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                           बदलते 
                          समय के साथ हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियों के विषय में
                          संजय 
                          द्विवेदी के विचार- 
 
                          
                          भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी पत्रकारिता  
 आज 
                          भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां न 
                          सिर्फ बढ़ गई हैं वरन उनके संदर्भ भी बदल गए हैं। 
                          पत्रकारिता के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बातों पर 
                          सवालिया निशान हैं तो उसकी नैसर्गिक सैद्धांतिकता भी 
                          कठघरे में है। वैश्वीकरण और नई प्रौद्योगिकी के घालमेल 
                          से एक ऐसा वातावरण बना है जिससे कई सवाल पैदा हुए हैं। 
                          इनके वाजिब व ठोस उत्तरों की तलाश कई स्तरों पर जारी है। 
                          वैश्वीकरण व बाजारवाद की इन चुनौतियों ने हिन्दी 
                          पत्रकारिता को कैसे और कितना प्रभावित किया है इसका 
                          अध्ययन किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
 समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले 
                          इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है। पहली अंग्रेजी 
                          पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े 
                          अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय 
                          अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो 
                          बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है, 
                          और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों 
                          को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले 
                          हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। 
                          वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही 
                          अनुगामी बने हुए हैं। उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है 
                          और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ से जुड़े नहीं दिखते। 
                          तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी 
                          दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई 
                          आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। 
                          यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की 
                          ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।
 
 व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो यह घाटे का सौदा नहीं है। 
                          अखबारों की छाप-छपाई, तकनीक-प्रौद्योगिकी के स्तर पर 
                          क्रांति दिखती है। वे ज्यादा कमाऊ उद्यम में तब्दील हो 
                          गए हैं। अपने कर्मचारियों को पहले से ज्यादा बेहतर वेतन, 
                          सुविधाएं दे पा रहे हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन 
                          सरोकारों का क्या होगा, उन सामाजिक जिम्मेदारियों का 
                          क्या होगा-जिन्हें निभाने और लोकमंगल की भावना से 
                          अनुप्राणित होकर काम करने के लिए हमने यह पथ चुना था? 
                          क्या अखबार को ‘प्रोडक्ट’ बनने और संपादक को ‘ब्रांड 
                          मैनेजर’ या ‘सीईओ’ बन जाने की अनुमति दे दी जाए? बाजार 
                          के आगे लाल कालीन बिछाने में लगी पत्रकारिता को ही सिर 
                          माथे बिठा लिया जाए? क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे 
                          विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर 
                          पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों 
                          को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो 
                          क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?
 
 आप लाख कहें लेकिन ‘विश्वग्राम’ के पीछे जिस आर्थिक 
                          चिंतन और नई प्रौद्योगिकी पर जोर है क्या उसका मुकाबला 
                          हमारी पत्रकारिता कर सकती है? बाजारवाद के खिलाफ गूंजें 
                          तो अवश्य हैं, लेकिन वे बहुत बिखरी-बिखरी, बंटी-बंटी ही 
                          हैं। वह किसी आंदोलन की शक्ल लेती नहीं दिखतीं। बिना 
                          वेग, त्वरा और नैतिक बल के आज की हिन्दी या भाषाई 
                          पत्रकारिता कैसे उदारीकारण के अर्थचिंतन से दो-दो हाथ कर 
                          सकती है?
 
 बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति 
                          परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में 
                          हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप 
                          में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान 
                          शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना 
                          टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा 
                          रही है। इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं। भारत 
                          की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को 
                          और बढ़ाता है। दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर 
                          कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं।
 
 असंतुलित विकास भी इसी व्यवस्था की नई देन है। शायद 
                          इसलिए अर्थशास्त्री प्रो. ब्रम्हानंद मानते है कि आने 
                          वाले वर्षों में ‘स्टेट बनाम मार्केट’ (राज्य बनाम 
                          बाजार) का गंभीर टकराव होगा। सो विकसित राज्यों व 
                          बाजारवादी व्यवस्था से लाभान्वित हुए राज्यों औसे आंध्र, 
                          कनोटक, गुजरात, महाराष्ट्र के खिलाफ अविकसित राज्यों का 
                          एक स्वाभाविक संघर्ष शुरू हो गया है। प्रो. ब्रम्हानंद 
                          के मुताबिक ‘‘उदारीकरण के बाद स्वास्थ्य, पेयजल, सड़क, 
                          सार्वजनिक यातायात, शिक्षा हर जगह दोहरी व्यवस्था कायम 
                          हो गई है। एक व्यवस्था निजीकरण से जुड़ी है, जहां 
                          उपभोक्ताओं के पास समृद्धि है और ‘निजीकरण’ से लाभ लेने 
                          की क्षमता भी। दूसरी ओर व्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र की 
                          सुविधाओं से जुड़ी हैं, जहां निवेश के लिए सरकार के पास 
                          जैसा नहीं है पर करोड़ों लोग इससे जुड़े हैं। केन्द्र की 
                          नीतियों से भी भेदभाव प्रायोजित हो रहा है। बीमारू राज्य 
                          और बीमारू होते जा रहे हैं।’’ ये संकट देश के भी हैं और 
                          पत्रकारिता के भी।
 
 दुर्भाग्य है बीमारू राज्यों के अधिकांश क्षेत्रों में 
                          बोले जानी वाली भाषा हिन्दी है। अंग्रेजी के मुकाबले 
                          उसकी दयनीयता तो जाहिर है ही परन्तु सूचना की भाषा बनने 
                          की दिषा में भी हिन्दी बहुत पीछे है। साहित्य-संस्कृति, 
                          कविता-कहानी के क्षेत्रों में शिखर को छूने के बावजूद 
                          ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर हिन्दी में बहुत कम 
                          काम हुआ है। विज्ञान, प्रबंधन, प्रौद्योगिकी, उच्च 
                          वाणिज्य, उद्योग आदि क्षेत्रों में हिन्दी बेचारी साबित 
                          हुई है, जबकि यह युग सत्य है कि आज के दौर में जब तक 
                          भाषा बहुआयामी अभिव्यक्ति व विशेष सूचना की भाषा न बने 
                          उसे सीमा से अधिक महत्व नहीं मिल सकता। वरिष्ठ पत्रकार 
                          हरिवंश की मानें तो – ‘‘हिन्दी को आज देश, काल, 
                          परिस्थितियों के अनुरूप सूचना की सम्पन्न भाषा बनाना 
                          जरूरी है। आज की हिन्दी पत्रकारिता के लिए यही सीमा ही 
                          सबसे बड़ी चुनौती है। बाजारवाद की चुनौतियों के खिलाफ 
                          हिन्दी पत्रकारिता का यह सृजनात्मक उत्तर होगा। आधुनिक 
                          राजसत्ता, तंत्र, बाजारवाद, विश्वग्राम की सही अंदरूनी 
                          तस्वीर लोगों तक पहुंचे, यह सायास कोशिश हो। इसके 
                          अंतर्विरोध-कुरूपता को हिन्दी या भाषाई पाठक जानें, यह 
                          प्रयास हो। यह काम अंग्रेजी प्रेस नहीं कर सकता। 
                          अंग्रेजी की नकल कर रहे भाषाई अखबार भी नहीं कर सकते, 
                          क्योंकि ये सभी माडर्न सिस्टम की उपज हैं। यही बाजारवाद 
                          इनका शक्तिस्रोत हैं।’’
 
 अंग्रेजी के वर्चस्ववाद के खिलाफ हिन्दी एवं भारतीय 
                          भाषाओं की शक्ति को जगाए व पहचाने बिना अंधेरा और बढ़ता 
                          जाएगा। अंग्रेजी अखबार इस लूटतंत्र के हिस्सेदार बने हैं 
                          तो मुख्यधारा की हिन्दी-भाषाई पत्रकारिता उनकी छोड़ी 
                          जूठी पत्तलें चाट रही हैं। हिन्दी की ताकत सिर्फ सिनेमा 
                          में दिखती है, जबकि यह भी बाजार का हिस्सा है। सच कहें 
                          तो हिन्दी सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा बनकर रह 
                          गयी है।
 
 बाजारवाद में मुक्त बेचने वाले हाते हैं – खरीदने वाले 
                          नहीं। हमारा पाठक यहीं ठगा जा रहा है। उसे जो कुछ यह 
                          कहकर पढ़ाया जा रहा है कि यह तुम्हारी पंसद है – दरअसल 
                          वह उसकी पसंद नहीं होती। जिस तरह एक ओर बाजार इच्छा सृजन 
                          कर रहा है, आपकी जरूरतें बढ़ी हैं और नाजायज चीजें हमारी 
                          जिन्दगी में जगह बना रही हैं। अखबार भी बाजार के इस 
                          षडयंत्र का हिस्सा बन गया है। सो पाठक केन्द्र में नहीं 
                          है, विज्ञापनदाता को मदद करने वाला ‘संदेश’ केन्द्र में 
                          है। हमने कहा – ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पूरा विश्व एक परिवार 
                          है। ‘विश्वग्राम’ कहता है – ‘पूरा विश्व एक बाजार है।’ 
                          जाहिर है चुनौती कठिन है। विज्ञापन दाता ‘कंटेंट’ को 
                          नियंत्रित करने की भूमिका में आ गया है – यह दुर्भाग्य 
                          का क्षण है। आज हालात यह है कि पाठक ही यह तय नहीं करते 
                          कि उन्हें कौन सा अखबार पढ़ना है, अखबार ही यह भी तय कर 
                          रहे हैं कि हमें किस पाठक के साथ रहना है। कई अंग्रेजी 
                          अखबार इसी भूमिका का काम कर रहे हैं।
 
 हिन्दी व भारतीय भाषाओं के अखबारों के सामने यह चुनौती 
                          है कि वे अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करें। वे यह सोचें 
                          कि क्या वे सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करने के 
                          अपने बुनियादी धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ ‘विशिष्ठ’ 
                          कर सकते हैं? क्या हमने अपने प्रस्थान बिन्दु से नाता 
                          तोड़ लिया है, क्या हम जनोन्मुखी और सरोकारी पत्रकारिता 
                          से हाथ जोड़ लेंगे। देह और भोग (बाडी एंड प्लेजर) की 
                          पत्रकारिता के पिछलग्गू बन जाएंगे? अपने समाज जीवन को 
                          प्रभावित करने वाले सवालों से मुंह चुराएंगे? उदारीकरण 
                          के नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा तक नहीं करेंगे। अपने 
                          पाठकों तक सांस्कृतिक पतन की सूचनाएं नहीं देंगे? क्या 
                          हम यह नहीं बताएंगे कि मैक्सिकों का यह हाल क्यों हुआ? 
                          थाईलैंड की वेश्यावृत्ति का बाजावाद से क्या नाता है? 
                          पत्रकारिता सार्थक भूमिका के निर्वहन में हमारे आड़े कौन 
                          आ रहा है?
 
 हमारे एकता-अखंडता क्या पश्चिमी सांचों की बुनावट पर 
                          कायम रह सकेगी? सुविधाओं एवं सुखों के नाम पर क्या हम 
                          आत्म-समर्पण कर देंगे? ऐसे तमाम सवाल पत्रकारिता के 
                          सामने खड़े हैं। उनके उत्तर भी हमें पता है लेकिन 
                          ‘बाजावाद’ की चकाचैंध में हमें कुछ सूझता नहीं। इसके 
                          बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कठघरों से बाहर आकर 
                          बुनियादी सवालों से जूझें। हवा के खिलाफ खड़े होने का 
                          साहस पालें। हिन्दी पत्रकारिता की ऐतिहासिक भावभूमि हमें 
                          यही प्रेरणा देती है। यही प्रस्थान बिन्दु हमें जड़ों से 
                          जोड़ेगा और ‘वैकल्पिक पत्रकारिता’ की राह भी बनाएगा।
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