सामयिकी भारत से

क्या एड्स धनी देशों द्वारा गरीब देशों के शोषण का हथकंडा मात्र है? -. मनोहर भण्डारी का विचारोत्तेजक आलेख- 


एड्स पर संदेह


दुनिया के अनेक वैज्ञानिक चीख- चीख कर कह रहे हैं कि कुछ वैज्ञानिकों, दवा कम्पनियों, जाँच के उपकरणों और रसायन बनाने वाली कम्पनियों तथा मीडिया के सहयोग से एड्स नामक काल्पनिक बीमारी, दुनिया पर थोपी गई है। उन्हें लाभ पहुँचाने के लिए एक किस्म का सक्षम नेटवर्क पूरी शक्ति से काम कर रहा है।

एड्स दुनिया की पहली ऐसी बीमारी है, जिसके वैज्ञानिक पहलू जगजाहिर करने में इसके आविष्कारकर्ता असमर्थ सिद्ध हुए हैं। इसके वैज्ञानिक पक्ष को जानने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित, नामित और अन्य अंतराष्ट्ररीय स्तर के वैज्ञानिकों के प्रयासों को येनकेन प्रकारेण नजरअंदाज किया गया, टाला गया, दबाया गया तथा बौखलाहट में सजा के योग्य करार दिया गया। इसकी वैज्ञानिकता को चुनौती देने वाले वैज्ञानिकों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि दो हजार से ज्यादा पहुँच चुकी है। इंटरनेट इस पर वाद-विवाद की अनेक वेबसाइट मौजूद हैं। अब तक की सबसे घातक, अपराजेय और रोगी की मौत की शुरुआत पहले दिन से ही प्रारंभ कर देने वाली इस विश्वव्यापी बीमारी के वैज्ञानिक पक्ष की गोपनीयता से, महात्मा गांधी की इस टिप्पणी को बल मिला है कि ‘एलोपैथी एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि शक्तितंत्र है।’ दुनिया के अनेक वैज्ञानिक चीख- चीख कर कह रहे हैं कि कुछ वैज्ञानिकों, दवा कम्पनियों, जाँच के उपकरणों और रसायन बनाने वाली कम्पनियों तथा मीडिया के सहयोग से एड्स नामक काल्पनिक बीमारी, दुनिया पर थोपी गई है। उन्हें लाभ पहुँचाने के लिए एक किस्म का सक्षम नेटवर्क पूरी शक्ति से काम कर रहा है।

इस कथित बीमारी ने अप्रफीका की आधी से ज्यादा आबादी तथा दुनिया के करोड़ों लोगों को इसका शिकार (एचआईवी पाजिटिव) घोषित कर उन्हें, बिना किसी अपराध के मृत्युदण्ड की सजा सुना दी है, साथ ही साथ उन्हें उपेक्षित, तिरस्कृत, बहिष्कृत, घृणास्पद और अपमानित जिंदगी जीने के लिए अकारण विवश भी किया है। एच.आई.वी. पाजिटिव के बहिष्कार की खबरें तो दुनियाभर में प्रकाशित हुई है, मगर जिंदा दफन करने और जला देने की घटनाए भी पढ़ने में आई हैं।

विडम्बना देखिए कि अमेरिकन एसोसिएशन फार द एडवांसमेंट आफ सांइसेंस (ए.ए.ए.एस.) की पैसिफिक शाखा ने सेनफ्रांसिस्को में २१ जून, १९९४ को ‘द रोल आफ एच.आई.वी. इन एड्स: व्हाय देयर इज स्टिल कान्ट्रावर्सी’ विषय पर विशुद्ध वैज्ञानिक परिसंवाद का कार्यक्रम परस्पर सहमति से महीनों पहले तय किया था, मगर एड्स प्रमोशन प्रोग्राम से जुड़े लोगों ने उसे निरस्त करने और असफल बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। कैलिफोर्निया के अखबारों तथा बिटेन की प्रसिद्ध मैग्जीन ‘नेचर’ ने कार्यक्रम अघोषित तिथि तक स्थगित तथा निरस्त होने तक की खबरों को छापना शुरू कर दिया। शाखा के अध्यक्ष और कार्यक्रम प्रमुख प्रोफेसर चार्ल्स गेशेक्टर, जो कि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर थे, उनको बिना बताए हटा दिया गया और एक अन्य व्यक्ति को कार्यक्रम प्रमुख के रूप में पदस्थ कर दिया गया। वक्ता बदल दिए गए। वक्ताओं का क्रम बदल दिया गया। कार्यक्रम में जब विपक्षियों का पलड़ा भारी हो गया तो कार्यक्रम को समय से पूर्व समाप्त किए जाने की घोषणा कर दी गई।

एड्स के आविष्कार का वर्णन ‘मेडिकल इस्टैब्लिसशमेंट वर्सेस द ट्रूथ’ में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित केरी मुलीज ने इस प्रकार किया है, ”जब मैंने १९८४ में पहली बार सुना कि फ्रांस के प्रास्तर इंस्टीटयूट के ल्यूक मांटेग्नियर और नेशनल इंस्टीटयूट आफ अमेरिका के राबर्टगैलो ने यह खोज की है कि रेट्रोवायरस एच.आई.वी. एड्स का कारण है, तो इसे एक वैज्ञानिक तथ्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया। फिर जब मैंने इस विषय में सेंटर फार डिजीज कंट्रोल (सी.डी.सी.) की रिपोर्ट पढ़ी तो लगा कि यह वैज्ञानिक आर्टिकल नहीं है। उसमें कहा गया कि एक आर्गेनिज्म (जीवाणु) की पहचान की गई है। किन्तु कैसे की गई, इसका उल्लेख नहीं था। डाक्टरों से अनुरोध किया गया था कि यदि किसी मरीज में कुछ खास शारीरिक लक्षण पाए जाएँ और एंटीबाडीज के लिए की गई जाँच पाजिटिव हो तो इसका अर्थ है कि उसे एड्स रोग है। यह एक वास्तविक वैज्ञानिक संदर्भ नहीं था। खोज के बाद, न तो मांटेग्नियर ने, और ना ही गैलो या किसी और ने उन प्रयोगों का वर्णन करते हुए सामग्री प्रकाशित की, जिनसे यह सिद्ध हो कि एच.आई.वी. ही एड्स का कारण है। प्रसारित शोध पत्रों में भी इसका कोई संकेत नहीं था कि यही वायरस बीमारी का कारण है।

सी.डी.सी. ने धीरे-धीरे एड्स की परिभाषा को विस्तृत करते हुए पहले से मौजूद ३० बीमारियों को शामिल करते हुए कहा कि इनमें से किसी एक बीमारी के साथ एच.आई.वी. पाजिटिव की रिपोर्ट आए तो वह व्यक्ति एड्स का रोगी मान लिया जाएगा। इस तरह १९९३ में इन बीमारियों को जोड़ने से अचानक एच.आई.वी. पाजिटिव लोगों की संख्या बढ़ गई और दुनिया को लगा कि यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है। इसे काउंटी हेल्थ आथोरिटीज ने खुशी से स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें रेयान व्हाइट एक्ट के तहत एड्स के हर नए मामले के लिए २५०० डालर प्रति वर्ष अनुदान दिया जा रहा था।” डा. मुलीज आगे कहते हैं, ”हमारे शरीर में असंख्य रेट्रोवायरस रहते हैं। वे हमारे जीनोम में होते हैं। कुछ हमें अपनी माता से और कुछ माता-दोनों से जींस के साथ प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ एच.आई.वी. की तरह लग सकते हैं।” सी.डी.सी. की व्याख्या के अनुसार यदि किसी टयूबरकुलोसिस या यूटेराइन कैंसर के मरीज की जाँच में एच.आई.वी. पाजिटिव आता है तो वह एड्स का रोगी है। यदि निगेटिव आता है तो वह सिर्फ टी.बी. या यूटेराइन कैंसर का रोगी है। विडम्बना यह है कि यदि इन ३० बीमारियों में से किसी भी एक से पीड़ित व्यक्ति कीनिया या कोलम्बिया में रहता है, जहाँ एच.आई.वी. एंटीबाडीज की जाँच प्रक्रिया बहुत महँगी है, तो उसे बिना जाँच के ही पाजिटिव मानकर एड्स का रोगी घोषित कर दिया जाता है। विडम्बना यह भी है कि सर्दी-जुकाम, फ्लू से पीड़ित व्यक्ति या गर्भवती महिला में भी एच.आई.वी. एंटीबाडीज पाए जा सकते हैं, यानी ऐसे लोग भी जाँच में पाजिटिव घोषित किए जा सकते हैं।

शरीर या रक्त में एड्स के वायरस की मौजूदगी पता चलने के बाद रोग के लक्षण प्रकट होने के बीच के समय को विज्ञान की भाषा में प्रसुप्ति काल या लेटेंसी पिरियड कहा जाता है। यह अवधि हर बीमारी के लिए निश्चित और तयशुदा रहती है, मगर सी.डी.सी. ने एड्स के मामले में इस अवधि को अनेक बार बदला है। पैरी का कहना है कि सत्रह साल पहले कहा गया था कि दो से चार साल बाद तुम्हें एड्स हो जायेगा। फिर कहा गया आठ साल भी लग सकते हैं। धीरे-धीरे समय बढ़ता गया। अब सी.डी.सी. के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि रोग के लक्षण प्रकट होने में पन्द्रह साल भी लग सकते है या फिर शरीर में वायरस जीवनभर चुपचाप बिना हानि पहुँचाए निष्क्रिय (डारमेंट) अवस्था में भी पड़ा रह सकता है। वह कहता है कि ऐसी अनिश्चित स्थिति में मेरे जैसे पूर्ण रूप से स्वस्थ हजारों यौन सक्रिय नागरिकों को लेटेंसी परियड के नाम पर मृत्यु से काफी पहले ही मृत्युदण्ड क्यों दिया जा रहा है।

कुछ मार्मिक प्रसंगों तथा दवाइयाँ लेने के लिए दवाबों, जवाबदेह लोगों के गैर जिम्मेदाराना रवैये, अवैज्ञानिक तथा असंतोषप्रद जवाबों, व्यवहार तथा प्रतिक्रिया के कारण एक फिल्मकार राबिन ने बहुचर्चित फिल्म बनाई-’द अदर साइड आफ एड्स।’ इस फिल्म में राबिन ने तीन बातों पर ज्यादा जोर दिया है। एक तो यह कि जब आज तक किसी एड्स रोगी के शरीर या रक्त से वायरस (ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंशी वायरस, एच.आई.वी.) को पृथक ही नहीं किया जा सका है, तो फिर एड्स के लिए इस वायरस को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है? दूसरा, एच.आई.वी./ एड्स के रोग का पता लगाने के लिए, दी जानेवाली तमाम प्रचलित टेस्ट्स (परीक्षण विधियों) की वैधता और वैज्ञानिकता ही संदेह के दायरे में है। एच.आई.वी. एड्स के परीक्षण के लिए कोई भी टेस्ट वैश्विक स्तर पर सर्वमान्य या स्वीकृत नहीं है। लगभग तीस तरह का टेस्ट होने के बावजूद एक भी टेस्ट ऐसा नहीं है, जिससे वास्तविक वायरस को देखा या खोजा जा सके। तीसरी बात भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी दवाइयों में उपचार से ज्यादा मारक शक्ति होती है। नोबेल पुरस्कार के लिए नामित वैज्ञानिक डा. पीटर डयूसबर्ग ने इस फिल्म में एच.आई.वी. से एड्स होने की बात को, तो वैज्ञानिक सबूतों के अभाव में सीधे-सीधे नकारा ही है। साथ ही उन्होंने कहा है कि ‘एच.आई.वी. के लिए इस्तेमाल’ की जा रही दवाइयाँ इतनी घातक हैं कि जैसे खरगोश को मारने के लिए आणविक हथियार (न्यूक्लियर वैपन) इस्तेमाल किया जाए।

डा. एटिनी डी हार्वे जो यूनिवर्सिटी आफ टोरंटो में पैथालाजी के प्रोफेसर हैं, उनके अनुसार मीडिया, विशेष दबाव समूहों तथा कुछ दवा कम्पनियों के निजी हितों की वजह से एड्स संस्थान ‘बीमारी’ पर नियंत्रण पाने की कोशिशों में खुले दिमाग से नाता तोड़ बैठा हैं। दरअसल एक काल्पनिक एचआईवी/एड्स को नियंत्रित करने के लिए १०० प्रतिशत रिसर्च फंड मुहैया कराया जा रहा है और दूसरे क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है।

आस्ट्रेलिया के रायल पर्थ अस्पताल के भौतिक शास्त्री डा. एलीनी ने सभी एचआईवी टेस्टों- एलीसा, वेस्टर्न ब्लाट, और पी.सी.आर.की अप्रामाणिकता सिद्ध की है। उन्होंने दर्शाया है कि किस प्रकार एचआईवी से असम्बद्ध अन्य शारीरिक अवस्थाएँ जैसे टीबी, मलेरिया, कुष्ठ, हैपेटाइटिस बी तथा यहाँ तक की फ्लू का टीका भी एचआइवी का परिणाम दे सकता है।

डा.राबर्टिरूट-बर्नस्टेन- मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में फिजियोलाजी के एसोसिएट प्रोफसर हैं। एड्स पर लिखी उनकी किताब को एड्स की एचआईवी थ्योरी के खिलाफ सबसे सावधान दस्तावेजी आक्रमण माना जाता है। उनके अनुसार एचआईवी से एड्स होने, एड्स एक नई बीमारी होने या इसके संक्रामक होने का कोई सबूत नहीं है।

वर्ष १९९५ में प्रसिद्ध चिकित्सा पत्रिका ‘ब्रिटिश मेडिकल जर्नल’ ने एक शोध लेख छापा कि एजेडटी (एड्स की दवा) एड्स पीड़ितों के जीवन को और कम कर देती है। इसी दौरान यूरोप की एक संस्था कानकोर्ड ने भी नियमित जाँच के आधार पर एक रिपोर्र्ट तैयार की और स्पष्ट किया कि एजेडटी लेनेवाले एचआईवी संक्रमित व्यक्ति की तुलना में वे लोग ज्यादा बेहतर थे, जो एजेडटी नहीं ले रहे थे।

देश में एड्स की रोकथाम के लिए बनाई गई संस्था ‘नाको’ खुद भी एड्स की भांति एक रहस्य बन चुकी है। नाको के प्रोजेक्ट डाइरेक्टर की कुर्सी हथियाने के लिए पीएमओ में जोड़तोड़ करनी पड़ती है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से जुडे प्रेम अग्रवाल कहते हैं कि नाको क्या कर रहा है यह ‘टाप सीक्रेट’ होता है, इसलिए एड्स नियंत्रण कार्यक्रम सफल है या नहीं यह कहना मुश्किल है। नाको की कार्यप्रणाली पर वह कहते हैं, यह संस्था सिर्फ अंधेरे में ढोल पीटने में लगी हुई है।

जैक इंडिया के श्री मुल्लोली वर्षों से एड्स के भ्रम के खिलाफ मोर्चा थामे हुए हैं। उनका कहना है कि एड्स के नाम पर चल रहा यह खेल एक वैज्ञानिक नरसंहार है। एड्स के नाम पर हजारों करोड़ रूपयों का खेल बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खेल रही हैं, जिसमें मोहरें हैं गरीब देशों के गरीब लोग। यह सब भारत में एड्स की दवाओं का बड़ा बाजार तैयार करने के लिए हो रहा है जिसका फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को होगा। इस बात को विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस रिपोर्ट से भी बल मिलता है, जिसमें इशारा किया गया है कि भारत विश्व में सबसे बड़े एड्स केन्द्र के रूप में उभर रहा है।

एड्स नियंत्रण के नाम पर जिस निर्लज्जता से कंडोम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, उससे भी अंतरराष्ट्रीय साजिश की बू आती है। बात केवल कंडोम के प्रयोग को बढ़ावा देने भर की नहीं है। इसके बहाने एक अपसंस्कृति को हम पर थोपने का प्रयास हो रहा है। इसे रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी जागरुकता अभियान चलाने की जरूरत है।

भारतीय पक्ष से साभार

६ सितंबर २०१०