स्मृतिशेष
वरिष्ठ
पत्रकार प्रभाष जोशी का ५ नवंबर की रात हृदयगति रुक जाने
से आकस्मिक निधन हो गया। अभिव्यक्ति की ओर से
श्रद्धांजलि दे रहे हैं दिल्ली से आई.बी.एन ७ के
महेन्द्र कुमार श्रीवास्तव-
हम तुम्हें मरने न देंगे-
प्रभाष
जी को भी शायद ये अंदाज नहीं रहा होगा कि इस तरह चुपके
से चले जाने के बाद वे अपने पीछे इतनी उदासी छोड़
जाएंगे। एक ऐसे समय जब क्षेत्रीय पत्रकारिता से
सम्पादकों की संस्था ही धीरे-धीरे समाप्त हो रही हो और
छिपे हुए शब्दों की विश्वसनीयता लगातार संदेह के अंधेरों
में धकेली जा रही हो, प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारों की कमी
उन लोगों को अवश्य ही सालेगी जिन्हें उनके साथ काम करने
का अवसर मिला है। यहाँ अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ५०-५०
ओवरों वाले वन डे मैच की रिपोर्टिंग वैसे तो खेल के तमाम
पत्रकारों ने की... लेकिन प्रभाष जी ने जब इस मैच को
"फटाफट क्रिकेट" का नाम दिया तो उसके बाद यह एक लोकप्रिय
शब्द बनकर निकला और ज्यादातर लोगों ने इसे "फटाफट क्रिकेट"
कहना और लिखना शुरू कर दिया। हालाँकि इस फटाफट खेल ने
उन्हें भी रफ्तार में काम करने का आदी बना दिया था।
करीब
छह-साल साल पहले मुरादाबाद में पत्रकारों के एक
कार्यक्रम में प्रभाष जी ने लोगों को खेल की रिपोर्टिंग
से जुड़े कुछ संस्मरण सुनाए। इस दौरान उन्होंने एक वन डे
सीरिज का जिक्र किया और बताया कि पाँच मैचों की शृंखला
थी और हर मैच में एक दिन का अंतर था, यानि दस दिन में
पूरे पाँच मैच। उस समय दिन रात के मैच नहीं होते थे, सभी
मैच सुबह शुरू होते थे और शाम को खत्म। इस टूर में
प्रभाष जी भी टीम के साथ थे.. सुबह उठकर मैच देखने जाना,
मैच खत्म होते ही अगले मैच के लिए घंटे भर बाद ही फ्लाइट
पकड़ने की हड़बड़ी और इसी वक्त में अपनी रिपोर्ट फाइल
करना, वाकई आसान नहीं था, लेकिन ये १९-२० साल का छोरा
सचिन उन्हें ये सब करने को मजबूर करता था, क्योंकि
प्रभाष जोशी उसके दीवाने जो थे। सचिन को खेलते देखना
उन्हें शुकून देता था, ऐसे मैच वो आँखों से नहीं दिल से
देखते थे, और लगता है इस क्रिकेट को दिल से देखना ही उन
पर भारी पड़ गया। पाँच नवंबर गुरुवार का दिन हम सबके लिए
मनहूस साबित हुआ। हैदराबाद में भारत और आस्ट्रेलिया के
बीच होने वाले मैच में रिजल्ट के अलावा मुख्य आकर्षण था
सचिन का १७,००० रन पूरा करना। इस मैच में सचिन ने १७५ रन
की बेहतरीन पारी खेली तो ऐसा लगा कि सचिन ने तो प्रभाष
जी में ही जान फूँक दी है। उन्होंने रात में ही अखबार के
दफ्तर में फोन घुमा दिया और कहा कि वो इस खेल की रिपोर्ट
लिखेंगे, मैच खत्म होने के बाद इसे मँगा लें। लेकिन मैच
का जो नतीजा निकला लगता है प्रभाष जी वो बर्दाश्त नहीं
कर सके।
मूलत:
इंदौर के रहने वाले प्रभाष जी लगभग ४० साल पहले दिल्ली
आए और हिंदी पत्रकारिता को उन्होंने न सिर्फ एक ऊँचाई दी
बल्कि सम्मान के साथ जिस स्तर पर पहुँचाया इसके लिए भी
उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। वरना तो दिल्ली में हिंदी
पत्रकारिता और पत्रकार दोयम दर्जे के नागरिक थे, जिन्हें
सियासी और नौकरशाहों ने गलियारे के बाहर भी जगह नहीं दी
जाती थी। बहरहाल पत्रकारिता के इस कबीर पुरुष ने अपनी
स्पष्ट सोच और ईमानदार लेखनी के जरिए आगे कदम बढ़ाया तो
फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक छोटे से शहर से आए
प्रभाष जी ने न सिर्फ महानगरों दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद,
चंडीगढ़ में अपनी लेखनी की धाक जमाई बल्कि उन्होंने
हिंदी के साथ ही अंग्रेजी में भी उसी धार के पैनेपन को
बनाए रखा।
वैसे
तो उनके लेखन के बारे में कुछ लिखना सूरज को रोशनी
दिखाने की तरह होगा, लेकिन जिन्होंने उनके साथ काम किया
है वो बताते हैं प्रभाष जी स्पष्ट सोच वाले व्यक्ति थे।
वो कहते थे हर मामले में पत्रकार का स्पष्ट नजरिया होना
चाहिए यानि अगर पत्रकार के दिमाग में कोई संशय है तो
पहले वो उसे दूर करे उसके बाद ही लिखने बैठे, क्योंकि जब
तक सोच साफ नहीं होगी तब तक पत्रकार को न शब्द मिलेंगे
और न ही रास्ता। प्रभाष जी हमेशा ही कुछ नया करने की
सोचते रहते थे। मुझे याद है, कई साल पहले जब विस्फोट
होते थे तो और अखबारों की हैंडिंग होती थी "फलां जगह बम
विस्फोट, इतने मरे" जबकि उसके विपरीत जनसत्ता में हैंडिग
होती थी, "फलां जगह बम फटा" । बम फटा शब्द में ही लोगों
को धमाके का अहसास हो जाता था। इसी तरह एक शिक्षक नौकरी
जाने पर और अखबारों की हैंडिग थी "नौकरी जाने से शिक्षक
परेशान" जबकि जनसत्ता में हेडिंग लगी "शिक्षक के पेट पर
लात"। यानि शब्दों का चयन और उसका उपयोग कोई प्रभाष जी
से ही सीखे।
यहाँ
अगर गाजियाबाद में जनसत्ता अपार्टमेंट का जिक्र न करें
तो थोड़ा बेईमानी होगी। इसी अपार्टमेंट के "ए" ब्लाक में
प्रभाष जोशी काफी समय से रह रहे थे। अपार्टमेंट में
ज्यादातर पत्रकार बिरादरी के ही लोग हैं। अचानक बाबू जी
के जाने से यह बिरादरी तो दुखी हैं ही, यहाँ के बच्चों
को दादा जी खूब याद आ रहे हैं..। धोती कुर्ता पहने जैसे
ही प्रभाष जी अपार्टमेंट के गेट से अंदर आते दिखाई देते
थे, सारे बच्चे उनकी ओर देखने लगते थे। बच्चों को पता
होता था कि दादा जी बिना टाफी चाकलेट दिए लिफ्ट में नहीं
चढेंगे और बच्चे उनकी ओर दौड़ लगा देते थे। बहरहाल १8
साल पहले राजेन्द्र माथुर की असमय मौत ने पत्रकारों को
हिला कर रख दिया था.. और अब प्रभाष जी का खामोश हो जाना
उन्हें साल रहा है.. लेकिन हम कलम के पुजारी हैं, इसलिए
दावे के साथ इतना तो कह ही सकते हैं कि बाबू जी, हम
तुम्हें मरने न देंगे, जब तलक जिंदा कलम है।
९ नवंबर २००९ |