मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


2
जब इस शहर में अपना यह घर बनवा रहे थे सचदेव बाबू तो बहुत प्रसन्न थे कि महानगरों में दमघोंटू, विषाक्त, अजनबीयत और छल-छद्मी वातावरण से अलग इस शांत-सहज और निश्छल-निर्दोष गँवई शहर में बस रहे हैं। लेकिन अब तो महानगर की अजनबीयत की अपेक्षा यहाँ की भयावहता ने बुरी तरह से त्रस्त और परेशान कर दिया था उन्हें। ये बरसाती रातें तो उन्हें बरबादी और तबाही का साक्षात संकेत जान पड़ती थीं।

इसे दुर्योग कहें या विडंबना कि जिस बात को लेकर आदमी आशंकित बना रहता है, कभी-कभी वह बात घट भी जाती है। इस अंधेरी, तूफ़ानी, बरसाती रात में जिस बात को लेकर डर रहे थे सचदेव बाबू उसका आभास भी अब उन्हें होने लगा था। उन्हें लगा था कि गेट फाँदकर उनके दरवाज़े पर कोई चढ़ आया है। बस, उनके कान खड़े हो गए। वे उस आगंतुक की आहट लेने लगे। उनकी शंका सही थी। अब दरवाज़े पर थपथपाहट की आवाज़ भी आने लगी थी। सचमुच कोई आ धमका था।

सचदेव बाबू की पत्नी ने दबी आवाज़ में उनसे पूछा, "कौन है यह यदु मिस्त्री?"
उन्होंने भी दबी आवाज़ में ही जवाब दिया, "राज मिस्त्री है। इस मकान में काम कर चुका है। ठेकेदार के साथ आनेवाले मिस्त्रियों में एक यह भी था।"
"तो इस समय क्यों आया है। यह सब राज मिस्त्री और मजदूर अच्छे नहीं होते, घर का भेदिया होते हैं। घर के अंदर-बाहर सब कुछ इनका देखा-जाना होता है।" अपनी शंका व्यक्त की उन्होंने।
जवाब में सचदेव बाबू ने भी उनकी शंका को अपनी सहमति प्रदान की, "पिछली चोरी में इस घर के मजदूर-मिस्त्रियों का ही हाथ था। छत से बिना सीढ़ी के आँगन के रास्ते उतरने का तरीका उनके सिवा किसी को ज्ञात नहीं था।"
यदु मिस्त्री की पुकार और थपथपाहट की आवाज़ जारी थी, "सो गए हैं क्या साहब? हाकिम! इंजीनियर साहब! मैं यदु मिस्त्री हूँ, यदु!"

लेकिन सचदेव बाबू व उनकी पत्नी ने पहले ही से तय कर रखा था कि चाहे जो हो, रात में दरवाज़ा नहीं खोलना। वे जानते थे, परिचित आवाज़ में कोई एक दरवाज़ा खुलवाता है और दरवाज़ा खुलने पर उसके साथ छिपकर आए दस लुटेरे भरभराकर अंदर घुस आते हैं।
अब किसी पर विश्वास करने का समय नहीं रहा। मुसीबत और परिचय के नाम पर ही तो सब कुछ होता रहा है। उन्हें यदु की बातों में हरगिज़ नहीं आना है। ठीक इसी समय उनकी पत्नी ने भी कहा, "अपने मित्रों, रिश्तेदारों और पुलिस को फ़ोन क्यों नहीं करते हो? शायद कोई रास्ता निकल आए?"

उन्हें लगा, पत्नी भी उनकी तरह ही सोच रही है। अब वे सक्रिय हो गए। फ़ोन रखने का वास्तविक उपयोग तो ऐसे अवसरों पर ही होता है। लेकिन ये लुटेरे भी कम चतुर नहीं होते। लूट के लिए आने से पूर्व फ़ोन आदि के कनेक्शन काट चुके होते हैं। पर सचदेव बाबू को डूबते को तिनके के सहारे के भाँति फ़ोन का कनेक्शन ठीक मिला। बस, वे डायल घुमा, सजग-सतर्क हो, अपनी इच्छित जगहों पर, तत्क्षण बोल उठे धीमी आवाज़ में, ताकि बाहर यदु को उनकी आवाज़ सुनायी न पड़े। वैसे भी उनके शयन-कक्ष और कमरों की बनावट ऐसी थी कि बंद दरवाज़ों और खिड़कियों के भीतर की आवाज़ बाहर नहीं पहुँच पाती थी।

. . .

इधर बाहर दरवाज़ा थपथपा रहा और आवाज़ लगा रहा यदु मिस्त्री बारिश में पूरी तरह भीगा हुआ था। उसके कपड़े बदन से चिपक गये थे और माथे के बेतरतीब बालों से पानी की बूँदें टप-टप चू रहीं थीं। वह कुछ हाँफ भी रहा था। बारिश में भीगते और दौड़ते हुए ही वह यहाँ आया था। अपनी घरवाली को आज ही दोपहर अपने गाँव से यहाँ शहर के अस्पताल में लाया था। उसके पेट के दर्द का एकमात्र इलाज डॉक्टर ने ऑपरेशन बताया था। गाँव से जो पैसे लेकर वह चला था, वह तो चिकित्सक की मोटी फीस और महंगी सुइयों-दवाइयों में तत्क्षण समाप्त हो गए थे। फिलहाल कुछ रुपयों की उसे सख्त आवश्यकता थी। गाँव जाकर रुपये लाने का समय भी तो उसके पास नहीं। इस स्थिति में सहसा उसका ध्यान सचदेव बाबू की ओर चला आया था।

सचदेव बाबू के मकान में लंबे समय तक काम कर चुका था वह। उनके मकान निर्माण के लिए ही उसे गाँव से बुलवाया था ठेकेदार ने। शहर के मिस्त्रियों से ज्यादा काम करता था वह। नींव से लेकर छत ढलाई और प्लास्टर-फिनिशिंग तक इस मकान में कर चुका था। इस घर की एक-एक ईंट से वह परिचित था। कई जगह सचदेव बाबू जैसा चाहते थे, उनकी बात ठेकेदार नहीं समझ पाता था। लेकिन मिस्त्री होने के चलते वह जल्द ही समझ जाता था। यह देख सचदेव बाबू उस पर खुश हो उठते थे और ठेकेदार से कहते थे, "इस मिस्त्री को यहाँ से मत हटाना। इसे काम की अच्छी जानकारी है। और यह परिश्रमी भी है।"

पृष्ठ  123

आगे--

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।