मधु कौड़ा प्रकरण की छानबीन करते हुए पत्रकार
ओमकार
चौधरी का आलेख-
भ्रष्टाचार पर निर्णायक चोट ज़रूरी
मधु
कौड़ा प्रकरण ने लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर स्तर पर
संस्थागत रूप धारण कर चुके भ्रष्टाचार की परतें फिर
खोलकर रख दी। कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। मधु कौड़ा एक
ज़माने में खिड़कियों में ग्रिल लगाने वाले एक अदने से
कर्मचारी हुआ करते थे। चुनावी राजनीति में उतरे। पहली
बार भाजपा के टिकट पर विधायक बने। फिर निर्दलीय विधायक
चुने गए तो जैसे किस्मत ही खुल गई। झारखंड में खंडित
जनादेश आए, उसमें कौड़ा जैसों की चाँदी हो गई। पहले भाजपा
ने उन्हें मंत्री पद से नवाज़ा और उसके बाद कांग्रेस,
लालू यादव के नेतृत्व वाली राजद और शिबू सोरेन की झारखंड
मुक्ति मोर्चा ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर
मुख्यमंत्री बनवा दिया।
मधु
कौड़ा ने केवल २३ महीने के शासन में चार हज़ार करोड़ रुपये
की अकूत संपत्ति अर्जित कर ली। भारत में मुंबई, दिल्ली,
कोलकाता, जमशेदपुर, चाईबासा, पटना, रांची, लखनऊ और
गाजियाबाद समेत कई अन्य शहरों में उनकी बेनामी संपत्ति
फैली हुई है। मुंबई के एक होटल में उनकी साझेदारी है तो
कई देशों में उन्होंने दो हज़ार करोड़ से अधिक का निवेश
किया है। आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय ने जब जाँच
शुरू की तो आश्चर्य से उसके अधिकारियों की आँखें फटी की
फटी रह गईं। दो दिन के भीतर इन दोनों संस्थाओं ने कौड़ा
के सत्तर ठिकानों पर छापे मारे। उनके सत्तर बेनामी खातों
को सील किया। यह तथ्य सामने आया कि कौड़ा ने अल्पकाल में
ही झारखंड के कुल राजस्व का पाँचवाँ हिस्से जितनी
संपत्ति एकत्र कर ली थी। इस संपत्ति में कौन-कौन
हिस्सेदार हैं, इसका खुलासा होना शेष है। जाँच में पता
चला कि कौड़ा की डायरी में लालू का नाम भी पाया गया है।
मधु
कौड़ा के ठिकानों से दो करोड़ के गहने, तीन करोड़ रुपये की
नकदी और देश-विदेश में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने के
दस्तावेज़ बरामद हुए हैं। कोई मुख्यमंत्री भ्रष्ट तरीके
अपनाकर मात्र दो साल में किस कदर संपत्ति जुटा सकता है,
मधु कौड़ा इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। जब सितम्बर २००६
में वे मुख्यमंत्री बने, उनके पास कुल बारह लाख की
संपत्ति थी। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने हज़ारों करोड़
कमा लिए। लोकतंत्र का इससे बड़ा मज़ाक कोई और नहीं हो
सकता। ऐसे में यह सवाल उठ रहे हैं तो गलत नहीं है कि जो
कारनामा मधु कौड़ा ने किया, इसके लिए क्या वह अकेले दोषी
हैं? जिन पार्टियों और नेताओं ने भाजपा को सत्ता से बाहर
रखने के नाम पर उन्हें समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनाया और
जनता की कमाई की खुली लूट करने की छूट दी, क्या वे
ज़िम्मेदार नहीं हैं? कुछ अहम सवालों के जवाब राजनीतिक
दलों को देने होंगे। येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज
होने के लिए वे हर तरह के हथकंडे क्यों अपनाने लगे हैं?
मधु
कौड़ा जैसे चरित्र क्या इसी मानसिकता और पनप रही संस्कृति
की उपज नहीं हैं? एक अहम सवाल और है। नेताओं के कच्चे
चिट्ठों का खुलासा तभी क्यों होता है, जब वे सत्ता से
बाहर होते हैं और केन्द्र से उनका ३६ का आंकड़ा हो जाता
है? मधु कौड़ा अकेले नहीं हैं। लंबी फेहरिश्त है, जिन पर
अकूत संपत्ति इकट्ठा करने के गंभीर आरोप हैं। ऐसे लोगों
को मंत्री परिषदों में शामिल क्यों किया जाता है? इस
पूरे घालमेल और राजनीतिक भ्रष्टाचार से साफ़ लगने लगा है
कि राजनीतिक दलों ने सत्ता पाने के लिए न केवल अपना
ज़मीर बेच खाया है, बल्कि नैतिकता और उच्च मानदंड उनके
लिए अब कोई मायने नहीं रखते हैं। लगता ही नहीं कि
भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा रह गया है। ये हालात देश को
कहाँ ले जाएँगे, सोचकर ही मन घबराता है। जो राजनीतिक दल
भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई बात जोर-शोर से
करते हैं, वही सत्ता पाने के लिए तमाम तरह के भ्रष्ट
तरीके अपनाते हुए दिखते हैं।
सवाल
है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म कैसे किया जाए? इसके लिए
व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
सोचने-समझने के तौर-तरीकों में बदलाव लाना ज़रूरी है।
सरकारी कामकाज में पारदर्शिता की बेहद ज़रूरत है। जो लोग
भ्रष्ट तरीके अपनाकर आगे बढ़ते हैं, उन्हें पूरी तरह
अलग-थलग करने की आवश्यकता है। ऐसे लोग भले ही कितने ऊँचे
कद के हों या बड़े समझे जाने वाले पदों पर हों, किसी भी
स्तर पर उन्हें संरक्षण नहीं मिले, इसके पुख्ता बंदोबस्त
किया जाना ज़रूरी है। इसके अलावा सीबीआई, प्रवर्तन
निदेशालय, सतर्कता विभाग और भ्रष्टाचार से जुड़े दूसरे
संस्थानों को निगरानी सहित व्यापक अधिकार देने की ज़रूरत
है। भ्रष्टाचारी को कड़ी और शीघ्र सजा का प्रावधान किए
जाने की सख्त जरूरत है। और सबसे जरूरी काम तो खुद
जनता-जर्नादन को करना है। चुनाव में ऐसे लोगों को सिरे
से नकारे, जिनकी आय दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती देखें।
१६ नवंबर
२००९ |