सामयिकी


उनकी नजरों से देखेंगे
अपना सच?
प्रभु जोशी


अमेरिका की ’ऐसोसिएट‘ तथा ’यूनाइटेड प्रेस‘, जर्मनी की ‘वुल्फ’, ब्रिटेन की ’रायटर‘, फ्रांस की ’हवास‘ आदि शीतयुद्ध के दौरान की वे समाचार एजेंसियाँ थीं, जिन्हें रिंग कॉम्बीनेशन‘ के नाम से पुकारा जाता था तथा जो समृद्ध राष्टों के राजनीतिक-आर्थिक हितों के लिए सूचनाओं का निमार्ण करती थीं। अब एकध्रुवीय हो चुके इस विश्व में ’वुल्फ‘ बंद हो गई। फ्रांस की ’हवास‘ को एएफपी के नाम से पुनर्गठित किया जा चुका है और अमेरिका की अब दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली समाचार एजेंसियाँ अस्तित्व में आ गई हैं। वे विश्व राजनीति को प्रभावित और नियंत्रित करती हैं। ’टाइम्स-वार्नर‘, ’डिज्नी‘, ’वाईकॉम‘, ’न्यूज कॉर्पोरेशन‘, ’एओएल‘, ’पॉलीग्राम‘, ’यूनाइटेड मीडिया‘ आदि जहाँ भी दाखिल होती हैं, एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लेती हैं। ’टाइम तथा वार्नर‘ नामक दो कंपनियाँ विलय के उपरांत एक हो गईं और उनके उत्पाद की कुल बिक्री लगभग तीस बिलियन डॉलर सन् २००० में बताई गई थी। उनकी कोई २०० सबसिडी फर्में हैं, जो मनोरंजन फिल्मों, वीडियों, टेलीविजिन कार्यक्रम बनाती हैं। यहाँ तक की डिज्नी का व्यवसाय २५ लाख करोड़ डॉलर है, जिसका ३१ प्रतिशत हिस्सा केवल प्रसारण से आता है।

नोम चोम्स्की और एडवर्ड एस हिरमैन ने ’न्यू मैन्यूफेक्चरिंग कंसेंट‘ नामक अपनी कृति में अमेरिका की सर्वोच्च कंपनियों की कुल परिसंपत्तियों तथा कारोबार का विवरण दिया है, जिससे पता चलता है कि वे किस तरह से काम करती हैं और माध्यमों का केंद्रीकरण करते हुए विश्व राजनीति को अपने हितों के अनुसार किस तरह मोड़ती हैं। ये ’माध्यम साम्राज्यवाद‘ के लिए ऐसे शक्तिशाली जबड़ों की भूमिका अदा करती हैं कि जब ये किसी राष्ट्र को दबोचती हैं तो उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक परंपरा को निगलकर अपनी आर्थिक शक्ति में अकूत इजाफा कर लेती
हैं। आज ऐसी ही कंपनियों द्वारा संचालित ९ हजार रेडियो स्टेशन तथा १५०० टेलीविजिन केंद्र केवल अमेरिका में काम कर रहे हैं।

बहरहाल, ये सूचना एजेंसियाँ ’सच्चाई‘ को सामने नहीं लातीं, बल्कि विराट झूठों का ऐसा तिलिस्म खड़ा करती हैं, जो ’सच‘ से ज्यादा भरोसेदार और पुख्ता होता है। इन्हीं के द्वारा निर्मित ’झूठे-सचों‘ की ढालों को लेकर एक दिन अमेरिका अफगानिस्तान में सेना उतार देता है, इराक में घुसकर वहाँ के राष्ट्रनायक का वध कर देता है और लीबिया पर हमला करके सत्ता को नेस्तनाबूद कर देता है। उसकी इन कार्रवाइयों के खिलाफ किसी की जीभ हिलती नहीं है, क्योंकि वे किसी भी राष्ट्र के शिखर पुरूष को उसी के राष्ट्रवासियों द्वारा विसर्जन के योग्य बनाने की सामर्थ्य रखती हैं।

बहरहाल, पिछले सप्ताह विदेशी कंपनियों के लिए भारत सरकार ने अपनी अर्थव्यवस्था का जो ’सिंह‘ द्वार खोला है, उसके चलते सूचना प्रसारण के क्षेत्र में खासतौर पर ७४ प्रतिशत विदेशी पूँजी का प्रतापी-प्रवेश होगा और सूचना-उत्पादन तथा वितरण के मैदान में ऐसी कंपनियाँ अपने वैराट्य का प्रर्दशन करेगी, तब भारत का सूचना परिदृश्य एकदम बदल जाएगा। यह बदलाव हमें तब अपने चरम पर देखने को मिलेगा, जब भारत में आम चुनाव आएँगे। इन चुनावों में इन ताकतों के तेवर ही तय करेंगे कि वे किस राजनीतिक दल या धड़े के लिए हवा बाँधती हैं और किसकी पवन मुक्ति करती हैं। यहाँ यह भी याद रख लें कि आप-हम असहाय होकर यह दृश्य देखने के लिए अभिशप्त होंगे कि हमारे देश में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की खबरें ऐसी प्रमुखता से प्रसारित की जा रही हैं कि जैसे वॉशिंगटन के किसी मतदान केंद्र में हमारे मोहल्ले के आदमी तक को वोटिंग मशीन का बटन दबाने जाना है।

बहुत मुमकिन है कि तब तक आकाशवाणी और दूरदर्शन, जो कि पता नहीं किस विवशता के चलते अभी तक भारत सरकार के संस्थान हैं, लोक प्रसारण की जिम्मेदारी से मुक्त होकर विदेशी पूँजी के भागीदार हो जाएँ, क्योंकि पिछले दिनों सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों ने इन दोनों ही संस्थानों के देशभर में फैले सभी केंद्रों से यह विवरण माँग कर एकत्र कर लिया है कि उनके पास कितने और कौन-कौन से संसाधन है। उनके स्वामित्व के अंतर्गत कितनी जमीनें हैं तथा उनका वर्तमान बाजार मूल्य क्या है? वैसे इन उपक्रमों की गरदनें तो उदारवाद के आगमन के साथ ही पकड़ ली गई थीं। आकाशवाणी को सुनो तो लगता है वह रुँधे गले से रामधुन गा रही है। इन संस्थानों में कर्मचारियों का टोटा पड़ चुका है और वे इस समय निहायत ही अप्रशिक्षित और अधकचरी समझ के कर्मचारियों को किराए पर उठाकर अपना दैनंदिन निबटा रही हैं। दोनों संस्थाओं में पुराने कर्मचारी तो प्रमोशन की प्रतीक्षा करते-करते सेवानिवृत्ति की भेंट चढ़ गए। नयों की भर्ती नहीं की गई। वे बंद गली के आखिरी मकान में बदल गईं। ये लोक प्रसारण को लुप्त करने के संकेत हैं।

शायद सत्ता के शिखर पुरूषों के सामने यह बहुत स्पष्ट अभीष्ट था कि एक दिन इस देश को ठेलकर सांस्कृतिक-आर्थिक साम्राज्यवाद की छतरी के नीचे लेकर जाना है, क्योंकि इसकी नियति ऐसी अधीनता में ही है। पैंसठ वर्ष बहुत होते हैं, उपनिवेश से मुक्ति के विजयोल्लास के लिए। स्वतंत्रता का झुनझुना बहुत बजा लिया, देश और दलों ने दमामियों की तरह। गोरी चमड़ी द्वारा रेल के डिब्बे से बाहर फेंक दिए गए एक काली चमड़ी के गुजराती वकील का यह गैरजरूरी उथलधड़ा था, और अंग्रेज देश छोड़कर चले गए, जबकि हम तो गौरांग के ही आराधक रहे हैं। नतीजतन हमने गांधी के
ग्राम स्वराज को पहले ही दिन घूरे पर फेंक दिया था। अलबत्ता, नहेरू के ’महालनोविस‘ मॉडल के ध्वंस में जरूर विलंब हुआ।

अब राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था लज्जास्पद शब्द है। अंतराष्ट्रीय व्यवस्था से ब्रह्यगांठ जनम-जनम के फेरे बन रही है। यों ही ’राष्ट्र-राज्य‘ के क्षरण को हमने बढ़ाया। अस्मिताएँ एक-दूसरे से युद्धरत हुई। अबाध शहरीकरण ने कृषि प्रधान होने के कलंक को धोया। एक नया निरूद्योगीकरण शुरू किया। तकनीकी नियतिवाद के प्रचार ने सबको अपने सर्वस्व को स्वाहा करने के लिए तैयार किया। विषमता के अर्थशास्त्र ने ’क्वालिटी ऑफ लाइफ‘ का लालच गढ़ा। स्थानीयता विरोधी वैश्विक साम्रगी, जो समाज को मूल से विच्छेद करती है, को बाजार में पूजनीय बनाया। अब यहाँ भी लोग ’नेशन इज एन इमेजिंड कम्युनिटी‘ के सत्य में विश्वास करने लगे हैं। तंत्र और राजनीति दोनों भ्रष्ट बने। रिश्वत, स्पीड मनी का गौरव प्राप्त कर सकी। राजनीति को दृश्य माध्यम ने खोखला सिद्ध किया। इसी के चलते परमाणु समझौते का यज्ञ पूरा हुआ। अब पूर्णाहुति की तरह अंत में हमने विदेशी पूँजी के लिए द्वार खोल दिए। यह था याराना पूँजीवाद का अंतिम कार्यभार। हमारा काम सपंन्न।

कहना न होगा कि शायद स्वतंत्रता की दहाड़ मारने वाले हमारे राष्ट्रीय चिन्ह के ’सिंह‘ एक दिन अवसाद से घिरकर सोचें कि सत्ता के ’सिंह‘ ने अर्थव्यवस्था का द्वार क्या खोला हम तो विदेशी पूँजी के पिंजरे में चले गए! यह कोई नई पराधीनता तो नहीं है? क्या हम दूसरों की आँखों से अपना सच देखेंगे?

२४ सितंबर २०१२