''अरे
तुम्हारे खड़े कान अब भी उतने ही लाल है?'' पास आने पर मैंने
उसे छेड़ा।
उसके अधर जैसे चौड़े और फैल गए और नैनों में कातरता थोड़ी और
पसर गई। उसकी यह अर्ध-मुस्कान मैं सालों से ऐसे ही देखती आई
हूँ, जब से रायन, महाप्राण के चरणों के प्रति भक्ति-भाव से
आकर्षित हो, यूरोप का ब्रायन्ज नगर छोड़, दार्जिलिंग में
सोनताल के निकट, बौद्ध मंदिर की सेवा में रत है।
''आज नदी के
पास टहलने जाओगी?'' चलो, मैं साथ ले चलता हूँ। तुम्हारे मनभावन
रंगों में बहुत से कमल खिले हैं इस साल।''
''तुम्हें आज हिंदी पढ़ने नहीं जाना है क्या गोलचौक?''
''जाना तो था, पर कल की भीषण वर्षा के कारण, आज बच्चे नहीं बैठ
पाएँगे वहाँ।''
''अच्छा, तो इसलिए आज इतनी नर्म धूप खिली है मेरे घर।''
मेरी हँसी की
खनक से रायन के कान, उस क्षण मानो और लाल हो उठे- जैसे ये
लालिमा उसके कानों से होते हुए उँगलियों तक रंग एवं उष्णता
उकसा रहें हो। ऐसी स्थिति में वह सदा ही पैरों के अंगूठे से
मिट्टी कुरेदता शांत खड़ा हो जाता है। छोटी-छोटी हरी पत्तियों
वाली बड़ी-बड़ी बेलों की छाया में हम चलते-चलते माल रोड की ओर
निकल पड़े। दार्जिलिंग की वही चिर-परिचित राहें- मटकती,
लचकती-सी।
अंतर्मन में
उठने वाली भावनाओं के बारे में अंतिम रूप से कुछ कह पाना,
मैंने हमेशा ही कठिन माना है। रायन के प्रति मेरे मन में प्रेम
प्रकट नहीं हुआ या मैंने उसे स्वयं कार्यभार का बहाना खोज दबा
दिया था यह मुझे आज तक पता नहीं चला। शायद कोई कोमल इच्छा मेरे
पाषाण-ह्रदय में जन्म ही नहीं ले सकती, पर इस विषय में भी
सोचने का समय नहीं मिला। ये बातें मन के किसी धूल भरे कोठों
में बरसों से बेकार पड़ी थी। रायन बौद्ध भिक्षुक था और मैं
समाज सेविका फिर दोनों के बीच ऐसे किसी सूत्र का जन्म लेना
बहुत स्वाभाविक तो नहीं था। पग पग पर आशंकाएँ जन्म लेतीं और
हमारी भौगोलिक पृष्ठ भूमियों में भी तो कितनी दूरी थी। क्या हम
सामान्य जीवन जी सकते थे। फिर भी लगता कि शायद हम प्रेम की ओर
पग बढ़ा रहे हैं। क्या रायन भी ऐसा सोचता होगा?
कभी-कभी मन में उठने वाले भाव कितने सच हो जाते हैं या
कैसे सच हो जाते हैं, यह सोचते सोचते उद्विग्नता आ घेरती है।
छोटी-सी
दुकान के सामने बैठे, चाय पीते, रायन ने मेरे कलकत्ता के
हस्पताल के काम और मेरे स्वतंत्र लेखन के बारे में पूछा। ऐसी
व्यक्तिगत बातें हमारे बीच हाल ही में शुरू हो गयीं थीं।
संध्या तक होती बातचीत में रायन अपने पढ़ाने के बारे में,
विहार में खिले बड़े-बड़े पत्तों पर विराजे कमलों के बारे में
और दार्जिलिंग के नित नए बदलते रंगों के बारे में ही बताता
रहा। उसकी बातों और मेरी चुप्पी में जब अंतराल लंबा होने लगता।
तब साँझ की सुंदर अरुणाई, अपनी ओर खींच कर, बीच की असहजता कम
करती जाती। हम दोनों के जीवन का अकेलापन एक और कारण था जो हमें
पास ले आता।
''तुम फिर
ब्रायंज क्यों नहीं लौट जाते रायन? वहाँ जाकर पिता के साथ फलों
के उत्पादन में सहयोग दे सकते हो। तुम्हारा मन भी लगा रहेगा।
यहाँ क्या रखा है रायन अजनबियों के बीच?''
मेरा यह कथन
उसे असहज ही नहीं छोड़ गया, अपितु उसकी आँखों में तरल-सा, बहती
हुई चाँदनी का भ्रम भी हुआ मुझे।
''अपनों का साथ क्या सबके भाग्य में होता है कही?'' अपने ह्रदय
में छिपा प्रेम, रायन कभी भी मुखरित नहीं कर पाएगा, ऐसा अनुभव
तो था, किंतु यह बात शूल बनकर इतने बरसों तक उसका ह्रदय भेदती
रहेगी, इसका भान शायद मैं नहीं कर पाई। मेरे लिए भी मुख खोलकर
कुछ साफ साफ कहना कहाँ संभव हुआ। हम दोनो के ही लिए हमारा काम
हमारी कामनाओं से ऊपर था।
समय का बहाना
बना कर घर तो चली आई, पर अब सोचती हूँ कि क्या रायन के प्रति
चुप रह कर मुझसे कोई भूल हो गई? क्या
प्रेम मार्ग पर न चलने वाले निष्ठुर होते हैं?
पुरुष-संग बिना क्या जीवन जीना असंभव ही रहेगा? जीवन-दर्शन
क्या किसी को अपनाकर केवल प्रेम दर्शाने में है? क्या अन्य
रास्ते हीन होने की श्रेणी में आते हैं? क्या स्त्री-पुरुष का
प्रेम ही शाश्वत सत्य रह गया है? प्रेम अगर मनुष्यता के नाते
हो तो क्या वह हीन या गौण हो जाता है?
''दीदी, शीत
टा औनेक बेढ़े गेछे माँ। एकटु शान'' लिए बौशो, चा खाबेल की?
कोरे देबो एकटू?'' (दीदी ठंड बढ़ गई है, साल ओढ़ कर बैठे। क्या
चाय पिएँगे? बना दूँ?) मिश्री से घुले शब्दों ने, मुझे
अपनी बंगाली-भाषी परिचारिका, अभिन्न साथिन मालती की ओर जो
मोड़ा, तो लगा ज्यों शरीर में लहु की गति धीमी पड़ी है-
अलसायी-सी। मालती का जीवन जिस ज़िद का प्रवाह लिए बहा है, वह
अक्षुण्ण सत्य बन कर रहा है मेरे साथ। सदा साथ रहने की उसकी उस
ज़िद ने मेरे अच्छे लगने या ना लगने की प्रतीक्षा नहीं की।
मेरे पढ़ने-लिखने के कमरे में बेतरतीबी से बिखरे कागज़ के
पन्नों के बीच वही स्थिर खड़ी बोल सकती है। और ज़िद की उसी एक
धारा में वह मुझे झीनी सी नीली शाल ओढ़ा गई। उसी की थी शायद।
कुछ ही देर
में देखती हूँ तो मालती गर्म चाय, और ताले-मखाने के साथ गर्म
बादाम-तेल की कटोरी लिए खड़ी थी। मेरे सर में तेल डालने की
उसकी क्रिया मेरे जीवन के हर दर्द पर लेप लगा देती। उसका यही
स्नेह शायद मेरा शरीर जिलाए हुए है अब तक। हर बार की तरह अब
मालती मुझे छोटे से गोलाकार तकियानुमा पीढ़े पर बैठाकर, बालों
में तेल लगाएगी और कहेगी- ''ए की! आपनाए चूल ता ऐकदौम शादा होए
जाच्छे, एबार आपना के प्रतिदिन तेल दिते हौबे।'' (ये क्या,
आपके बाल तो बिल्कुल सफेद हो रहे हैं, अब प्रतिदिन तेल लगाना
पड़ेगा।'') ये कहते समय, वह प्रतिदिन पर बड़ा बल देती।
जिस पिता ने
हमेशा अपनी बेटी की गठन और मिट्टी, दोनों को जग से जुदा माना
है, अपनी उसी बेटी का सत्य और दृढ़ता का तेज उन्हें हमेशा से
ही सुखातुर करता आया है। प्रातः भ्रमण के समय, माँ से कहते,
''तोषी तुम देखना, मेरी बेटी ब्याह के बाद भी वल्लरी के समान
सहारा नहीं खोजेगी, अपितु वृक्ष के समान जड़ें फैलाकर सबको
सँभालेगी।'' पिता द्वारा ब्याह प्रसंग सदा माँ को चिंता से तर
ही करता रहा। ''तुम्हारे और माही के मन-लायक पुरुष क्या विधाता
ने धरती पर बनाया भी है?'' ऐसे में जब मैं माँ से पूछती, ''माँ
क्या गृहस्थी बसाने में ही जीवन की सार्थकता है? क्या दूसरों
के कष्टों के बारे में किसी नारी का सोचना-विचारना भी पाप
है?'' तब माँ शायद यही सोचती कि मैंने स्वयं ही ब्याह की
लकीरों को अपने हाथों से मिटा दिया है और बेबस होकर साँस
छोड़ती सी उठ जाती। माता पिता का साया भी कम उम्र में सर से उठ
गया और काम में लगे हुए उस दर्द को अनुभव करने का भी समय नहीं
मिला।
अगली प्रातः
चिड़ियों के गान के साथ गर्म चाय में भीगी, दार्जिलिंग की
सुवासित हवा में मिश्री ही मिली मुझे।
''महुआ दी, आपनार फोन आछे कोलकाता थेके।'' (महुआ दी, आपका फोन
है कलकत्ता से)
मालती की आवाज़ सुन कर जब फोन लिया, तो दूसरी तरफ़ मेरे 'बाल
विकास' हस्पताल के मिश्रा जी भरी सी आवाज़ में बोले, ''महुआ
दी, अब आप हस्पताल जॉइन करने में और देर न करें। तीन ही दिनों
में मानो सब कुछ अव्यवस्थित होता जा रहा है।''
''क्यों मिश्रा जी? ऐसी क्या बात हो गई? सुहास और नकुल हैं न
वहाँ? उनके रहते चिंता जैसी तो कोई बात नहीं दिखती।''
''नहीं दी। वो ५०५ नं का जो बच्चा था न अमन... उसी वीपिंग
एग्ज़ीमा दो दिनों से बहुत ही बढ़ी हुई है पैरों में। डॉ.
सुहास कह रहे हैं कि शायद पैर ही काटने पड़ेंगे। किंतु अमन तो
बस आपसे ही मिलने की रट लगाए है और दवा भी बिना ज़ोर दिए नहीं
खाता। उसके पिता बड़े ही व्याकुल हो रहे हैं।''
''अच्छा... आप चिंता न करें, मैं कल ही आती हूँ।'' कहकर मैंने
कुछेक काम की बातें पूछकर फोन रख दिया। |