श्रीकृष्ण
जन्माष्टमी के अवसर पर गीता के कर्मयोग का सामयिक
विश्लेषण करता सूर्यकांत बाली का आलेख-
कर्मयोगी श्रीकृष्ण
कृष्ण इसलिए इतने
क्रियाशील, इतने प्रभावशाली और अग्रपूज्य हो सके कि
उनका कोई काम किसी विशेष प्रयोजन से अनुप्राणित नहीं
था। उस वक्त जो हो रहा है उसमें क्या ठीक लग रहा है,
क्या गलत, इसका फैसला कर अपने को वहाँ जताना और फिर
आगे कहीं और बढ़ जाना, इतना मात्र प्रयोजन कृष्ण का
रहा।
तो यह धर्म क्या था, जिसकी स्थापना करना कृष्ण ने अपने
अवतार का प्रयोजन बताया? धर्म को लेकर हमारी चेतना साफ
हो जानी चाहिए। भारतीय परम्परा धर्म का वह अर्थ नहीं
लेती, जो अंग्रेजी के रिलीजन शब्द से निकलता है और जिस
अर्थ-कसौटी पर इस्लाम या ईसाइयत खरे उतरते हैं। भारतीय
विचार इन दोनों को धर्म नहीं, सम्प्रदाय या पन्थ मानता
है। कृष्ण ने अगर किसी धर्म की स्थापना की है तो जाहिर
है कि उसमें न कोई जड़ता है और न संकीर्णता। कृष्ण जैसा
अप्रतिबद्ध, कर्म-परम्परा का प्रतीक व्यक्तित्व जड़ता
और संकीर्णता का हामी हो ही नहीं सकता था। धर्म का
अर्थ है जीवनमूल्य और जीवन मूल्य हैं कि हर युग में,
हर व्यवसाय ही नहीं हर व्यक्ति और समाज में बदलते रहते
हैं। इसलिए भारतीय परम्परा में हरेक का अपना धर्म है-
राजधर्म, नारीधर्म, पतिधर्म, पुत्रधर्म, वाणिज्यधर्म,
जातिधर्म, ब्राह्मणधर्म, गृहस्थधर्म, युगधर्म इत्यादि।
इसलिए भारत में न कभी धर्म को परिभाषाओं में बाँधा
गया, न ही सब पर थोप दिए जाने वाले विधिनिषेध में जकड़ा
गया। धर्म की ग्लानि और अधर्म के अभ्युत्थान के
सन्दर्भ में साधुओं के परित्राण और दृष्कृतों के विनाश
की कैसी भी व्याख्या हम करना चाहें, इसी सन्दर्भ में
करनी पड़ेगी।
इसलिए गीता में, जिसे कृष्ण का जीवनदर्शन माना जाता
है, किसी एक सम्प्रदाय या विचारधारा को धर्म कहकर उसका
प्रतिपादन नहीं किया गया। गीता में अपने समय की तमाम
विचारसरणियों का विवरण है। वहाँ सांख्य है, योग है,
कर्म है, ज्ञान है, भक्ति है, संन्यास है,
अक्षरब्रह्मयोग है, राजविद्या है, विभूतिवर्णन और उसका
प्रतिनिधि विश्वरूप दर्शन है, प्रकृति-पुरुष विवेचन
है, दैवी-आसुरी सम्पदा है, यज्ञ-प्रकार हैं और मोक्ष
का वर्णन है। अगर हम यह जानना चाहेंगे कि क्या कृष्ण
ने इनमें से किसी धर्म का विशेष प्रतिपादन किया है तो
गीता हमें कोई दो टूक उत्तर नहीं देती। दो टूक उत्तर
यही देती है कि इसमें से किसी एक के साथ कृष्ण खुद को
नहीं बाँधते। बाँधते होते तो इतने सारे जीवन मूल्यों
का सविस्तार प्रतिपादन नहीं कर पाते। और तो और, कृष्ण
ने एकाधिक बार कहा है कि जो वे अब कह रहे हैं, वह
सनातन धर्म है- एष धर्म: सनातन:। यहाँ धर्म का अर्थ है
जीवन मूल्य या जीवन जीने की शैली, जो राजा और मंत्री
के अलग-अलग हो सकते हैं, पति और पत्नी के अलग-अलग हो
सकते हैं, पिता और पुत्र के, भाई और बहन के, ब्राह्मण
और वैश्य के, किसान और कुम्हार के, कसाई और समाज
सुधारक के अलग-अलग हो सकते हैं।
कृष्ण के कामों और उनकी उक्तियों के सन्दर्भ में उनके
जीवन का लक्ष्य आँका जाए तो हमारा सफलता से परिचय नहीं
होगा। उनके काम एक ही दिशा में एक-दूसरे के साथ जुड़ते
हुए, बढ़ते नजर नहीं आते। वे राक्षसों का वध करते हैं,
मथुरा छोड़ द्वारका जा सकते हैं, सारथी बनते हैं और
युद्ध में ही नहीं, हमेशा पाण्डवों का साथ देते हैं,
इन सबमें कोई ऐसा सम्यक सूत्र नहीं है, जो कृष्ण के
किसी एक महान लक्ष्य की ओर हमें ले जाता हो। कृष्ण
पाण्डवों के साथ केवल इसलिए नहीं थे कि पाँचों पाण्डव
कोई बड़े नैतिकतावादी या धर्म पर, मूल्यों के सन्दर्भ
वाले धर्म पर मर मिटने वाले थे, बल्कि इसलिए थे कि
धतराष्ट्र के पुत्रों की बजाय कुन्ती पुत्र उनके
ज्यादा निकट थे।
कृष्ण के जीवन की दो बातें हम अक्सर भुला देते हैं, जो
उन्हें वास्तव में अवतारी सिद्ध करती हैं। एक विशेषता
है, उनके जीवन में कर्म की निरन्तरता। कृष्ण कभी
निष्क्रिय नहीं रहे। वे हमेशा कुछ न कुछ करते रहे।
उनकी निरन्तर कर्मशीलता के नमूने उनके जन्म और शैशव से
ही मिलने शुरू हो जाते हैं। पैदा होते ही जब कृष्ण खुद
कुछ करने में असमर्थ थे तो उन्होंने अपनी खातिर पिता
वसुदेव को मथुरा से गोकुल तक की यात्र करवा डाली। दूध
पीना शुरू हुए तो पूतना का वध किया। घिसटना शुरू हुए
तो छकड़ा पलट दिया और ऊखल को फँसाकर वृक्ष उखाड़ डाले।
खेलना शुरू हुए तो बक, अघ और कालिय का दमन कर डाला।
किशोर हुए तो गोपियों से दोस्ती कर ली, कंस को मार
डाला। युवा होने पर देश में जहाँ भी महत्त्वपूर्ण घटा,
वहाँ कृष्ण मौजूद नजर आए, कहीं भी चुप नहीं बैठे, वाणी
और कर्म से सक्रिय और दो टूक भूमिका निभाई और जैसा ठीक
समझा, घटनाचक्र को अपने हिसाब से मोड़ने की पुरजोर
कोशिश की। कभी असफल हुए तो भी अगली सक्रियता से पीछे
नहीं हटे। महाभारत संग्राम हुआ तो उस योद्धा के रथ की
बागडोर सँभाली, जो उस वक्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर था।
विचारों का प्रतिपादन ठीक युद्ध क्षेत्र में किया।
यानी कृष्ण हमेशा सक्रिय रहे, प्रभावशाली रहे, छाए
रहे।
यहाँ आकर उनके जीवन का किसी विशिष्ट लक्ष्य से विहीन
होना, किसी एक लक्ष्य से खुद को न बाँधना अभिशाप या
उपहास्य नहीं, वरदान बन जाता है। शायद कृष्ण इसलिए
इतने क्रियाशील, इतने प्रभावशाली और अग्रपूज्य हो सके
कि उनका कोई काम किसी विशेष प्रयोजन से अनुप्राणित
नहीं था। यह कृष्ण के विवेक का क्रियान्वयन था। यानी
वे विवेक को समर्पित होकर, लगी-बंधी लकीर वाली नैतिकता
या दूसरे बंधनों से मुक्त होकर, लगातार काम करते रहे,
कर्मपरायण रहे। उनका कोई कर्म उनके अपने स्वार्थ
परिपूर्ण प्रयोजन से अनुप्राणित या उसका पोषक नहीं
रहा। यही कृष्ण की प्रतिभा थी, शक्ति थी और प्रभाव था,
जो उस युग में किसी के पास नहीं था।
कृष्ण ने इसी जीवन दर्शन को गीता में भी कहा है। जीवन
में वे कर्म करते रहे, गीता में वे कर्म का उपदेश दे
रहे हैं। जीवन में उनका कोई भी कर्म विवेक का ही
क्रियान्वयन करता है, अपने किसी स्वार्थ या प्रयोजन की
पूर्ति नहीं। गीता में भी वे मनुष्य को जिस कर्म के
लिए कहते हैं, उसमें फल के अधिकार को उससे छीन लेते
हैं। गीता में उस वक्त की सभी विचारधाराओं का वैसा ही
प्रतिपादन है, जिनका अनुपालन कृष्ण ने अपने जीवन में
किया। कृष्ण केवल कर्म को मनुष्य के अधिकार क्षेत्र
में रखते हैं और जीवन के घटनाक्रम में वे हमेशा
सोत्साह कर्मशील नजर आते हैं। गीता में वे कहते हैं कि
कर्म हमारे अधिकार क्षेत्र में है, उसका परिणाम हमारे
अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इसीलिए उन्होंने अपने पूरे
कर्मपरायण और तेजस्वी जीवन को प्रयोजन-विशेष से नहीं
बाँधा।
कृष्ण के इस दर्शन को अक्सर गलत शब्दावली में रख दिया
जाता है। कह दिया जाता है कि कर्म करो, फल की इच्छा न
करो। कोई अव्यावहारिक ही ऐसा कहेगा, कृष्ण जैसा खांटी
व्यावहारिक व्यक्ति नहीं। कृष्ण दूसरे शब्दों का
प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं- मनुष्य का अधिकार कर्म
में है फल में नहीं। कर्म का फल मिलेगा या नहीं, जाने
कैसा मिलेगा, इस पर हमारा बस कहाँ है? इसीलिए कर्म का
फल मनुष्य के अधिकार में नहीं है। कृष्ण की ठीक समझ
देश को विश्व की महाशक्ति और जगद्गुरु बनाने की
अणुशक्ति संजोए है।
समस्या यह है कि जब फल हमारे अधिकार में नहीं है,
चूंकि यह कटु यथार्थ है, इसलिए कैसे व्यक्ति कर्म के
लिए कर्म करने को उद्यत हो। इसके लिए कृष्ण ने रास्ता
बताया है भक्ति का। भक्ति का अर्थ मन्दिर में घंटियाँ
बजाना नहीं है, समर्पण है। अगर आप समर्पित हैं तो फल
पर अधिकार न जताते हुए भी साधिकार कर्म करते चले
जाएँगे। पर समर्पण किसको? समपर्ण खुद को और किसको? पर
यह कैसे सम्भव है? इसी के जवाब में कृष्ण कहते हैं कि
मुझे यानी कृष्ण को यानी ईश्वर को समर्पित होकर कर्म
करो। इससे पहले ग्यारहवें अधयाय में खुद को वे विश्व
के साथ एकाकार कर चुके है।
यानी खुद को या कृष्ण को समर्पित होने का अर्थ है
विश्व को (समाज को?) समर्पित होना। यानी खुद को
समर्पित होना है तो पहले खुद को विश्वाकार बनाना,
मानना पड़ेगा। एक बार बन, मान गए तो एक ओर अहं
ब्रह्मस्मि का मर्म समझ में आ जाता है तो दूसरी और
कृष्ण के तेजस्वी, आपातत: निर्लक्ष्य पर सतत कर्मपरायण
जीवन का और फल पर अधिकार जताए बिना कर्मशील गीता-दर्शन
का मर्म भी समझ में आ जाता है। |