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"मेरी बेटी है वैदेही, कुछ तो मेरा लेगी ही।" काले कलूटे रंजन दा साँवली सलोनी वैदेही पर पूरी तरह से मुग्ध थे और अपनी ही रौ में बोले जा रहे थे। रंजन दा को इतना खुश कभी नहीं देखा था प्रणव ने। आख़िर क्यों न हों, कहते हैं छोटी उम्र की बीबी से शादी करके बुढ्ढ़ा आदमी भी जवाँ हो जाता है फिर गौरी तो पूरे बीस साल छोटी थी उनसे। जिन्हें साधु समझता था वही रंजन दा राक्षस निकले, उसीकी सीता को चुराकर ले गए-- किस अशोक वन में डाल दिया है इन्होंने इसे, पर यह जघन्य अपराध हुआ तो हुआ कैसे? अचानक अपने गुरु शेखर दा के प्रति बरसों से बैठी सारी श्रद्धा उड़न छू हो गई थी प्रणव के मन से। क्या गौरी की मर्ज़ी से भी हुई थी यह शादी? क्या पता औरतों का मन वैसे ही बहुत चंचल होता है-- प्रणव के लिए अब और वहाँ बैठना मुश्किल हो चला था और तब फिर से आने का वादा करके चुपचाप चले आए थे वह वहाँ से उठकर, बिना शरबत का गिलास पिए, बिना नमस्ते कहे और बिना ही गोल मटौल सुंदर-सी वैदेही की गोदी में लिए या प्यार किए। गौरी और रंजन दा दोनों ही आए थे कार तक छोड़ने, बस वही किसी से आँखें नहीं मिला पा रहे थे।

उसके बाद उनकी मुलाक़ात गौरी और रंजन दा से अगले वर्ष उसी दुर्गा कुंड के पूजा-पंडाल में ही हुई थीं। वैदेही दौड़ने भागने लगी थी और गौरी पूरी तरह से अपनी घर गृहस्थी में रम चुकी थी। माँ से बहुत अच्छी दोस्ती थीं गौरी की। पूजा की सारी तैयारी उसी के हाथ में रहती थी। यों तो वह भी घर-गृहस्थी में पूरी तरह से रम चुके थे पर जब भी माँ और गौरी को दुर्गा मंदिर की सीढ़ियों पर एकसाथ बैठे देखते तो मन के अंदर का एक चोर कोना बुरी तरह से आहत होकर कराहने लग जाता। आख़िर चार साल से कुंडली मारकर बैठा वह प्रश्न फुफकार ही उठा था गौरी को अकेले देखकर उस दिन। वहीं घर के आगे दुर्गा कुंड की सीढ़ियों पर ही रोका था प्रणव ने गौरी को। क्या तुम खुश हो गौरी? कभी हमारे बारे में भी सोचती हो क्या? बहुत ही दयनीय और विचलित लग रहे थे प्रणव बैनर्जी उस समय। अब रोए कि तब। मानो उत्तर नहीं, सहारा माँग रहे हों गौरी से। और तब बहुत ही दृढ़ और ठहरा हुआ जवाब दिया था गौरी ने उन्हें, बिल्कुल अपने स्वभाव की ही तरह। जिंद़गी सोचने नहीं, जीने के लिए होती है भास्कर। कर्म करना ही हमारे बस में है, और कुछ नहीं। और फिर बादल और भिखारी की कैसी ज़िद, कैसा मान-सम्मान? ना ही तब कुछ समझ पाए थे प्रणव बैनर्जी और ना ही आजतक जान पाए कि उन्माद और अनुराग के उस छोटे से एक पल में क्या समझा दिया था गौरी ने उन्हें और खुद को।

अब तो पूरे तीस साल हो चुके थे रंजन दा को उस अभागन से शादी किए हुए। गौरी के किसी काल सर्प ने अभीतक तो उन्हें नहीं ही डँसा था, बल्कि पहले से भी ज़्यादा स्वस्थ और सुखी लगते थे वे। माँ से ही गौरी की सारी ख़बर मिलती रहती थी उन्हें। अभी पिछले महीने ही बेटी वैदेही की भी शादी कर दी है गौरी ने एक सुगढ़ और धनाढय बंगाली परिवार में। माँ ने लिखा था वर बहुत ही सुंदर और सुयोग्य है और उन्हीं के कहने पर गौरी पत्री-वत्री के पचड़े में भी नहीं पड़ी थी। क्या रखा है इन बातों में, बिना बात ही अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाते हैं। माँ की चरण रज लेकर विवाह के काम शुरू कर दिए थे। वे ही सब सँभाल लेंगी सब हँसकर बस इतना ही कहा था गौरी ने। और सब सँभाल लिया था माँ ने जैसे कि गौरी को सँभाल लिया था। और फिर सँभालती भी क्यों न, पिछले तीस साल से निर्जला व्रत करती है माँ का। पूजा के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती है वह। माँ ने ही बताया था कभी उसे यह सब और यह भी कि कैसे पत्री वाली बात की वजह से हुई बदनामी की वजह से कोई भी शादी नहीं करना चाहता था गौरी से। और तब गौरी की माँ के आँसू नहीं देखे गए थे उनसे। और उन्होंने खुद ही जैसे तैसे राजी किया था शास्त्री जी को शादी के लिए। कहा था उनसे कि सोचते क्या हो अब, घर में रोटी बनाने वाली आ जाएगी, बुढ़ापे का सहारा रहेगी। आपका घर बस जाएगा और अभागिन के माथे का कलंक मिट जाएगा। शास्त्री जी तो राज़ी हो ही गए थे, उसने भी कोई ना-नुकुर नहीं की। गौरी तो वाकई में गऊ निकली। एक आपत्ति नहीं की, जिस खूँटे से बाँधी, चुपचाप बँध गई। कहाँ होती हैं आजकल ऐसी शांत लड़कियाँ, वह भी इतनी पढ़ी-लिखी, गुणी और संस्कारी। शास्त्री जी आजतक बहुत ही खुश हैं गौरी के साथ। उनके तो मानो पिछले जन्म के पुण्य ही उदय हो गए हैं। जी जान से पति की सेवा करती है अपनी गौरी - हमारे भी हर सुख-दुख में भी, यही तो काम आती है-- हर ज़रूरत हारी-बीमारी पर तुरंत ही आ खड़ी होती है आँगन में। मानो पिछले जनम की बेटी या घर की बहू हो।

अच्छा तो माँ ने अब तक रिश्ता जोड़ ही लिया कुलच्छिनी के साथ। प्रणव की आँखें आँसुओं में डूबी हुई थीं, लिखे से भी ज़्यादा अनलिखा छू और विचलित कर रहा था उन्हें। समझ में नहीं आया कि हँसे या रोएँ - नहीं जानते थे वे कि माँ की उस एक नादानी जिसने मन को बस एक रिसता नासूर बना दिया था, भला कैसे और कब माफ़ कर पाएँगे वह?
ठीक सामने नंदिता और तन्मय दोनों ही बैठे थे। चुपचाप ही, आँखें चुराकर डबडबाई आँखें पोंछ डालीं उन्होंने-- जेब में रखे रूमाल तक का ध्यान नहीं रहा उन्हें। विचलित करने वाला वह सपना भी तो कुछ ऐसे ही, गौरी की यादों की तरह ही भुलाए नहीं भूल रहा था। गौरी की तरह ही, आस्था और विश्वास पर प्रश्न चिह्न लगाए जा रहा था। खुद अपनी माँ से, उसके आँचल से दूर लिए जा रहा था उन्हें-- एक ऐसी पश्चाताप की आग में झोंक रहा था उन्हें जिससे बाहर आने को आजीवन झटपटाते रहे हैं वह। कभी गौरी का चेहरा माँ के चेहरे में तबदील हो जाता, तो कभी माँ का नंदिता के में। इंग्लैंड से भारत और फिर दिल्ली से बनारस तक का वह सफ़र एक ऐसे ही व्यग्र उहापोह में ही बीता था उनका।

घर के दरवाज़े पर हमेशा की तरह ही, अल्पना और मंगल दीप जलाकर ही स्वागत किया था माँ ने उनका, पर दिए की लौ की वह ललक माँ के चेहरें पर नहीं दिखी थी प्रणव को आज। पोपले मुँह की बिना दांतों की मुस्कान और झुर्रियों भरी खाल के साथ झूलते हाथ, उसी सपने वाली बूढ़ी देवी माँ की याद दिला रहे थे उन्हें। बाबा तो माँ से भी ज़्यादा बूढ़े दिख रहे थे। उम्र के बढ़ते शिकंजों ने कमर ही नहीं, उनके मन तक तो तोड़ दिया था। पाँच मिनट सीधे खड़े तक नहीं रह पाते थे वे तो- कोई उल्लास, कोई ललक नहीं थी उन रीती आँखों में। चारपाई पर लेटे-लेटे गीता हाथ में लिए, सीलिंग को घूरते रहना बस यही एक दिनचर्या थी उनकी। माँ सुबह सात बजे टी.वी. खोल देतीं तो वह भी रात के ग्यारह बजे तक उनके आगे बेमतलब ही चिल्ला-चिल्लाकर सो जाता पर सूनी थकी वे आँखें न सो पातीं। अब मैं इन्हें अकेला नहीं छोड़ सकता, प्रणव ने निश्चय किया।

"पर हम अकेले कहाँ हैं? यह गौरी है न हमारे पास।"
मानो माँ ने बेटे की आँखों के दर्द को पढ़ लिया था, माँ झट से पल्ले से आँसू पोंछते हुए बोली थीं,
"हमारे हर सुख-दुख की साथी।"
"और फिर बनारस और दुर्गा माँ को छोड़कर कहाँ जाएँगे हम अब? लोग तो जाने कहाँ-कहाँ से मरने के लिए काशी आते हैं और हम कहीं और जाएँ, नहीं, ऐसा नहीं होगा।" बाबा बीच में ही माँ की बात काटकर बोल पड़े थे।

इसके पहले कि वह कुछ जवाब दे पाए, शब्दों के दुख से उबर पाए, गौरी चौके से तीर की तरह आई और बाबा को आराम कुरसी पर बिठाकर चाय का प्याला पकड़ा गई थी। बड़ों को चुप और शांत करने का इतना अच्छा तरीका तो पहले कभी नहीं देखा था उन्होंने। कितनी समझदार हो गई है यह गौरी- प्रणव ने ध्यान से गौरी को देखा। कुछ भी तो नहीं बदला था, वही कद काठी, वही विश्वसनीय आँखें और वही पुरानी आश्वासन देती मुस्कान। बस इक्की-दुक्की बालों में गुथी चाँदी की लकीरें ही गुज़रे वक्त की साक्षी थीं। उनके खाने पीने का, कमरा ठीक करने का, सब इंतज़ाम गौरी ने ही तो किया था। प्रणव को लगा कि उनसे भी ज़्यादा माँ और बाबा की सगी हो चुकी थी गौरी। और तब पहली बार प्रणव अपने मन के बीहड़ में जा छुपे थे, हर दुख-दर्द, एक-एक पछतावे और आँसू की गठरी साथ लेकर। सभी ने तो गौरी को पा लिया था सिवाय उनके। उद्वेलित मन फूट-फूट कर रोना चाहता था, शिकायत करना चाहता था अम्मा बाबा से, खुद गौरी से भी, परंतु पचास वर्षीय प्रणव बैनर्जी ने खुद को, एक बार फिर से सँभाल ही लिया।

उस शाम मंदिर में अष्टमी की पूजा थी। पंडाल फूलों से सजा हुआ था। गेंदा, गुलाब और चमेली की मालाओं ने माँ के भव्य गोल गुंबद को पूरी तरह से ढक दिया था। अशोक की पत्तियों में गुंथे गुलाब और बेले के फूल वातावरण को भीनी-भीनी और अनूठी गंध दे रहे थे। धूप-दीप और अगरबत्ती के साथ दिए में जलती वह घी और सामग्री की महक दूर गली तक जा फैली थी। माँ का अभूतपूर्व शृंगार हुआ था आज। कल विदा जो थी। गुलाबी गोटे की साड़ी, हरा किमख़ाब का ब्लाउज़। माथे पर झूमर और माथा पट्टी। नाक में नथ, होठों पर लाली और बड़ी-बड़ी मुस्कुराती आँखों में वह मनोहारी काजल की लकीर। पैरों में पायल व आलता और मेहंदी लगे हाथों में कलाई भर-भरकर चूड़ियाँ। प्रणव की आँखें टिक नहीं पा रही थीं, न माँ पर और ना ही गौरी पर। गौरी भी तो आज पूरे ही शृंगार में थी। उसने भी तो गुलाबी गोटे वाली साड़ी ही पहनी थी। नथ, माँग टीका, सब लगाए थे। याद नहीं रहा उन्हें कि परसों ही, सप्तमी की पूजा पर सिंदूर दान के बाद माँ ने ही यह गुलाबी साड़ी गौरी और नंदिता, दोनों को दी थीं। और दिए थे टीका, चूड़ी, बिंदी, पायल, आलता सभी कुछ। बरसों के बाद उस दिन प्रणव के तबले पर अपने सितार के साथ जुगलबंदी की थी गौरी ने। भैरवी, जैजैवंती से लेकर दीप और हिंडोल राग तक, डूब गए थे वे दोनों एक दूसरे में, सब कुछ भूल और भुलाकर। मानो अपने-अपने शरीरों से निकलकर दो आत्माएँ एक दूसरे के मन में राधाकृष्ण-सी जा बैठी थीं। दूर बैठकर भी दोनों के बीच कोई दूरी नहीं थी।

अचानक प्रणव बैनर्जी उठे और धनुचि हाथ में लेकर माँ के आगे नाचना शुरू कर दिया। बरसों बाद आज बहुत खुश थे वह। ढाक, मृदंग और पखवाज़ की आवाज़ें तेज़ होती चली गईं और साथ में ही लय में झूमते उनके पैर भी। शरीर में आज किशोरों-सी फुर्ती थी। धुएँ के बादल सर के ऊपर, कंधों पर, मुँह के चारों तरफ़ सफ़ेद रंग के कई-कई चक्र पर चक्र बना रहे थे। गोरे वक्ष पर काले बालों के बीच चंद सफ़ेद बाल पसीने की बूँदों में भीगे सोने से चमक रहे थे और सावन में झूमते मयूर से प्रणव अपनी दोनों बाहों को ऊपर उठाए, सधे नर्तक और साधक की तरह घूम-घूमकर कलैयाँ लिए जा रहे थे। पसीने की बूँदें अब धार बनी झरते पंखों-सी झर रही थीं और हाँफती साँसों की उनकी जयजयकार माइक से होकर पूरे ही पंडाल में गूँज रही थी। होश नहीं था उन्हें आज कुछ भी। नियोन की लाल पीली नीली हरी सतरंगी आभा फेंक रहे बल्ब, लटकी माला से गोरे चिट्टे तन को एक नयी आभा और रूप दे रहें थे और गौरी की आँखें अलौकिक रूप की एक-एक छवि मन में उतारें जा रही थी। एकटक देखती गौरी की आँखों में आज कोई शरम या लोकलाज नहीं थी। हाथ में झाँझ लिए गाती गौरी पूरी मीरा ही तो दिख रही थी उस वक्त। माई मैंने गोविंद लीन्हो मोल, कोई कहे सस्तो कोई कहे महँगो, लीन्हो तराजू तोल -- उनकी भटकती आत्माओं से ही, दोनों की आँख से बहते आँसू ज़मीन पर कहीं मिलकर अब एक हो चुके थे। बंद पलकों के अंदर पलता वह सपना आज किलक-किलक कर कुलाचें ले रहा था। माँ जब भी आती हैं, नयी शुरुआत लेकर आती है और जाती हैं तो भक्तों की झोली में सबकुछ डाल जाती हैं और उन दोनों ने तो, भिखारियों-सी मन की रिक्त झोली माँ के चरणों के नीचे बिछा दी थी।

पूजा के उस शोर-शराबे में किसी ने नहीं देखा या जाना उनके उस हठ और पागलपन को, सिवाय नंदिता के जो अब घर वापस लौटने के लिए बेचैन थीं। घर आकर माँ ने बेटे की एक शिशु की तरह नज़र उतारी और पत्नी ने रातभर पैर दबाए, फिर भी ताप के सन्निपात में रातभर जाने क्या-क्या बड़बड़ाते रहे थे प्रणव बैनर्जी। माँ और नंदिता को दुर्ग महा काली माँ गौरी जैसे शब्दों के अलावा कुछ भी तो समझ में नहीं आ पाया था - या फिर शायद वे समझना ही नहीं चाहती थीं-- तरकस से निकले तीर की तरह वक्त को वापस भी तो नहीं लाया जा सकता? निश्चय ही माँ आ गई हैं सर पर, ऐसा कहकर माँ ने मंदिर से औघड़ और ओझा तक को बुलवा लिया था बेटे की झाड़-फूँक के लिए।

सुबह माँ की विदाई का समय था। बेटी की विदाई की तरह ही हर आँख भीगी हुई थी और पंडाल में भोर से ही एक व्यस्त चहलकदमी थी। कहीं प्रसाद बन रहा था तो कहीं रथ सज रहा था। सवारी उठाने वाले लड़के माथे पर चंदन और तिलक लगाए प्रतिबद्ध प्रतीक्षा कर रहे थे और सध्य-स्नाता सुहागिनें के लंबे काले बालों से टपकी गंगाजल की बूँदें वातावरण में आचमन और संकल्प-सा-- पूजा का एक पावन माहौल बना रही थीं। पुष्पांजलि के उस सौम्य पल में, सुबह-सुबह ही सभी श्रद्धालु पंक्तिबद्ध हाथ जोड़े खड़े थे।

कुंड के किनारे से, अस्सी और वरुणा से, राजा दरवज्जे के कोठे से, हाथी की सूँड से, सूअर के दाँत से और जाने कहाँ-कहाँ की मिट्टी से बनी और जुड़ी वह माँ की प्रतिमा सजीव थी आज। आँखें चंचल थीं और कुछ कहना चाह रही थीं। पुजारी पारी-पारी से हथेलियों पर पुष्प रख रहा था और श्रद्धालु माँ के चरणों पर अर्पण कर, अगले के लिए जगह छोड़, आगे बढ़ते जा रहे थे। माँ, नंदिता, गौरी, तन्मय, वैदेही सभी ने विधिवत श्रद्धांजलि दी थी पर प्रणव की पारी आते ही गदगद वह माँ के पैरों में लेट गए। आँखें उठीं तो सामने माँ की प्रतिमा में गौरी थी-- वहीं आँखें, वहीं मुस्कुराहट, सँभल पाना मुश्किल ही था अब। और तब बहते आँसुओं से ही पैर पखारने लगे वह माँ के। "या तो मुक्ति दो मुझे इस प्रीत और राग से या फिर स्वयं में लीन करो। और नहीं सहा जाता यह बिछोह मुझसे।" हिचकियों में डूबी आवाज़ फसफसी और अस्पष्ट थी। फूलों को चरणों में छोड़, अष्ट भुजाओं की तरफ़ बाहें फैला दी थीं अब प्रणव बैनर्जी ने। गौरी और नंदिता दोनों ही उनकी तरफ़ लपकीं और इसके पहले कि वह पागलपन एक तमाशे में बदले, वहाँ से उठाकर घर ले आई थीं उन्हें।
"आज तुम्हारी तबियत ठीक नहीं। रात भर के सोए नहीं हो। अब कहीं नहीं जाना, बस आराम करो।" ज्योतिर्मयी की आवाज़ सख्त़ और बेटे के लिए चिंतित थी। परंतु प्रणव को कौन रोक सकता था अब-- आज गौरी में माँ, और माँ में गौरी नज़र आई थीं उन्हें। पर न माँ को बाहों में ले सकते थे वे और न ही गौरी के चरणों में बैठकर पूजा कर सकते थे। माँ का विसर्जन हो चुका था और गौरी कबकी अपने घर जा चुकी थी।

एक बार फिर अपनी ही सोच की भँवरों में डूब चुके थे वे। अपने ही विकारों में घूमते-घूमते दम घुट रहा था उनका। पर कीचड़ से उगे कमल के फूल-सा मन हमेशा से ही इस देह के अंदर रहकर भी, देह से परे ही तो रहता है। इसे कौन सा बंधन, किस दूरी ने रोका है कभी? और मन के इसी गुण ने उबार लिया उन्हें तब। संसार में रहकर भी लिप्त नहीं हो पाना कभी, कैसे सीखा गौरी तुमने? आँख के आँसुओं को पोंछता उनका मन गौरी के बगल में जा बैठा था। उससे बस एक यही सवाल पूछे जा रहा था।

अनजान गुत्थियों को सुलझाता, धरती आकाश के बीच कहीं अपनी ही दुनिया में भटकता उनका मन, बस यही एक ऐसी गुत्थी थी जिसे नहीं सुलझा पा रहा था पर कभी टूटे नहीं थे वह। उनका हठी मन अक्सर ही उन्हें एक ऐसी दुनिया में ले जाता था, जो कि दूसरों के बनाए नियमों पर नहीं, स्व-निर्धारित मूल्यों और संकल्पों की धुरी पर ही घूमना जानती थी। एक ऐसी दुनिया जो कि रात-दिन को अँधेरे और उजेरे की धूनी पर बिठाकर एक अनूठी ज्योति जला देती थी उनके अंतस के तमस में। मन में बसे इस संसार में जहाँ कई अपने थे, हमेशा साथ रहते थे कई ऐसे अनाम और अनजान चेहरे भी थे जिन्हें देखने और पहचानने को उनका व्यग्र मन ललकता ही रह जाता था, पर वे अधगढ़ी मूर्तियाँ कभी भी स्पष्ट और साकार रूप लेकर सामने न आतीं, बस मरु में चमकते कनों-सी छलती और भरमाती ही रह जाती। यह दुर्गा माँ भी उस अनंत का ऐसा ही एक रूप है क्या? छी, छी क्या सोच रहे हैं वह-- प्रणव बैनर्जी ने अपनी राक्षसी सोच को धिक्कारा और संयम की लगाम से रोक लिया।

इसका यह अर्थ नहीं कि जीवन संयमहीन, अराजक और अतृप्त था उनका। बेहद धैर्यवान सुलझे और सधे स्वभाव के थे प्रणव बैनर्जी। जो मिल गया, या जिसे अपना कह दिया, उससे ही खुश रहना भलीभाँति आता था उन्हें भी। नियतिवादी नहीं थे वे, पर सब्र करना बचपन से ही सीख लिया था उन्होंने। बस थोड़ी-सी ज़िद और एक हठी आग्रह था उनकी सोच में-- मन के बहुत ही पक्के थे पर वह, संयम की लगाम से कसकर रखते थे खुद को। चीज़ों को त्याग तो सकते थे पर खुद को बस काट कर अलग नहीं कर पाते थे प्रणव बैनर्जी। मन में कुछ ठान लिया और सही लगा तो चल पड़ते थे उसी राह पर, फिर चाहे पथ में कितने भी आँधी-तूफ़ान आएँ, परवाह नहीं थी उन्हें इसकी। असल में एक विरोधाभास का नाम था प्रणव भास्कर बैनर्जी- एक उलझी हुई गुत्थी थे, बेहद समझदार दिखते प्रणव भास्कर बैनर्जी।

स्थिति जब असह्य हो चली तो महाकाल की उस अर्धरात्रि में ही बिस्तर से उठकर बाहर आ गए वे। कदम स्वत: ही गौरी के घर तक ले गए थे उन्हें पर एक भी आवाज़ नहीं दी थी उन्होंने, इतना होश और संयम था अभी उनके पास। घंटों दरवाज़े को फूलों से सजाने के बाद प्रणव बैनर्जी एकबार फिर उठे और घर से दस कदम दूरी पर बसे अस्सी घाट की कीचड़ लगी सीढ़ियाँ उतरने लगे। गंगा की मटमैली लहरों में डूबे, आज शरीर ही नहीं आत्मा तक को धो देना चाहते थे वे। रात के उस अँधेरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझता, किनारे पर बँधी रस्सी की वह कसी गाँठ तक खोल डाली थी उन्होंने और नाव खुद ही खेते-खेते मझधार तक चले गए थे-- वहीं, जहाँ सुबह-सुबह माँ का विसर्जन किया गया था। परेशान आँखें माँ को ढूँढ़ रही थीं और होठ गौरी को आवाज़ दे रहे थे। ऐसी ही आँसुओं में डूबी पूरी वह रात, नाव खेते-खेते और माँ को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते ही निकाल दी थी उन्होंने। किनारों पर जलती लाशों की उस धुँधली रौशनी में कहीं तो गंगा की लहरों पर तैरते बुदबुदे थे तो कहीं फूल, पत्ती और बेलपत्र- बस और कुछ नहीं।

कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा उन्होंने? कहीं अधजला मुर्दा दिख रहा था तो कहीं तैरता मरा कुत्ता। फूल पत्ती कौवा बिल्ली सब दिख रहे थे पथराई आँखों को सिवाय देवी माँ के। गंगा की लहरों के बीच विलुप्त हो चुकी थीं वे। अधीर प्रणव के बहते आँसू भी वापस नहीं ला पा रहे थे माँ को अब। सूरज की पहली किरन के साथ ही अचानक उनके मन की व्यग्रता ने ढूँढ़ ही निकाला था उन्हें। गंगा के दूसरे किनारे पर कमर तक कीचड़ में फँसी माँ की वह मूर्ति मानो आठों बाहें फैलाए बस उन्हीं का इंतज़ार कर रही थीं। किरन का प्रकाश सीधा मुकुट और चेहरे पर था और देवी के रूप की उस आभा से पूरा का पूरा गंगा का पाट जगमग कर रहा था। प्रणव ने दौड़कर मूर्ति को बाहों में भर लिया। पागलों की तरह दुलारने लगे उसे। गोदी में सर रखकर बच्चों की तरह एकबार फिर फूट-फूट कर रोने लगे वे, "वादा करो अब मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाओगी गौरी।"

पता नहीं थके मन का भ्रम था या फिर सन्निपात का असर, माँ की वह मूर्ति हिली और एक आँसू मूर्ति की बायीं आँख से गिरकर उनकी सूनी हथेली पर फैल गया। मूर्ति अब हाथों से फिसलकर दूर मझधार की तरफ़ बही जा रही थी। गंगा की जिस लहर ने मूर्ति को वहाँ उनके लिए रोककर रखा था, अब वही उन्हें उनसे दूर बहा ले जा रही थी। पहले गर्दन फिर हाथ-- एक-एक करके सब डूब रहे थे- धीरे-धीरे हिलते डुलते, मानो अगले साल फिर आने का वादा कर रही थीं माँ।

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१६ अक्तूबर २००५

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