होमियोपैथी की विकास यात्रा
-डॉ. ए. के. अरुण
भारत
में होमियोपैथी का इतिहास २०० साल से अधिक पुराना है।
सहज एवं सस्ती चिकित्सा प्रणाली होते हुए भी
होम्योपैथी को कभी महत्त्वपूर्ण या प्रमुख चिकित्सा
पद्धति नहीं माना गया। कभी जादू की पुड़िया, मीठी
गोलियाँ तो कभी प्लेसिबो कहकर इसे महत्त्वहीन बताने की
कोशिश हुई, लेकिन अपनी क्षमता और वैज्ञानिकता के
बलबूते होम्योपैथी विकसित होती रही। होम्योपैथी
एलोपैथी के बाद दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी चिकित्सा
पद्धति है। होम्योपैथी एक
ऐसी चिकित्सा विधि है जो
शुरू से ही चर्चित, रोचक और आशावादी पहलुओं के साथ
विकसित हुई है।
सन १८१० में इसे जर्मन यात्री और मिशनरीज अपने साथ
लेकर भारत आए। इन छोटी मीठी गोलियों ने भारतीयों को
लाभ पहुँचा कर, अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया। सन्
१८३९ में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की गम्भीर
बीमारी के इलाज के लिए फ्रांस के होम्योपैथिक चिकित्सक
डा. होनिंगबर्गर भारत आए थे। उनके उपचार से महाराजा को
बहुत लाभ मिला था। बाद में सन १८४९ में जब पंजाब पर सर
हेनरी लारेन्स का कब्जा हुआ, तब डा. होनिंगबर्गर अपने
देश लौट गए। सन १८५१ में एक अन्य विदेशी चिकित्सक सर
जान हंटर लिट्टर ने कलकत्ता में मुफ्त होम्योपैथिक
चिकित्सालय की स्थापना की। सन् १८६८ में कलकत्ता से ही
पहली भारतीय होम्योपैथिक पत्रिका शुरू हुई तथा १८८१
में डा. पीसी
मुजुमदार एवं डा. डीसी राय ने कलकत्ता में भारत के
प्रथम होम्योपैथिक कालेज की स्थापना की।
होम्योपैथी के आविष्कार की कहानी भी बड़ी रोचक है।
जर्मनी के एक विख्यात एलोपैथिक चिकित्सक डा. एैमुएल
हैनिमैन ने चिकित्सा क्रम में यह महसूस किया कि
एलोपैथिक दवा से रोगी को केवल अस्थाई लाभ ही मिलता है।
अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर उन्होंने दवा को
शक्तिकृत कर प्रयोग किया तो उन्हें अत्यधिक सफलता मिली
और उन्होंने सन् १८९० में होम्योपैथी का आविष्कार
किया। होम्योपैथी के सिद्धान्तों का उल्लेख
हिप्पोक्रेटस एवं उनके शिष्य पैरासेल्सस
ने अपने ग्रन्थों में
किया था लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में सर्वप्रथम
प्रस्तुत करने का श्रेय डा. हैनिमैन को जाता है।
उस दौर में एलोपैथिक चिकित्सकों ने होम्योपैथिक
सिद्धान्त को अपनाने का बड़ा जोखिम उठाया, क्योंकि
एलोपैथिक चिकित्सकों का एक बड़ा व शक्तिशाली वर्ग इस
क्रान्तिकारी सिद्धान्त का घोर विरोधी था लेकिन
होमियोपैथी की रोगहारक शक्ति ने उनका मुँह बंद कर
दिया। एक प्रसिद्ध
अमेरिकी एलोपैथ डा. सी हेरिंग ने होम्योपैथी को बेकार
सिद्ध करने के लिए एक शोध प्रबन्ध लिखने की जिम्मेदारी
ली। वे गम्भीरता से होम्योपैथी का अध्ययन करने लगे। एक
दूषित शव के परीक्षण के दौरान उनकी एक ऊंगली सड़ चुकी
थी। होम्योपैथिक उपचार से उनकी अंगुली कटने से बच गई।
इस घटना के बाद उन्होंने होम्योपैथी के खिलाफ अपना शोध
प्रबन्ध फेंक दिया। बाद में वे होम्योपैथी के एक बड़े
स्तम्भ सिद्ध हुए। उन्होंने ‘रोग मुक्ति का नियम’ भी
प्रतिपादित किया। डा. हेरिंग ने अपनी जान जोखिम में
डालकर सांप के घातक विष से
होम्योपैथी की एक
महत्वपूर्ण दवा ‘लैकेसिस’ तैयार की जो कई गम्भीर रोगों
की चिकित्सा में महत्वपूर्ण है।
होम्योपैथी ने गम्भीर रोगों के सफल उपचार के अनेक दावे
किये लेकिन अन्तरराष्ट्रीय चिकित्सा मंच ने इन दावों
के प्रमाण प्रस्तुत करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं
दिखाई। मसलन यह वैज्ञानिक चिकित्सा विधि महज ‘संयोग’
मानी जाने लगी और समाज में ऐलोपैथी जैसी प्रतिष्ठा
हासिल नहीं कर पाई। अन्तरराष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिकाओं
में भी होम्योपैथी को महज
प्लेसिबो (ऐसी गोलियाँ
जिससे मरीज को लगे कि यह दवा लेकिन उसमें दवा न हो) से
ज्यादा और कुछ नहीं माना गया।
होम्योपैथी को एलोपैथी
गुटों द्वारा कमतर आंकने के पीछे
जाहिर है कि उनकी व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता ज्यादा है।
होम्योपैथी को जन सुलभ बनाने की जिम्मेदारी तो समाज और
सरकार की है। लेकिन भारत के योजनाकार भी महँगी होती
एलोपैथिक चिकित्सा के मोहजाल से बच नहीं पाए हैं।
सालाना २२,३०० करोड़ रुपये के बजट में से मात्र ९६४
करोड़ (४.४ प्रतिशत रुपये अन्य चिकित्सा विधियों पर
खर्च होते हैं। इसमें होम्योपैथी चिकित्सा के हिस्से
केवल १०० करोड़ रुपये आते हैं। इस हिसाब से सवा सौ
करोड़ की आबादी वाले देश में होम्योपैथी का विकास हो
पाना कठिन है। अपने ही दम-खम पर भारत में तेजी से
लोकप्रिय होती जा रही होम्योपैथी के मौजूदा विकास का
ज्यादा श्रेय तो होम्योपैथी के चिकित्सकों और
प्रशंसकों को ही जाता है। लेकिन यह भी सच है कि सरकारी
पहल के बिना होम्योपैथी को जन-जन तक पहुँचाने का
लक्ष्य पूरा नहीं
हो सकता।
एलोपैथिक चिकित्सा द्वारा बिगड़े एवं लाइलाज घोषित कर
दिये गए रोगों में होम्योपैथी उम्मीद की अन्तिम किरण
की तरह होती है। कुछ मामले में तो होम्योपैथी वरदान
सिद्ध हुई है तथा अनेक मामले में तो होम्योपैथी ने
रोगी में जीवन की उम्मीद का भरोसा जगाया है। चर्म रोग,
जोड़ों के दर्द, कैंसर, टयूमर, पेट रोग, शिशुओं और
माताओं के विभिन्न रोगों में होम्योपैथी की प्रभाविता
बेजोड़ है। होम्योपैथी की इतनी अच्छी योग्यता के
बावजूद स्वास्थ्य विभाग पर हावी आधुनिक चिकित्सकों एवं
एलोपैथिक दवा लाबी होम्योपैथी को आगे नहीं आने देना
चाहती। कारण स्पष्ट है कि एलोपेथिक दुष्प्रभावों से
ऊबकर काफी लोग होम्योपैथी या दूसरी देशी चिकित्सा
पद्धतियों को अपनाने लगेंगे। फिर तो सरकार और मंत्रालय
में इनका रुतबा बढ़ेगा और एलोपैथी की प्रतिष्ठा धूमिल
हो जाएगी।
सर्वविदित है कि दुनिया में जनस्वास्थ्य की चुनौतियाँ
बढ़ रही हैं और आधुनिक चिकित्सा पद्धति इन चुनौतियों
से निबटने में एक तरह से किल सिद्ध हुई है। प्लेग हो
या सार्स, मलेरिया हो या टीबी, दस्त हो या लू,
एलोपैथिक दवाओं ने उपचार की बात तो दूर, रोगों की
जटिलता को और बढ़ा दिया है। मलेरिया और घातक हो गया
है। टीबी की दवाएँ प्रभावहीन हो गई हैं। शरीर में और
ज्यादा एन्टीबायोटिक्स को बर्दाश्त करने की क्षमता
नहीं रही। ऐसे में होम्योपैथी एक बेहतर विकल्प हो सकती
है। अनेक घातक महामारियों से बचाव के लिये होम्योपैथिक
दवाओं की एक पूरी रेंज उपलब्ध है। आवश्यकता है इस
पद्धति को मुक्कमल तौर पर आजमाने की।
भारत ही नहीं, होम्योपैथी के खिलाफ इन दिनों दुनिया भर
में मुहिम चलाई जा रही है। अभी पिछले दिनों ब्रिटेन
में एक अनुसंधान का हवाला देते हुए एलोपैथी गुटों ने
होमियोपैथी के सिद्धांतों को अवैज्ञानिक घोषित कर
दिया। इस दुष्प्रचार के बावजूद आम आदमी आज भी
होमियोपैथी के प्रति विश्वास रखता है।
सवाल है कि जिस देश में ७० फीसदी से ज्यादा लोग लगभग
२० रुपये रोज पर गुजारा करते हों क्या वहाँ होम्योपैथी जैसी
सस्ती चिकित्सा पद्धति एक बढ़िया विकल्प हो सकती है?
हमारे योजनाकारों को इस मुद्दे पर गम्भीरता से विचार
करना होगा।
१७ जनवरी
२०११ |