सामयिकी भारत से

भारतीय कृषि के विकास की पड़ताल करते हुए वरिष्ठ पत्रकार मुकुल व्यास का लेख-


कृषि निवेश से ही खाद्य सुरक्षा संभव


भारत में एक ओर खाने-पीने की चीज़ों के दाम आकाश छू रहे हैं वहीं दूसरी ओर तापमान बढ़ने से जलवायु में होने वाली उथल-पुथल के कारण भारतीय कृषि पर भी खतरा मंडराने लगा है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के बारे में जताई गई आशंकाएँ यदि सही साबित हुईं, तो वर्ष २०२० तक भारत को कृषि उत्पादन में छह से आठ प्रतिशत की क्षति का सामना करना पड़ सकता है। ऐसी परिस्थिति में देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना हमारे योजनाकारों के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

देश में कृषि की स्थिति संतोषजनक नहीं है। दरअसल, शुरू से ही यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है। देश के कुल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग २० प्रतिशत है। ६० करोड़ से अधिक आबादी अपनी रोजी-रोटी के लिए कृषि और उससे जु़डी गतिविधियों पर निर्भर है। फिर भी कृषि उत्पादन कछुए की रफ्तार से आगे बढ़ा है। पिछले दस वर्ष के दौरान औसत वृद्धि बमुश्किल २.३ प्रतिशत रही है। यह भारत के आर्थिक विकास के असंतुलित और असमान स्वरूप का ही परिणाम है कि देश के करीब ३० करोड़ परिवारों के ३० प्रतिशत के हाथों में अधिक पैसा आ रहा है, जबकि बहुसंख्य आबादी की वित्तीय क्षमता बहुत सीमित है। इनमें से भी ज़्यादातर लोग पौष्टिक भोजन के लिए तय की गई न्यूनतम खुराक जुटाने में समर्थ नहीं है। लोगों की आय में भारी असमानता गंभीर चिंता का विषय है।

आर्थिक तरक्की के तमाम खूबसूरत आँकड़ों के बावजूद आलम यह है कि पिछले दस वर्षों में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में भारी गिरावट आई है। १९९७ में प्रति व्यक्ति यह उपलब्धता जहाँ ५०० ग्राम थी, वह इस समय घटकर ४०० ग्राम रह गई है। जाहिर है, ग्रामीण जनता सबसे ज़्यादा प्रभावित हुई है, क्योंकि उनकी आय में समुचित वृद्धि नहीं हुई है। रही-सही कसर महँगाई ने पूरी कर दी। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से थोड़ी-बहुत राहत मिली होगी, लेकिन लोगों की खाद्यान्न आवश्यकता पूरा करना एक विकट कार्य है। खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता के दावे खोखले ही साबित होते हैं, क्योंकि आपूर्ति में कमी को पूरा करने के लिए हमें खाद्यान्न आयात करना पड़ता है। हमारे देश को कुदरत ने विविध जलवायु का उपहार दिया है, हमारे पास खेती लायक पर्याप्त ज़मीन भी है, फिर भी हमारी पैदावार बढ़ नहीं रही। वह ठिठकी हुई-सी है, आखिर क्यों?

आयात से घरेलू उपलब्धता तो ठीकठाक हो जाती है, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं होती कि यह अनाज ज़रूरतमंदों तक पहुँच ही जाएगा। मौजूदा स्थिति से निपटने का आलम यह है कि हम अपनी खाद्य सुरक्षा को मज़बूत करें। मौसम की टे़ढी चाल से यह काम अब पहले से ज्यादा मुश्किल हो गया है। इस साल भारत में मानसून की वर्षा में २३ प्रतिशत की कमी रहने से २०,००० करोड़ रुपये की फसल का नुकसान हुआ। इससे लगभग ५० करोड़ लोगों के प्रभावित होने की आशंका है। भारतीय मानसून के पैटर्न में आ रही तबदीलियों का ही यह नमूना है, जिसकी भविष्यवाणी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटियोरोलॉजी (आईआईटीएम) द्वारा की जा चुकी है। आईआईटीएम ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का सही अनुमान लगाना धीरे-धीरे मुश्किल होता जाएगा। इस अनियमित पैटर्न में आगे और तेज़ी आएगी, जिसका कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अत: गाँव के लोग शहरों की तरफ़ पलायन करेंगे।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की नवंबर में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, मानसून पैटर्न में परिवर्तन से भारत में ५१ प्रतिशत कृषि भूमि प्रभावित होगी और ४२ करोड़ लोगों पर मौसम की तलवार हमेशा लटकती रहेगी। इनमें भी सबसे ज़्यादा प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा, क्योंकि हमारे कृषि क्षेत्र में काम करने वालों में ७० प्रतिशत महिलाएँ ही हैं। कृषि क्षेत्र में वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना सिर्फ़ सुदृ़ढ खाद्य सुरक्षा से ही किया जा सकता है। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए हमें कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भरता लानी होगी। दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में अपनाई गई कृषि नीतियों, सार्वजनिक निवेश में गिरावट और कृषि मसलों के समाधान में विफलता ने हमारे कृषि विकास को अवरुद्ध कर दिया है। फिर भी स्थितियाँ बहुत निराशाजनक नहीं हैं।

भारत में दुनिया की मज़बूत कृषि शक्ति बनने के साधन मौजूद हैं, क्योंकि इसे विविध जलवायु परिस्थितियों का उपहार प्रकृति से मिला हुआ है। देश में करीब २३० दिन उजली धूप निकलती है। वर्षा का पैटर्न भी कुछ मिलाकर ठीकठाक है और करीब १५ करोड़ हेक्टेयर खेती योग्य ज़मीन है। भारत के पास विभिन्न किस्म के अनाजों के लिए अच्छा उत्पादन-आधार है। गेहूँ, चावल, दूध और चीनी आदि के उत्पादन के मामले में भारत की गिनती तीन शीर्ष देशों में होती है। इसके बावजूद उत्पादन में ठहराव-सा बना हुआ है, तो इसलिए कि हमारे पास इसके लिए न उचित नीतियाँ हैं और न ही प्रबंध क्षमता।

कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाकर ही हम स्थितियों को अपने अनुकूल कर सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के मुताबिक, भारत यदि हर साल ७,००० करोड़ रुपये कृषि में निवेश करे, तो जलवायु परिवर्तनों से होने वाले नुकसान को निष्प्रभावी किया जा सकता है। भारत को अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए खेती योग्य ज़मीन का विस्तार करना होगा। यदि भारत के पूर्वी हिस्सों में सिंचाई और ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराने के लिए समुचित निवेश किए जाए, तो ये क्षेत्र भी भविष्य में अनाज केबड़े उत्पादक बन सकते हैं।

२८ दिसंबर २००९