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                           गाँव 
                          गाँव में पानी की समस्या पर विजय प्राप्त करती ग्रामीण 
                          महिलाओं की कहानी कहता मनीष वैद्य का लेख- 
 
                          
                          पानपाटा की बदली तस्वीर 
 घूँघट 
                          में रहने वाली महिलाओं ने देवास जिले में कन्नौद तहसील 
                          के गाँव ‘पानपाट’ की तस्वीर ही बदल दी है। उन्होंने यह 
                          सिद्ध कर दिखाया है कि – कमजोर व अबला समझी जाने वाली 
                          महिलाएँ यदि ठान लें तो कुछ भी कर सकती हैं। उन्हीं के 
                          अथक परिश्रम का परिणाम है कि आज पानपाट का मनोवैज्ञानिक, 
                          आर्थिक व सामाजिक स्वरुप ही बदल गया है। जो अन्य गाँवो 
                          के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हो रहा है। 
 मध्यप्रदेश के अन्य कई गाँवों की तरह यह गाँव भी आजादी 
                          के पहले से ही पानी का संकट साल दर साल भोगने को अभिशप्त 
                          है। यहाँ जलस्तर बहुत नीचे है, हर साल गर्मियों में 
                          परिवहन से यहाँ पानी भेजा जाता है। ताकि यहाँ के लोग और 
                          मवेशी जिन्दा रह सकें। औरतें दो-दो तीन-तीन किमी दूर से 
                          सिर पर घड़े उठाकर लाती है। जिन घरों में बैलगाड़ियां 
                          हैं, वहाँ एक जोड़ी बैल हर साल गर्मियों में ड्रम 
                          खींच-खींचकर ‘डोबा’ (बिना काम का, थका हुआ बैल) हो जाते 
                          है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। लेकिन व्यवस्था में 
                          सुधार नहीं हो रहा था। इस समस्या का सबसे बड़ा खामियाजा 
                          भुगतना पड़ता था औरतों को। आखिर वे ही तो परिवार की रीढ़ 
                          हैं।
 
 एक दिन वे खुद उठीं और बदलने चल दीं अपने गाँव की किस्मत 
                          को गाँव के तमाम मर्दों ने उनकी हँसी उड़ाई ‘आखर जो काम 
                          सरकार इत्ता साल में नी करी सकी उके ई घाघरा पल्टन करने 
                          चली है’ पर साल भर से भी कम समय में ही वे लोग दाँतो तले 
                          उँगली दबा रहें हैं। इस कथित घाघरा पल्टन ने ही उनके 
                          गाँव की दशा और दिशा बदल दी है। यह कोई कपोल कल्पित 
                          कहानी या अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हकीकत है। देवास 
                          जिले के कन्नौद ब्लॉक के गाँव पानपाट की।
 
 इन औरतों के बीच काम करने पहुँची स्वंयसेवी संस्था 
                          ‘विभावरी’ ने उनमें वह आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पैदा 
                          की कि सदियों से पर्दानशीन मानी जाने वाली ये बंजारा 
                          औरतें दहलीजों से निकलकर गेती-फावड़ा उठाकर तालाब खोदने 
                          में जुट गईं। दो महीने मे ही तैयार हो गया इनका तालाब। 
                          जैसे-जैसे तालाब का आकार बढ़ता गया इनका उत्साह और हौसला 
                          बढ़ता गया। उन्हें खुशी है कि अब इस गाँव में पानी के 
                          लिए कोई अपाहिज नहीं होगा और कोई बहन-बेटी पानी के लिए 
                          भटकेगी नहीं। सत्तर वर्षीय दादी रेशमीबाई खुद आगे बढ़ीं 
                          और फिर तो देखते ही देखते पूरे गाँव की औरतें पानी की 
                          बात पर एकजुट हो गईं। उन्होंने पानी रोकने की तकनीकें 
                          सीखी, समझी और गुनी। पठारी क्षेत्र और नीचे काली चट्टान 
                          होने से पानी रोकना या भूजल स्तर बढ़ाना इतना आसान नहीं 
                          था। पर ‘जहाँ चाह-वहाँ राह’ की तर्ज पर विभावरी को राजीव 
                          गांधी जलग्रहण मिशन से सहायता मिली।
 
 बात पड़ोसी गाँव तक भी पहुँची और वहाँ की औरतें भी 
                          उत्साहित हो उठीं- इस बीमारी की जड़सली (दवाई) पाने के 
                          लिए। यहाँ से शुरुआत हुई पानी आंदोलन की। अनपढ़ और गँवई 
                          समझी जाने वाली इन औरतों ने पड़ोसी गाँवों की औरतों का 
                          दर्द भी समझा। गाँव का पानी गाँव में ही रोकने के गुर 
                          सिखाने निकलीं ये औरतें। बैसाख की तेज गर्मी, चरख धूप और 
                          शरीर से चूते पसीने की फिक्र से दूर। नाम दिया जलयात्रा। 
                          २० से २५ मई २००१ तक यह जलयात्रा भाटबड़ली, झिरन्या, 
                          टिपरास, नरायणपुरा, निमनपुर, गोला, बांई, जगवाड़, फतहुर 
                          जैसे गाँवों से गुजरी उद्देश्य यही था कि-जो मंत्र 
                          उन्होंने अपनाया वह दूसरे गाँव के लोग भी करें।
 
 जलयात्रा के बाद तो इस क्षेत्र में पानी आंदोलन एक सशक्त 
                          जन आन्दोलन की तरह उभरा अब तो मर्दों ने भी कंधे से कंधा 
                          मिलाकर चलना तय कर लिया। आज क्षेत्र में सेकड़ों जल 
                          संरचनाएँ दिखाई देती हैं। इससे भविष्य में यह क्षेत्र 
                          पानी की जद्दोजहद से दो-चार नहीं होगा। पानी को लेकर 
                          शुरु हुआ यह आंदोलन अब पानी से आगे बढ़कर क्षेत्र की 
                          समाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव जैसे मुद्दों को भी 
                          छू रहा है क्षेत्र में सफाई, स्वास्थ्य, कुरीतियों से 
                          निपटने, शिक्षा, पंचायती संस्थाओं में भागीदारी, छोटी 
                          बचत व स्वरोजगार से अपनी व पारिवारिक आमदनी बढ़ाने जैसे 
                          मुद्दे भी इन औरतों की सूची में शामिल हैं।
 
 पिछले एक साल में यहाँ इन्होंने तालाब, निजी खेतों में 
                          तलईयाँ, गेबियन स्ट्रक्चर, मैशनरी चेकडेम, लूज बोल्डर 
                          शृंखलाबद्ध चेकडेम व मेड़बंदी जैसी कई संरचनाएँ बनाई 
                          हैं। पर इससे महत्त्वपूर्ण देखने वाली बात यह कि – यहाँ 
                          के समाज में इन सबसे एक विशेष प्रकार का विश्वास और 
                          जागरुकता आई। अब ये लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख 
                          गए हैं। ये अब नेताओं और अफसरों के सामने घिघियाते नहीं 
                          हैं, बल्कि नजर उठाकर नम्रता के साथ बात करते हैं।
 
 नारायणपुरा में ५वीं कक्षा पास शारदा बाई गाँव की ऐसी १२ 
                          बालिकाओं को पढ़ा रही है जिन्हें किसी कारण से पढ़ाई 
                          छोड़नी पड़ी थी। इन गाँवो में सफाई पर विशेष ध्यान दिया 
                          जा रहा है। निस्तारी पानी के लिए ५6 सोख्ता गडढ़े व लगभग 
                          दो दर्जन घूड़ों में नाडेप तरीके से खाद बनाई जा रही है। 
                          क्षेत्र के युवकों को रोजगारमूलक गतिविधियों से जोड़ा जा 
                          रहा है तथा किशोरों, औरतों के लिए लायब्रेरी बनाई गई है। 
                          क्षेत्र में लगातार स्वास्थ्य की देखरेख के लिए शिविर लग 
                          रहे हैं। इन गाँवो के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक 
                          बदलाव को आसानी से देखा, समझा जा सकता है।
 
 ‘विभावरी’ के सुनील चतुर्वेदी इस पूरे आंदोलन से खासे 
                          उत्साहित हैं। वे कहते हैं “एक अनजान धरती पर नकारात्मक 
                          माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति 
                          पुराना अविश्वास और नेताओं के आश्वासन ने यहाँ के 
                          ग्रामीणों को निराश कर दिया था पर क्षेत्र की महिलाओं ने 
                          हमारे काम को आगे बढ़ाया”। क्षेत्र की औरतों के बीच 
                          जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली 
                          लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की 
                          है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये। सोनल 
                          कहती है- “गाँव में तालाब निर्माण काकाम ही सामाजिक 
                          समरूपता का माध्यम बना। मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया 
                          मैंने तो सिर्फ उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराया।
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