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                  क्या हिंदी में अँग्रेजी शब्दों की 
					भरमार एक स्वाभाविक प्रक्रिया है? इसका उत्तर दिया अनिल 
					त्रिवेदी ने २ अक्तूबर को एक सभा में जहाँ हिंगलिश अखबारों की 
					होली जलाई गई- 
 
                  भाषा के 
					'क्रियोलीकरण' के विरोध में  
 आज हिन्दी दिवस के 
							अवसर पर हम इंदौर नगर के बुद्धिजीवी गाँधी-प्रतिमा के 
							समक्ष देश भर के लगभग सभी हिन्दी अखबारों की एक-एक 
							प्रति जुटाकर उनकी होली जलाने के लिए एकत्र हुए हैं। 
							आज-हम-सब जानते हैं कि जब निवेदन के रूप में किये जाते 
							रहे संवादात्मक-प्रतिरोध असफल हो जाते हैं, तब ही 
							विकल्प के रूप में एकमात्र यही रास्ता बचता है, जो 
							हमें गाँधीजी से विरासत में मिला है। 
 
  आज 
							हिन्दी के अखबारों की प्रतियों को जलाकर प्रतीकात्मक 
							रूप से हम भारतीय 
							समाचार-पत्रों, उनके संचालकों, पत्रकारों, सम्पादकों 
							के साथ ही साथ पूरे देश के हिन्दी-भाषा-भाषियों को इस 
							बात की स्मृति दिलाना चाहते हैं, कि आज हम हिन्दी का 
							जो विकास देख रहे हैं उस हिन्दी को बनाने और बढ़ाने 
							में सबसे बड़ी और ऐतिहासिक भूमिका आजादी की लड़ाई में 
							हथियार की तरह काम करने वाले हिन्दी के समाचार-पत्रों 
							ने ही निभायी थी- लेकिन, दुर्भाग्यवश वही समाचार-पत्र 
							जगत आज विकास के इतने ऊँचे सोपान पर चढ़ चुकी हिन्दी 
							को अँग्रेजी के नव साम्राज्यवाद को नष्ट करने पर उतारू 
							हो चुका है। नतीजतन, स्थिति यह है कि पिछली एक शताब्दी 
							में ब्रिटिश साम्राज्य ने हिन्दी को जितने क्षति नहीं 
							पहुँचायी थी, आज उससे दस गुनी क्षति मात्र दस साल में 
							हिन्दी को हिन्दी के समाचार पत्रों ने पहुँचा दी है। 
 यहाँ हम यह ऐतिहासिक तथा भाषा-वैज्ञानिक तथ्य याद 
							दिलाना चाहते हैं कि दुनिया भर में भाषाओं के विकास का 
							मुख्य आधार भाषा के बोले गये नहीं, बल्कि लिखित-रूप के 
							कारण होता है। लिखित रूप ही किसी भाषा को अक्षुण्ण 
							रखता है। लेकिन, आज हिन्दी को सबसे बड़ा धोखा उसके 
							लिखित-छपित शब्द की जगह से ही मिल रहा है। चीन की 
							मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक 
							बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को बहत सूक्ष्म और 
							धूर्तयुक्ति से नष्ट किया जा रहा है, जिसे कहा जाता 
							है, भाषा का 'क्रियोलीकरण'। आज का हमारा यह 
							प्रतीकात्मक-प्रतिरोध हिन्दी के अखबारों द्वारा चलाये 
							जा रहे उसी खतरनाक 'क्रिओलीकरण' की प्रक्रिया के 
							विरूद्ध है।
 
 '
  क्रियोलीकरण' 
							एक ऐसी युक्ति है, जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से 
							भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को 
							पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया 
							नहीं, बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। जिसके पीछे 
							अँग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। 
							'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित 
							षड्यंत्र है। जिसके पीछे अँग्रेजी भाषा का 
							साम्राज्यवादी एजेण्डा है। 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया 
							का पहला चरण होता है, जिसे वे कहते हैं स्मूथ 
							डिसलोकेशन आफ वक्युब्लरि अर्थात् मूल भाषा के शब्दों 
							का धीरे-धीरे अँग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। इस 
							अवस्था को अखबारों अब अपने सर्वग्रासी सीमा तक पहुँचा 
							दी है। 
 उदाहरण के लिए यह क्रिओलीकरण 
							ठीक उस समय किया जा रहा है, जब हिन्दी को संयुक्त 
							राष्ट्र संघ की सीमित भाषाओं की सूची में शामिल करने 
							के प्रयास बहुत तेज हो गये हैं। हिन्दी के दैनंदिन 
							शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अँग्रेजी 
							के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह 
							स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की 
							जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ 
							परीक्षा की जगह एक्ज़ाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ 
							प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह 
							इंस्टीट्यूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार 
							की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही 
							साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अँग्रेजी 
							के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच, मॉरली 
							लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड 
							प्रोग्राम/ वे कहते हैं, धीरे-धीरे स्थिति यह कर दो कि 
							अँग्रेजी के शब्द ७० प्रतिशत तथा मूल भाषा के शब्द 
							मात्र ३० प्रतिशत रह जायें। और इसके चलते हिन्दी का जो 
							रूप बन रहा है, उसका एक स्थानीय अखबार में छपी खबर से 
							दे रहे हैं।
  
 इंग्लिश के लर्निंग बाय फन प्रोग्राम को स्टेट 
							गवर्नमेण्ट स्कूल लेवल पर इण्ट्रोड्यूस करे, इसके लिए 
							चीफ मिनिस्टर ने डिस्ट्रिक्ट एज्युकेशन आफिसर्स की एक 
							अर्जेंट मीटिंग ली, जिसकी डिटेक्ट रिपोर्ट प्रिंसिपल 
							सेके्रटरी जारी करेंगे। इसके बाद वे दूसरा और अंतिम 
							चरण बताते हैं : फाइनल असालट ऑन लैंग्विज। अर्थात् 
							भाषा के पूरी तरह खात्मे के लिए 'अंतिम हल्ला'। और, वह 
							अंतिम प्रहार यह कि उसे भाषा की मूल लिपि को बदल कर 
							रोमन कर दो। भाषा समाप्त। और, कहने की जरूरत नहीं कि 
							बहुत जल्दी अखबारों को साम्राज्यवादी सलाहकार की फौज 
							समझाने वाली है। कि हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन 
							में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी 
							अफ्रीकी भाषाओं को अँग्रेजी क सम्राज्यवादी आयोजना के 
							तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं 
							की है। इसलिए, 'हिन्दी हिंग्लिश', 'बांग्ला', 
							'बांग्लिश', 'तमिल', 'तमिलिश' की जा रही है। हम यह 
							प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के 
							'क्रिओलीकरण' के विरूद्ध है, जिसमें, गुजराती-मराठी, 
							कन्नड़, उड़िया, असममिया, सभी भाषाएँ शामिल हैं।
 
 
  बहुत 
							मुमकिन है कि देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के भीतर 
							अपनी भाषा का बचाने की एक सामूहिक चेतना के जागृत होने 
							के खतरे का अनुमान लगा कर अखबार-जगत हिन्दी के 
							'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया एकदम तेज कर दें। क्योंकि, 
							जब ५ जुलाई १९२८ को यंग इंडिया में जब गाँधी ने ये 
							लिखा था कि अँग्रेजी उपनिवेश की भाषा है और इसके हम 
							हराकर रहेंगे - तब गोरी हुकुमत अँग्रेजी के 
							प्रचार-प्रसार पर तबके छह हजार पाउण्ड खर्च करती थी- 
							वह खर्च की राशि १९३८ तक ३,८६,००० पाउण्ड कर दी गयी 
							थी। बहरहाल, अँग्रेजी का जो 'नया साम्राज्यवाद अमेरिका 
							और इंग्लैण्ड की रणनीति के चलते बढ़ रहा है - उसमें 
							हमारे यहाँ हाथ बँटाने के लिए देश का प्रिण्ट और 
							इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया एकजुट हो गये हैं- हम उनकी 
							इस खतरनाक मुहिम के विरोध का संकल्प लेते हैं। |