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भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन ज़रा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली।
देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए।
ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा।
घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा। सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आईं। सौतेले की दुर्दशा उनसे देखी न गई।
''इसे छोड़ दे,'' वे चिल्लाईं, ''नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी। वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा।
''किस टंकी में?'' भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया।
''मैं क्या जानूँ किस टंकी में?''

हमारे अहाते के दालान के अंतिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं। एक टंकी में नई आई खालें नमक, नौसागर व गंधक मिले पानी में हफ्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में ख़मीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था।
''बोलो, बोलो,'' भाई ने ठहाका लगाया, ''तुम चुप क्यों हो गईं?''
''चल उठ,'' सौतेली माँ ने सौतेले को अपनी बाँहों में समेट लिया।
''मैं सब जानता हूँ,'' भाई फिर हँसा, ''पर मैं किसी से नहीं डरता। मैंने एक बाघनी का दूध पिया है, किसी चमगीदड़ी का नहीं...''
''तुमने चमगीदड़ी किसे कहा?'' सौतेली माँ फिर भड़कीं।
''चमगीदडी को चमगीदड़ी कहा है,'' भाई ने सौतेली माँ की दिशा में थूका, ''तुम्हारी एक नहीं, दो बेटियाँ टंकी में फेंकी गईं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली। मेरी बाघनी माँ ने जान दे दी, मगर जीते-जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया...''
''तू भी मेरे साथ नीचे चल,'' खिसियाकर सौतेली माँ ने मेरी ओर देखा, ''आज मैंने नाश्ते में तुम लोगों के लिए जलेबी मँगवाई हैं...''

जलेबी मुझे बहुत पसंद थीं, परंतु मैंने बीमार कबूतरी पर अपनी पकड़ बढ़ा दी।
''तुम जाओ,'' सौतेली ने अपने आपको अपनी माँ की गलबाँही से छुड़ा लिया, ''हम लोग बाद में आएँगे।''
''ठीक है,'' सौतेली माँ ठहरी नहीं, नीचे उतरते हुए कह गईं, ''जल्दी आ जाना। जलेबी ठंडा हो रही हैं।''
''लड़कियों को टंकी में क्यों फेंका गया?'' मैं भाई के नज़दीक- बहुत नज़दीक जा खड़ा हुआ।
''क्यों कि वे लड़कियाँ थीं।''
''लड़की होना क्या ख़राब बात है?'' सौतेले ने पूछा।
''पिता जी सोचते हैं, लड़कियों की ज़िम्मेदारी निभाने में मुश्किल आती है।''
''कैसी मुश्किल?''
''पैसे की मुश्किल। उनकी शादी में बहुत पैसा ख़र्च करना पड़ता है।''
''पर हमारे पास तो बहुत पैसा है,'' मैंने कहा।
''पैसा है, तभी तो उसे बचाना ज़रूरी है,'' भाई हँसा।
''माँ कैसे मरीं?'' मैंने पूछा। माँ के बारे में मैं कुछ न जानता था। घर में उनकी कोई तस्वीर भी न थी।
''छोटी लड़की को लेकर पिता जी ने उससे खूब छीना-झपटी की। उन्हें बहुत मारा-पीटा। पर वे बहुत बहादुर थीं। पूरा ज़ोर लगाकर उन्होंने पिता जी का मुक़ाबला किया, पर पिता जी में ज़्यादा ज़ोर था। उन्होंने ज़बरदस्ती माँ के मुँह में माँ का दुपट्टा ठूँस दिया और माँ मर गईं।''
''तुमने उन्हें छुड़ाया नहीं?''
''मैंने बहुत कोशिश की थी। पिता जी की बाँह पर, पीठ पर कईं चिकोटी भरीं, उनकी टाँग पर चढ़कर उन्हें दाँतों से काटा भी, पर एक ज़बरदस्त घूँसा उन्होंने मेरे मुँह पर ऐसा मारा कि मेरे दाँत नहीं बैठ गए...''
''पिता जी को पुलिस ने नहीं पकड़ा?''
''नहीं! पुलिस को किसी ने बुलाया ही नहीं।''
''वे कैसी थीं?'' मुझे जिज्ञासा हुई।
''उन्हें मनकों का बहुत शौक था। मनके पिरोकर उन्होंने कई मूरतें बनाईं। बाज़ार से उनकी पसंद के मनके मैं ही उन्हे लाकर देता था।''
''उन्हें पंछी बहुत अच्छे लगते थे?'' सौतेले ने पूछा, ''सभी मूरतों में पंछी ही पंछी हैं।'' घर की लगभग सभी दीवारों पर मूरतें रहीं।
''हाँ। कई मोर... कई तोतों में अक्ल भी होती है और वफ़ादारी भी... कबूतरों की कहानियाँ उन्हें बहुत आती थीं।''
''मैं वे कहानियाँ सुनूँगा,'' मैंने कहा।
''मैं भी,'' सौतेले ने कहा।
''पर उन्हें चमड़े से कड़ा बैर था। दिन में वे सैंकड़ों बार थूकतीं और कहतीं, इस मुए चमड़े की सडाँध तो मेरे कलेजे में आ घुसी है, तभी तो मेरा कलेजा हर वक्त सड़ता रहता है...''
''मुझे भी चमड़ा अच्छा नहीं लगता,'' सौतेले ने कहा।
''बड़ा होकर मैं अहाता छोड़ दूँगा,'' भाई मुस्कराया, ''दूर, किसी दूसरे शहर में चला जाऊँगा। वहाँ जाकर मनकों का कारखाना लगाऊँगा...''
उस दिन जलेबी हम तीनों में से किसी ने न खाईं।

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२२ दिसंबर २००८

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