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                           भारत 
                          में बढ़ते माओवादी आतंक की पुख्ता पड़ताल करते हुए 
                          संजय 
                          द्विवेदी का आलेख- 
 
                          
                          'गन'
                          तंत्र के विरुद्ध गणतंत्र 
 
                          माओवादी जो इस देश के लोकतंत्र और व्यवस्था को नहीं 
                          मानते, जो मतदान के बहिष्कार की बात करते हैं, जनअदालतें 
                          लगाकर लोगों की हत्या करते हैं, जंगलों में ठेकेदारों, 
                          सरकारी कर्मियों से करोड़ों की लेवी वसूलते हैं। जिनके 
                          जनयुद्ध से आम आदमी की जिंदगी से सिर्फ अंधेरा फैलता है। 
                          जनाब, यह जनतंत्र की ही ताकत है कि ऐसे नरभक्षी 
                          नक्सलियों की पैरवी में भी देश के तमाम बुद्धिजीवी खड़े 
                          हैं। हालांकि ये कौन हैं उनकी पहचान अब जरूरी हो गयी है। 
                          यह सवाल भी मौजूं है कि आखिर लोकतंत्र के बदले हम कौन सी 
                          वह व्यवस्था लाना चाहते हैं जो हमें न्याय दे पाएगी। 
                          क्या हमारे लोकतंत्र का विकल्प आज के स्वरूप का खूनी 
                          नक्सलवाद हो सकता है।
 देश का नक्सल आंदोलन सही मायनों में एक गहरे अंर्तविरोध 
                          से गुजर रहा है। आज का नक्सलवाद और उसका चेहरा इतना 
                          विकृत है कि लोग इस किसी वाद के रूप में स्वीकारे जाने 
                          पर भी सवाल उठा रहे हैं। असल सवाल आज यह है कि आपको 
                          गणतंत्र चाहिए या गनतंत्र। लोकतंत्र के खिलाफ उठी ये 
                          बंदूकें सही मायनों में भारतीय राज्य के सामने एक ऐसी 
                          चुनौती के रूप में जिसका हल तलाशना बहुत जरूरी है।
                          नक्सली समस्या जिस विकराल रूप में आज हमारे सामने 
                          है उसने देश की व्यवस्था के सामने कई प्रश्न खड़े कर दिए 
                          हैं। यह सोचना बहुत रोमांचक है कि आखिर ऐसे कौन से हालात 
                          हैं जिनमें कोई व्यक्ति किसी अतिवादी विचार से प्रभावित 
                          होकर नक्सली बन जाता है। वो कौन से हालात है जिनमें एक 
                          सहज-सरल आदिवासी बंदूक उठाकर व्यवस्था को चुनौती देने के 
                          लिए खड़ा हो जाता है। अब हालात यह हैं कि नक्सलवादी 
                          संगठन लोगों को जबरिया भी नक्सली बना रहे हैं। हर घर से 
                          एक नौजवान देने की बात भी कई इलाकों मे नक्सलियों ने 
                          चलाई है।बीस राज्यों के 223 जिलों के दो हजार से अधिक 
                          थाना क्षेत्रों में फैला यह माओवादी आतंकवाद साधारण नहीं 
                          है।
 
 यह सोच बेहद बचकानी है कि अभाव के चलते आदिवासी समाज 
                          नक्सलवाद की ओर बढ़ा है। आदिवासी अपने में ही बेहद संतोष 
                          के साथ रहने वाला समाज है। जिसकी जरूरतें बहुत सीमित 
                          हैं। यह बात जरूर है कि आज के विकास की रोशनी उन तक नहीं 
                          पहुंची है। नक्सलियों ने उनकी जिंदगी में दखल देकर हो 
                          सकता है उन्हें कुछ फौरी न्याय दिलाया भी हो, पर अब वे 
                          उसकी जो कीमत वसूल रहे हैं, वह बहुत भारी है। जिसने एक 
                          बड़े इलाके को युद्धभूमि में तब्दील कर दिया है। हां, इस 
                          बात के लिए इस अराजकता के सृजन को भी महत्वपूर्ण माना 
                          जाना चाहिए कि इस बहाने इन उपेक्षित इलाकों और समाजों की 
                          ओर केंद्र सरकार गंभीरता से देखने लगी है। योजना आयोग भी 
                          आज कह रहा है कि इन समाजों की बेसिक जरूरतों को पूरा 
                          करना जरूरी है। यह सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र और 
                          हमारी आर्थिक योजनाओं की विफलता ही रही कि ये इलाके 
                          उग्रवाद का गढ़ बन गए। दूसरा बड़ा कारण राजनीतिक नेतृत्व 
                          की नाकामी रही। राजनैतिक दलों के स्थानीय नेताओं ने 
                          नक्सल समस्या के समाधान के बजाए उनसे राजनीतिक लाभ लिय़ा। 
                          उन्हें पैसे दिए, उनकी मदद से चुनाव जीते और जब यह 
                          भस्मासुर बन गए तो होश आया।
 
 अब तक नक्सली आतंक के विस्तार का मूल कारण सामाजिक और 
                          आर्थिक ही बताया जा रहा है। कुछ विद्वान अपने रूमानीपने 
                          में इस नक्सली तेवर में क्रांति और जनमुक्ति का दर्शन भी 
                          तलाश लेते हैं। बावजूद इसके संकट अब इतने विकराल रूप में 
                          सामने है कि उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। गरीबी, 
                          अशिक्षा, विकास और प्रशासन की पहुंच इन क्षेत्रों में न 
                          होना इसका बड़ा कारण बताया जा रहा। किंतु उग्रवाद को 
                          पोषित करने वाली विचारधारा तथा लोकतंत्र के प्रति 
                          अनास्था के चलते यह आंदोलन आम जन की सहानुभूति पाने में 
                          विफल है। साथ ही साथ विदेशी मदद और घातक हथियारों के 
                          उपयोग ने इस पूरे विचार को विवादों में ला दिया है। आम 
                          आदमी की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली ये ताकतें किस 
                          तरह से समाज के सबसे आखिरी पंक्ति में खड़े आदमी की 
                          जिंदगी को दुरूह बना रही हैं बहुत आसानी से समझा जा सकता 
                          है। स्कूल, सड़क, बिजली और विकास के कोई भी प्रतीक इन 
                          नक्सलियों को नहीं सुहाते। इनके करमों का ही फलित है कि 
                          आदिवासी इलाकों के स्कूल या तो नक्सलियों ने उड़ा दिए 
                          हैं या उनमें सुरक्षा बलों का डेरा है। युद्ध जैसे हालात 
                          पैदाकर ये कौन सा राज लाना चाहते हैं। इसे समझना कठिन 
                          है।
 जमीन 
                          और प्राकृतिक संसाधनों से आदिवासियों की बेदखली और उनके 
                          उत्पीड़न से उपजी रूमानी क्रांति कल्पनाएं जरूर देश के 
                          बुद्धिजीवियों को दिखती हैं पर नक्सलियों के आगमन के बाद 
                          आम आदमी की जिंदगी में जो तबाही और असुरक्षाबोध पैदा हुआ 
                          है उसका क्या जवाब है। राज्य की शक्ति को नियंत्रित करने 
                          के लिए तमाम फोरम हैं। राज्यों की पुलिस के तमाम बड़े 
                          अफसर सजा भोग रहे हैं, जेलों में हैं। किंतु आतिवादी 
                          ताकतों को आप किस तरह रोकेगें। राज्य का आतंक किसी भी 
                          आतिवादी आंदोलन के समर्थन करने की वजह नहीं बन सकता। 
                          बंदूक, राकेट लांचर और बमों से खून की होली खेलने वाली 
                          ऐसे जमातें जो हमारे सालों के संधर्ष से अर्जित लोकतंत्र 
                          को नष्ट करने का सपना देख रही हैं, जो वोट डालने वालों 
                          को रोकने और उनकी जान लेने की बात करती हैं उनके समर्थन 
                          में खड़े लोग यह तय करें कि क्या वे देश के प्रति 
                          वफादारी रखते हैं। विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यस्था 
                          और एक जीवंत लोकतंत्र के सामने जितनी बड़ी चुनौती ये 
                          नक्सली हैं उससे बड़ी चुनौती वे बुद्धिवादी हैं 
                          जिन्होंने बस्तर के जंगल तो नहीं देखे किंतु वहां के 
                          बारे में रूमानी कल्पनाएं कर कथित जनयुद्ध के किस्से 
                          लिखते हैं। यह देशद्रोह भी एक लोकतंत्र में ही चल सकता 
                          है। आपके कथित माओ के राज में यह मुक्त चिंतन नहीं चल 
                          सकता, इसीलिए इस देश में लोकतंत्र को बचाए रखना जरूरी 
                          है। क्योंकि लोकतंत्र ही एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें 
                          लोकतंत्र के विरोधी विमर्श और आंदोलन भी एक विचार के 
                          नाते स्वीकृति पाते हैं। 
 जिन्हें नक्सलवाद में इस देश का भविष्य नजर आ रहा है वे 
                          सावन के अंधों सरीखे हैं। वे भारत को जानते हैं, न भारत 
                          की शक्ति को। उन्हें विदेशी विचारों, विदेशी सोच और 
                          विदेशी पैसों पर पलने की आदत है। वे नहीं जानते कि यह 
                          देश कभी भी किसी अतिवादी विचार के साथ नहीं जी सकता। 
                          लोकतंत्र इस देश की सांसों में बसा है। यहां का आम आदमी 
                          किसी भी तरह के अतिवादी विचार के साथ खड़ा नहीं हो सकता। 
                          जंगलों में लगी आग किन ताकतों को ताकत दे रही है यह 
                          सोचने का समय आ गया है। भारत की आर्थिक प्रगति से 
                          किन्हें दर्द हो रहा है यह बहुत साफ है। आंखों पर किसी 
                          खास रंग का चश्मा हो तो सच दूर रहा जाता है। बस्तर के 
                          दर्द को, आदिवासी समाज के दर्द को वे महसूस नहीं कर सकते 
                          जो शहरों में बैठकर नक्सलियों की पैरवी में लगे हैं। जब 
                          झारखंड के फ्रांसिस इंदुरवर की गला रेतकर हत्या कर दी 
                          जाती है, जब बंगाल के पुलिस अफसर को युद्ध बंदी बना कर 
                          छोड़ा जाता है, राजनांदगांव जिले के एक सरपंच को गला 
                          रेतकर हत्या की जाती है, गढ़चिरौली में सत्रह 
                          पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी जाती है तब मानवाधिकारों 
                          के सेनानी और नक्सलियों के शुभचिंतक खामोश रहते हैं। 
                          उन्हें तो सारी परेशानी उस सलवा जूडूम से जो बस्तर के 
                          जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ हिम्मत से खड़ा है। पर 
                          इतना जरूर सोचिए जो मौत के पर्याय बन सके नक्सलियों के 
                          खिलाफ हिम्मत से खड़े हैं क्या उनकी निंदा होनी चाहिए। 
                          उनकी हिम्मत को दाद देने के बजाए हम सलवा जूडूम के खिलाफ 
                          लड़ रहे हैं। इस बुद्धिवादी जमात पर तरस खाने के अलावा 
                          क्या किया जा सकता है।
 
 देश की सरकार को चाहिए कि वह उन सूत्रों की तलाश करे 
                          जिनसे नक्सली शक्ति पाते हैं। नक्सलियों का आर्थिक तंत्र 
                          तोड़ना भी बहुत जरूरी है। विचारधारा की विकृति व्याख्या 
                          कर रहे बुद्धिजीवियों को भी वैचारिक रूप से जवाब देना 
                          जरूरी है ताकि अब लगभग खूनी खेल खेलने में नक्सलियों को 
                          महिमामंडित करने से रोका जा सके। राजनीतिक नेतृत्व को भी 
                          अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए नक्सलियों के दमन, 
                          आदिवासी क्षेत्रों और समाज के सर्वांगीण विकास, वैचारिक 
                          प्रबोधन के साथ-साथ समाजवैज्ञानिकों के सहयोग से ऐसा 
                          रास्ता निकालना चाहिए ताकि दोबारा लोकतंत्र विरोधी 
                          ताकतें खून की होली न खेल सकें और हमारे जंगल, जल और 
                          जमीन के वास्तविक मालिक यानि आदिवासी समाज के लोग इस 
                          जनतंत्र में अपनी बेहतरी के रास्ते पा सकें। तंत्र की 
                          संवेदनशीलता और ईमानदारी से ही यह संकट टाला जा सकता है, 
                          हमने आज पहल तेज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।
 ७ दिसंबर २००९ |