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शिक्षा वहाँ राजनीति यहाँ
विजय कुमार
भारत में अधिकांश राजनेता धरती की
राजनीति करने का दावा करते हैं, फिर भी धरातल की समस्याएँ नहीं सुलझतीं। इसमें एक
बड़ा दोष तो वंशवादी लोकतंत्र का है; पर उसके साथ ही उनके घरेलू संस्कार और शिक्षा
का भी कुछ दोष हो सकता है।
भारत के प्रायः सभी बड़े एवं स्थापित नेताओं के बच्चे पढ़ने के लिए युवावस्था के लगभग
१० वर्ष विदेश में बिताते हैं। यह वही समय है, जब कुछ विचार उनके मस्तिष्क में
स्थायी रूप लेते हैं। जीवन के इस निर्णायक मोड़ पर विदेश के विलासितापूर्ण वातावरण
का उनके मन पर जो प्रभाव पड़ता है, वह उन्हें भारत की मिट्टी से काट देता है। ऐसे
जड़कटे लोग अपने परिवार के प्रभाव से जब राजनीति में आएँगे, तो उनके कुछ आशा करना
व्यर्थ ही है।
१९४७ से पूर्व कानून की ऊंची शिक्षा पाने के लिए लोग विदेश जाते थे। कोई अपने
अभिभावकों के पैसे से वहां रहते थे, तो कोई किसी संस्था या राजा की छात्रवृत्ति से।
गांधी जी से लेकर मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल, मालवीय जी, सरदार पटेल, डा. अम्बेडकर
आदि ने इंग्लैंड से ही बैरिस्टर की उपाधि पायी। ये सब लोग आगे चलकर राजनीति में
आये।
दूसरी ओर राजस्थान और देश के अन्य भागों के राजे-रजवाड़े थे, जहाँ परम्परा से पिता
के बाद गद्दी बड़े पुत्र को मिल जाती थी। अंग्रेजों ने यह अनुभव किया कि इन राजाओं
और जमींदारों के प्रति प्रजा में बहुत आदर है। १८५७ में कई रजवाड़ों ने अंग्रेजों का
विरोध किया था। अंग्रेज वर्तमान के साथ ही सौ साल आगे की बात भी सोचते हैं।
उन्होंने सोचा कि वर्तमान राजाओं का मन बदलना तो कठिन है; पर इनके युवराजों के
दिमाग में यदि अंग्रेजियत का प्रभाव बैठा दें, तो इनके राजा बनने पर बड़ी सुविधा हो
जाएगी।
इस दिशा में काम करते हुए उन्होंने भारत में अंग्रेजी माध्यम के मेयो स्कूलों की
स्थापना की। इनमें मुख्यतः जमींदारों और राजाओं के बच्चे ही पढ़ते थे। इनके रहने के
लिए वैभव और विलासता से परिपूर्ण छात्रावास बनाये गये, जहाँ ये अपने नौकर-चाकर और
घोड़े-बग्घियों के साथ शाही वातावरण में रहते थे।
ये विद्यालय इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से जुड़े थे। अर्थात मैट्रिक
उत्तीर्ण कर स्नातक की शिक्षा के लिए छात्रों को इंग्लैंड जाना अनिवार्य था।
इंग्लैंड में भी उनके भोजन, आवास आदि की सुविधापूर्ण व्यवस्था की जाती थी। शिक्षा
के साथ ही शराब, शबाब और कबाब का भी वहाँ पूर्ण प्रबन्ध रहता था।
पर अंग्रेजों का उद्देश्य उन्हें केवल पढ़ाना तो नहीं था। अतः उन्हें ईसाइयत के
प्रभाव में लाने का प्रयास होता था। इसके लिए उनके पीछे योजनाबद्ध रूप से कई ईसाई
लड़कियाँ लगा दी जाती थीं, जो उन्हें हर प्रकार से भ्रष्ट कर देती थीं। उनके प्रभाव
में कुछ लोग ईसाई बन भी जाते थे। जो नहीं बनते थे, उनके मन में भी अंग्रेजों के
प्रति सहानुभूति तो उत्पन्न हो ही जाती थी। कुछ युवक लौटते समय इन विषकन्याओं को
पत्नी या रखैल के रूप में साथ ले आते थे। ये आगे चलकर उनके राजकाज में खुला
हस्तक्षेप करती थीं। ऐसे उदाहरणों से भारत का इतिहास भरा है।
इस प्रकार से अंग्रेजों ने भावी शासकों को वास्तविक धरातल से काटकर एक मायावी
दुनिया का आदी बना दिया। केवल भारत में ही नहीं, तो निकटवर्ती श्रीलंका, नेपाल,
भूटान, म्यांमार, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि के राजपुत्रों के बारे में भी यही सत्य
है।
१९४७ में अंग्रेज तो चले गये; पर उनका बनाया हुआ वातावरण यहीं रह गया। परिणामस्वरूप
आज भी अनेक बड़े नेताओं के बच्चे पढ़ने विदेश जाते हैं। वर्तमान युवा सांसदों तथा
मंत्रियों के विवरण देखें, तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। सोनिया मैडम को तो सब
जानते हैं; पर अन्य कई नेताओं की पत्नियाँ भी विदेशी हैं। इनमें से कितनी
षड्यन्त्रपूर्वक साथ आई हैं, कहना कठिन है।
नेताओं की ही तरह अधिकांश उद्योगपति, फिल्म अभिनेता और अब बड़े सरकारी अधिकारियों के
बच्चे भी बाहर पढ़ने लगे हैं। इनमें से अधिकांश को योग्यता नहीं, पैसे के बल पर वहाँ
प्रवेश मिलता है। उद्योगपतियों और अभिनेताओं के लिए तो उनका खर्च उठाना सरल है; पर
बाकी के बच्चे कैसे पढ़ते हैं, यह खोज का विषय है। अभी तक केन्द्र और राज्यों
अधिकांशतः कांग्रेस का ही शासन रहा है, इसलिए कांग्रेसी नेताओं के बच्चे ही विदेश
जाते थे; पर अब अन्य दलों के नेतासुत भी इस लाइन पर लग गये हैं।
यह कहना संभवतः ठीक नहीं होगा कि विदेश में पढ़ाई बहुत अच्छी होती है। अमरीका के कई
विश्वविद्यालय फर्जी सिद्ध हो चुके हैं, जहाँ जाकर भारतीय छात्र पैसा और समय गवाँकर
उल्लू बन रहे हैं। आस्ट्रेलिया से भारतीय छात्रों को मारपीट कर भगाया जा रहा है।
फिर भी लोग वहाँ क्यों जाते हैं ?
इसका एक ही मुख्य कारण ध्यान में आता है। जिस व्यक्ति के पास अन्य लोगों से अधिक धन
या सत्ताबल आ जाता है, वह स्वयं को कुछ ऊँचा प्रदर्शित करना चाहता है। महँगे भौतिक
उपकरण, कपड़े, गाड़ी, विवाह में तड़क-भड़क, बड़ा मकान, दुकान, बच्चों को महँगे
विद्यालयों में पढ़ाना आदि इसमें सहायक होते हैं।
देहरादून का मेरा एक मित्र असम में जंगलात विभाग की सेवा में था। उसके अधिकारी ने
उसे अपने बच्चे का प्रवेश ‘दून स्कूल’ में कराने को कहा। मित्र बच्चे को साथ ले
आया; पर काफी प्रयास के बाद दून स्कूल तो दूर, देहरादून या मसूरी के किसी अच्छे
विद्यालय में भी उसे प्रवेश नहीं मिला। जब यह बात अधिकारी को पता लगी, तो उसने कहा
कि देहरादून के किसी भी विद्यालय में उसे भर्ती करा दो। यहां से कौन देखने जा रहा
है कि वह कहां पढ़ रहा है ? हम तो सबसे यही कहेंगे कि बच्चा ‘दून स्कूल’ में पढ़ रहा
है।
अर्थात यह एक मानसिकता है, जो सम्पन्न वन अधिकारी को अपने बच्चे को देहरादून भेजने
के लिए बाध्य करती है। इसी के चलते अति सम्पन्न लोग अपने बच्चों को अमरीका,
इंग्लैंड या आस्ट्रेलिया भेजते हैं। ऐसे में इरोड (तमिलनाडु) के जिलाधीश डा. आर.
आनंदकुमार प्रशंसनीय है, जिन्होंने अपनी छह वर्षीय बेटी गोपिका को कुमालनकुट्टी में
तमिल माध्यम के सरकारी विद्यालय में कक्षा दो में प्रवेश दिलाया है। उसके प्रवेश से
ही पूरे विद्यालय का वातावरण बदल गया। यदि सभी सम्पन्न एवं प्रभावी लोग ऐसा करें,
तो सरकारी विद्यालयों की प्रतिष्ठा एवं स्तर स्वयं ही सुधर जाएगा।
पर यहाँ तो उदाहरण दूसरे प्रकार के ही मिलते हैं। शिक्षा क्षेत्र में भारतीयता को
प्रमुखता देने वाले विद्यालयों के पदाधिकारियों के बच्चे प्रायः अंग्रेजी
विद्यालयों में पढ़ते मिलते हैं। ये लोग सम्पन्न एवं समाज में प्रभावी होते हैं। वे
सोचते हैं कि ये विद्यालय सामान्य लोगों के लिए हैं, हमारे जैसे विशिष्ट लोगों के
लिए नहीं। इसके पीछे भी स्वयं को कुछ अलग एवं ऊँचा दिखाने की मानसिकता ही है।
सच तो यह है कि दो रु. से लेकर २००० रु. महीना शुल्क वाले विद्यालय बच्चों के मन
में सदा के लिए ऊँच-नीच की भावना बैठा देते हैं। ऐसे लोग जब किसी प्रभावी स्थान पर
बैठते हैं, तो यह भावना उनके निर्णय को भी प्रभावित करती है। अतः देश की एकात्मता
के लिए कक्षा दस तक शिक्षा का समान होना अति आवश्यक है।
कई लोग प्रायः विदेश घूमने जाते हैं। यदि उनसे पूछें कि क्या उन्होंने भारत के सब
तीर्थ, धाम और पर्यटन स्थल देखे हैं, तो उनका चेहरा उतर जाएगा। उनका उद्देश्य केवल
घूमना नहीं है। वे तो अपने पड़ोसी, संबंधियों और सहकर्मियों पर रौब गाँठना चाहते
हैं।
कहते हैं कि सोना यदि कूड़े के ढेर में भी पड़ा हो, तो उठा लेना चाहिए। ऐसे ही किसी
विशेष शिक्षा के लिए विदेश जाना अपराध नहीं है; पर उसका उपयोग कितना हो रहा है, यह
अवश्य देखना चाहिए। राजनीति का धंधा करने वालों से तो यह प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए।
भारत में विधायक, सांसद या मंत्री की विशिष्ट शैक्षिक योग्यता नहीं देखी जाती।
वित्त मंत्री ने अर्थशास्त्र और रक्षा मंत्री ने सैन्य विज्ञान पढ़ा हो, यह आवश्यक
नहीं है। इसके लिए तो जाति और क्षेत्र का समीकरण ही पर्याप्त है।
गांधी जी जब अफ्रीका से लौटे, तो गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर वे पूरे भारत में
घूमे। उन्होंने गरीबी और अशिक्षा को निकट से देखा और निर्णय लिया कि भारत में काम
करने के लिए निर्धन वर्ग की तरह रहना होगा। उन्होंने अपनी लम्बी गुजराती पगड़ी नदी
में बहा दी और आजीवन आधी धोती पहनते रहे। इसीलिए वे भारत के मन को समझ पाए और जनता
के हृदयहार बन सके।
पर दिन-रात गांधी जी का नाम लेने वाले इन आधुनिक नेता और शासन-प्रशासन के लोगों का
व्यवहार बिल्कुल विपरीत है। इसका मुख्य कारण उनकी शिक्षा ही है। भारत की महँगी,
अँग्रेजी माध्यम वाली और फिर विदेशी शिक्षा उन्हें भारत से काट देती है। ऐसे लोगों
के लिए ही किसी ने कहा था -
जड़ों से कटे हुए लोग, टुकड़ों में बंटे हुए लोग
अम्बर की करते हैं बात, गमलों में उगे हुए लोग।।
यद्यपि गांधी, पटेल, अरविंद, सावरकर, अम्बेडकर जैसे लोग अपने घरेलू संस्कारों के
कारण विदेश में पढ़ने के बाद भी भारत और भारतीयता के पुजारी बने रहे; पर आज तो घर से
लेकर बाहर तक सब ओर कीचड़ है। ऐसे में विदेशी (कु)शिक्षा से विभूषित, भ्रष्ट
नेतासुत, जो भावी भारत के भाग्य विधाता बनने को तैयार हैं, देश का कैसा बंटाधार
करेंगे, यह देखना अभी बाकी है।
१२ दिसंबर २०११ |