मीडिया
पर विदेशी शिकंजे की जकड़ में टूटती भारत की
सांस्कृतिक, भाषिक और सामाजिक संरचना पर
प्रभु
जोशी की पैनी दृष्टि
एफ.एम. पर
भूमंडलीकरण का भक्तिगीत
ये
आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध‘ के आरम्भिक वर्ष थे और
श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त‘ के बाद
अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से
सत्ता में लौटीं थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के
‘धोखादेह‘ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ
मुँह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य‘ का नया ‘मानचित्र‘
गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल
रहीं थीं-‘टेक्नोलॉजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल
इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनोलॉजी को गाँवों की तरफ
पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने
‘डिस्ट्रिक्ट ब्रॉडकास्ट‘ की बात भी करना शुरू कर दी
थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की
शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की
सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।
कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस
बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे
भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही
है। चूंकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों
में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की
कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक‘ क्षेत्र तथा
‘इंजीनियरिंग‘ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर
अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के
नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में
एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी
और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी‘ तकनोलॉजी से काम चला
रहे हैं।’
बहरहाल, पता नहीं तब, ‘सत्ता के गलियारों’ में क्या
कुछ घटा और वह योजना फाइलों के अम्बार में अचानक कहीं
‘दफ्न‘ हो गई। निश्चय ही इसकी वजह जानने की कोशिश, उस
समय की ‘नीतिगत-उलझनों‘ को रौशनी में ला सकती है।
क्योंकि, ‘सूचना‘ स्वयं धीरे-धीरे एक ‘सत्ता‘ बन जाती
है - और वह ‘राजनीतिक‘सत्ता‘ को ही सबसे पहले आघात
पहुँचाती है।
दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना‘ और ‘संचार‘ के
क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले,
‘सूचना-सम्राटों‘ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि
वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के
प्रिंट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने
की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी‘
के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों
के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो
‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है।
अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय
भाषाओं का ‘कम विकसित‘ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात
थी। चूँकि, वह (‘हाफ लिविंग एण्ड हाफ फॉरगॉटन’)
अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी।
नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स
विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे
अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने
के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही
शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके
एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक
अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो
के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार
के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग
‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों‘ के निर्माण
जैसा काम करना शुरू कर दिया।
इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘
में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की
शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का
दीवाना बनाना‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण‘, उस आबादी के लिए
एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन
जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ’भाषा रूप’
को ’यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये।
इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन‘ की सैद्धान्तिकी कहा जाता
है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ’समय और समाज’ के
अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो
देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
‘घटनाओं-परिघटनाओं‘ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम
अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर‘ से नाथ देने के कारण
यह ‘अविवेकवाद‘ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम
करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की
यह अचूक युक्ति मानी जाती है।
बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण
अफ्रीकी समाज में अपने ’प्रिमिटव कल्चर’ और उसके
’पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ’नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो
रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ’दे आर
वॉलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर
लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता‘ उठ चुकी
है। यानी वे स्वेच्छा से अपनी भाषा छोड़ देना चाहते
हैं।
बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम
‘धूर्त-व्याख्याएँ‘ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को
बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के
कार्यक्रम संचालकों से कहा जाता था कि इसे भूल जाइये
कि ‘जनता माध्यम के साथ‘ क्या करती है’, बस यह याद
रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर
सकते हैं।‘ नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के
जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय
‘अर्थहीन-प्रसन्नता‘ बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े
पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का
इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक
बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे
अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी
विजय माना।
निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम‘
तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह
‘भाषा रूप’ जिसे लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए
तैयार किया गया था और उसे ’बोलचाल का नैसर्गिक रूप’
कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित
कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों
ने ‘मास-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप
के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना
दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना
भाग्यलेख बदल लिया है।’
भूमंडलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की
प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और
गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह
अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर
अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से देते चले आ
रहे हैं।
बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का
पारस्परिक कामकाज निबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी
हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल
‘मनोरंजन‘ और ‘कामकाजी-सम्पर्क‘ भर का है। कहने की
जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह
दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर में, आवारा-पूंजी के
सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी
‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो
‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों‘ को उसकी पूर्णता तक पहुंचाने
के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का
सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘
में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं
- यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना
अयोग्यता की निशानी है।
अब यह बहुत साफ हो चुका है कि इनका श्रीमती गांधी की
उस ‘डिस्ट्रिक्ट-ब्राडकास्ट’ की अवधारणा से कोई
लेना-देना नहीं है, जो मूलतः ‘ग्रामीण-भारत’ के लिए थी
और जिसकी प्रतिबद्धता ‘विल्बर श्राम’ के
‘विकासमूलक-प्रसारण‘ की थी। यह सिर्फ ‘महानगरीय
सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली‘, ‘रहन-सहन‘,
‘बोलचाल‘ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का
काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से
जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड‘ में, इस देश से
तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि
‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ’ का ‘हल्लाबोल‘ इस दोगले
मीडिया ने शुरू कर दिया है।
आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से
‘आर्थिक‘ क्षेत्र में भूमंडलीकरण की शुरूआत की गयी,
ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों‘ में,
‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की
रक्षा के प्रश्न‘ बना दिये गये। मराठी या कन्नड़ में
उठे विवादों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे
परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक
‘साम्प्रदायिक‘ भाषा करार दिया जा रहा है।
अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित‘ किया जा रहा है।
बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त‘ करने का अभियान आरंभ
है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं।
जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से
कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा‘, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी‘,
‘छत्तीसगढ़ी‘, ‘हरियाणवी‘, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें।
संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी,
किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और
निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी
स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग
बनाने का काम करने वाला है।
इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में
‘उधार की चंचला लक्ष्मी‘ से खुल रहे, इन तमाम निजी
एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री‘ का आकलन किया जाये तो
पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती
हुई, ‘मसखरी के कारोबार‘ में जुटी टुकड़ियां हैं, जिनका
मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर‘ के लिए जगह बनाना है, जो
पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे
यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार‘ नहीं, ‘वाचालता’
आधार है। उन्हें ‘बोलना‘ और ‘बिना रूके बोलते रहना‘,
बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार‘ एक गरिष्ठ और
अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे‘ चाहते हैं। रोट्टी
कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बॉस को
खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता‘, ‘समाज‘ या
‘समूह‘ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता‘ को हासिल करने
के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये।
इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा
करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है?
इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी
‘प्रसारण-संस्कृति‘ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी‘ क्या
है? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह‘ हैं? इन सारे प्रश्नों
के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो
कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है‘, जिन्होंने अफ्रीकी
महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने
में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का
बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक
‘ब्रॉडकास्टिंग इन थर्डवर्ल्ड में बहुत सूक्ष्मता के
साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में
‘सूचना-साम्राज्यवादियों‘ ने घुस कर उनकी धूर्त
सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया
के गरीब मुल्कों की ‘भाषा‘ और ‘संस्कृति‘ को तहस-नहस
किया।
इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के
सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम.
रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आइडियल‘
बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका
कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया,
गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी
गोरखा जन्म से चैकीदार ‘होने‘ और ‘बने रहने‘ के लिए
होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास
बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी‘ में गुल खिला दिये। यह
भाषा की वही भर्त्सना योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि‘ है, जो
बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।‘
अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग
से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार‘ बन
गया।
वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस
‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती‘, ‘मजा‘,
या ‘फन‘ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक
कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी
हथियारों द्वारा सफल दमन‘ कार्यक्रम चल रहा है।
फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में,
तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने
प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद‘ बनाते हैं,
जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख‘ हो और
उसका कोई अन्य ‘मूल्य‘ न हो। ये ‘मुक्त भारत‘ के नये
शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति‘ के
शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और
आकाशवाणियाँ, जब तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन
गाते हुए, उनकी याद दिलाती रहती है। ठीक उस वक्त भी
इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता
रहता है जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।
समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का
रेडियो जॉकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता
है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गारमेण्ट्स का कौन-सा
ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्रॉण्ड का नाम) और
हाँ, तो आप अपने अण्डर गारमेण्ट्स के लिए कौन-सा
ब्राण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त
करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा
गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला‘ है।
ओह! यू आर सो शाय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आफ एन
ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई
बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह
शायद आपके फ़्रेंड को पता होगा.... शॉपिंग उन्हीं के
साथ करती हैं- कौन से मॉल में ?‘
प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग
रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये,
आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं
डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नॉट
कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स
का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नॉट यट.... (उधर
से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी.......
चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन
मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे
हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़़ा
करो इंतजार.............। )
जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये
है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता‘ है। रेडियो जॉकी की सबसे
बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ
‘कामुकता‘ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ?
ये नया ‘यूथ-कल्चर‘ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को
‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम.
प्रसारण में ‘बिन्दास है‘, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘
दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड‘ नहीं,
‘सोल्ड‘ है। उसकी ‘जबान‘, उसकी ‘भाषा‘, उसका ‘समय‘,
उसकी ‘वफादारी‘, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा‘ भी। वह
सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन‘ नहीं ‘सुपारी‘
लिए हुए है। वह पैकेज पर है।
अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई
के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के
निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण
क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता‘ का
लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक
खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने
‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं
है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक‘ की
चिंता है, ना ‘शास्त्र‘ की। ‘लोक-नियंत्रण‘ के अभाव
में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी
मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब
दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी
को भी ‘दरिद्र समझ‘ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया
है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू
जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है।
वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे,
हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं‘ - वे अब एफ.एम. की
होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार
होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं।
जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ
‘प्रसारण-बिल‘, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है,
जहाँ, से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है।
वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे।
क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध‘ पसंद
नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध‘, ‘अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का दमन‘ लगता है। ‘उदारवाद‘ के
(जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया
है-कि ‘राष्ट्र‘, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और
आर्थिक ‘स्थानीयता‘ की ‘वर्चस्ववादी‘ एवम् ‘दमनकारी‘
व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी।
भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का
समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली
भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ‘ जितनी जल्दी मुक्त हों,
उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्रं सिर्फ बौड़मों
की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन
के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में
अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को
केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर
देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका
पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा
है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।‘ जो
जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब
में होगी।
निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत
में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें
सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे
बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं-
‘भूमंडलीकरण भक्तिगीत‘। |