेख करते हुये कहा
गया है कि जैव-विविधता को हुये नुकसान को रोककर उसे ठीक करने की जरूरत है और इस
बारे में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है, (बिंदु-२०६) भूमि क्षरण का भी
उल्लेख है और इसे तत्काल रोकने की जरूरत बताई गयी है, (बिंदु-२१०-२१२) पर्वतों के
बारे में कहा गया है पर्वत क्षेत्रों से जो लाभ होते हैं, उनका टिकाऊ विकास में
महत्वपूर्ण योगदान है और वहां के पारिस्थितिकीतंत्र दुनिया की बड़ी आबादी को पानी
देते हैं। इसे देखते हुये संवेदनशील पर्वत पारिस्थितिकी को बचाने के उपाय जरूरी
हैं। यह इसलिये भी जरूरी है कि पर्वतों पर आदम सहित अनेक समाजों का निवास है और वे
स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल टिकाऊ ढंग से करते हैं।
इस सबके परिप्रेक्ष्य में आग्रह है कि विशेषकर विकासशील देशों में पर्वतों के
पारिस्थितिकी तंत्र को टिकाऊ बनाने की जरूरत है, (बिंदु-२२४-२२६) उत्पादन और उपभोग
इस प्रकार से किये जाने का आग्रह है कि दोनों की निरंतरता बनी रहे, (बिंदु-२२७-२२८)
आर्थिक विकास में खनन की भूमिका स्वीकारते हुये कहा गया है कि इस गतिविधि को करते
समय पर्यावरण और पारिस्थितिकी का ध्यान रहे और इसके ठीक संचालन के लिये उचित और
प्रभावी कानून बनें, (बिंदु-२२९-२३५) शिक्षा के अधिकार के प्रति प्रतिबद्धता जताते
हुये कहा गया है कि खासकर विकासशील देशों में सर्व शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने के
लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाया जायेगा, (बिंदु-२३६-२४४) जेंडर समानता और महिलाओं
के सशक्तिकरण के बारे में कहा गया है कि टिकाऊ विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है
और इसमें उनकी पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिये, साथ ही उन्हें शिक्षा का
अधिकार भी बराबरी पर मिले। कुल मिलाकर, टिकाऊ विकास के लिये जेंडर समानता आवश्यक
है, (बिंदु-२४५-२५१) टिकाऊ विकास के लक्ष्यों के बारे में कहा गया है कि
सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य ऐसे औजार हैं जिनकी बदौलत निर्धारित लक्ष्य हासिल किये
जा सकते हैं और यह प्रक्रिया टिकाऊ विकास के लिये जरूरी है। यह भी कहा गया है कि
टिकाऊ विकास के लक्ष्यों में गति होनी चाहिये। इस बारे में सरकारों के बीच सहयोग का
तरीका बनाया जायेगा, साथ ही टिकाऊ विकास के बारे में सूचनाओं के आदान-प्रदान का
महत्व है, (बिंदु-२५२) लक्ष्यों को लागू करने के तरीकों के बारे में कहा गया है कि
एजेंडा-२१ सहित अब तक के विभिन्न कार्यक्रमों में लक्ष्य निर्धारित हैं और इन्हें
सुशासन के जरिये हासिल किया जाना है, (बिंदु-२५३-२६८) इस सबके लिये वित्त व्यवस्था
के बारे में कहा गया है कि तमाम देश अपनी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के हिसाब से
टिकाऊ विकास लक्ष्यों के लिए धन की व्यवस्था करें, (बिंदु-२६९-२७६) इन बिंदुओं में
कहा गया है कि विकसित देश विकासशील देशों को उचित प्रौद्योगिकी और सूचना का
हस्तांतरण करें, (बिंदु-२७७-२८३) शेष बिंदुओं में क्षमता निर्माण, व्यापार और
प्रतिबद्धताओं का उल्लेख है। अंतिम बिंदु २८३ में विभिन्न देशों द्वारा टिकाऊ विकास
के लक्ष्यों के प्रति व्यक्त प्रतिबद्धता का उल्लेख है।
दस्तावेज में शब्दों की स्थूलता, लक्ष्यभेदनहीनता और एक्शन प्लान की अनुपस्थिति के
मद्देनजर कुछ विश्लेषक तो रियो+२० सम्मेलन को प्रथम विश्व युद्ध के बाद दुनिया के
सामूहिक नेतृत्व की सबसे बड़ी असफलता के रूप में देख रहे हैं। एक ओर पूरी दुनिया की
पारिस्थितिक व्यवस्था चरमरा रही है तो दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और रूस
जैसे देशों के नेताओं ने इस सम्मेलन से अनुपस्थित रहकर अपनी गैर-जिम्मेदारी का
परिचय दिया है, जो आये उन्होनें बार-बार टिकाऊ विकास की बात कही जो वास्तव में
बायोस्फियर की क्षति के लिये जिम्मेदार है। मानवता संकट में है और विभिन्न देशों का
राजनीतिक नेतृत्व अपनी भूमिका निभाने को तैयार नहीं है। रियो ने इन्हें जो मौका
दिया था, वह उन्होंने गवां दिया है। अब न जाने ऐसा ऐतिहासिक मौका कब आयेगा! (इंडिया
वाटर पोर्टल से साभार)
२ जुलाई २०१२ |