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जनवरी जन्मदिवस के अवसर पर
विज्ञान साहित्य
के रचयिता गुणाकर मुले
-योगेन्द्रदत्त शर्मा
गुणाकार मुळे
नहीं रहे- यह सूचना हम जैसे उनके असंख्य प्रशंसकों के लिए बेहद
दुखद है। उन्होंने जाने का ऐसा दिन चुना जब आमतौर पर भारतीय
लोग पर्व-त्योहार की खुशी में निमग्न होते हैं। प्रसन्नता और
उत्सव के माहौल में यह शोक समाचार एक तरह से पूरी उत्सविता को
जड़ से हिला देने के लिए काफी था। यह दिन था १६ अक्टूबर २००९
का, जिसके ठीक अगले दिन दीपावली थी।
हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य लिखने में गुणाकर जी का कोई
मुकाबला नहीं था। हिंदी पाठकों के बीच वैज्ञानिक चेतना पैदा
करने और वैज्ञानिक जानकारियाँ उपलब्ध कराने के मामले उनका
योगदान अतुलनीय है। हिंदी पाठकों के मानसिक और बौद्धिक स्तर को
ऊंचा उठाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अपनी शारीरिक
अनुपस्थिति के बावजूद वह हिंदी भाषा के साहित्य और हिंदी भाषी
जनता के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रखेंगे। उन्हें हिंदी भाषी
जनता का अगाध प्यार मिला। यही वजह है कि उनकी अधिकांश पुस्तकों
के कई-कई संस्करण प्रकाशित हुए।
मैं उनके उन स्नेहभाजनों में से एक हूं जिन्हें उन्होंने किसी
भी समय पर कुछ भी कह देने का अधिकार दिया हुआ था और उनके
अनुरोध को वह अपनी व्यस्तताओं के बीच भी तत्काल पूरा करके दे
देते थे। इतिहास हो या संस्कृति, गणित हो या विज्ञान, पुरातत्व
हो अथवा समाज विज्ञान, खगोल भौतिकी हो या भूगर्भ विज्ञान,
नृविज्ञान हो अथवा जीवविज्ञान- हर विषय पर उनका अद्भुत अधिकार
था। वह इन सभी विषयों के पंडित थे। जब कभी भी हम किसी ऐसे संकट
में पड़े कि ऐसे असामान्य विषयों पर कोई लेख तत्काल देना है तब
हम उन्हीं की शरण में जाते थे और वह एक तरह से हमारे संकटमोचक
बन जाते थे। समझ में नहीं आ रहा है कि अब अगर कोई संकट आया तो
हम किसकी शरण में जाएंगे!
मुळे जी का यह आग्रह रहता था कि उनके लेख में तनिक भी कलम न
चलाई जाए। इस प्रश्न पर समझौता करने के लिए वह कतई तैयार नहीं
होते थे। पत्र-पत्रिकाओं के संपादक इस मामले में विशेष रूप से
सतर्क रहते थे। पर कभी-कभी इसका अपवाद भी हो जाता था। मुझे याद
है, नई सहस्राब्दी के अवसर पर मैंने आजकल के लिए उनसे एक लेख
लिखने का अनुरोध किया था। उन्होंने लेख दो खंडों में दिया था।
गणित का विद्यार्थी होने के नाते मैंने एक जगह डरते-डरते एक
मामूली-सा संशोधन कर दिया था- उनकी अनुमति लिए बिना। जब
पत्रिका छपकर आई तो उन्होंने लेख को अच्छी तरह से पढ़ा और वह
संशोधन भी उनकी नजरों से गुजरा। तत्काल उनका फोन आया और वह
बोले- ’’शर्मा जी, आपने मेरे लेख में संशोधन किया है। मैं
स्वीकार करता हूं कि यह चूक मुझसे ही हो गई थी और आपने बड़ी
सावधानी से उसे संभाल लिया। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। आपने मेरा
लेख बिल्कुल त्रुटिहीन छापा है। इसके लिए मैं आपको धन्यवाद
देता हूं।‘‘ उनके इस वाक्य से मुझे आश्वस्ति हुई वरना तो मैं
डर रहा था कि कहीं वह संशोधन करने पर मुझे डांट न पिला दें।
उनकी सादगी, सरलता, स्वाभिमान का कायल होना पड़ता है। हिंदी का
एक फ्रीलांस लेखक होकर जीवनयापन करना कितना कठिन है, यह किसी
से छिपा नहीं है। फिर विज्ञान जैसे शुष्क विषय पर लिखना तो और
भी कठिन है, जिसके पाठक भी गिने-चुने ही होते हैं। पर यह काम
मुळे जी ने अपना आत्मसम्मान बचाते हुए पूरी उत्कटता के साथ
किया। यह कोई साधारण बात नहीं है। एक संघर्षशील मसिजीवी होने
के साथ-साथ वह परम स्वाभिमानी भी थे। उन्होंने न अपने जीवन में
कोई समझौता किया और न लेखन में। उन्होंने ऐसे विषयों पर लिखा
जिन पर आमतौर पर हिंदी में कोई लेखक नहीं मिलता। गणित और
विज्ञान जैसे कठिन विषयों को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने के
लिए वह प्रतिबद्ध थे। पाठकों के बीच में उनकी लोकप्रियता का यह
सबसे बड़ा कारण था।
३ जनवरी १९३५ को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मुजरूक गांव
में जन्मे गुणाकर ने स्नातक और स्नातकोत्तर (गणित) स्तर का
अध्ययन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किया। ज्ञान के प्रति
अनुराग और साधना उन्हें राहुल सांकृत्यायन से मिली। १९६० से
उन्होंने गणित, विज्ञान, प्रोद्योगिकी, इतिहास, पुरातत्व,
मुद्राशास्त्र तथा संस्कृति से संबंधित विविध विषयों पर लिखना
शुरू किया। मातृभाषा मराठी होते हुए भी उन्होंने अपना लेखन
अधिकतर हिंदी में और कभी-कभी अंग्रेजी में किया। पचास वर्षों
में स्वतंत्र लेखन करते हुए उन्होंने पुस्तकों तथा
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा दूरदर्शन के माध्यम से
प्रसारित रचनाओं के रूप में ज्ञान-विज्ञान की विशाल संपदा
हिंदी साहित्य को दी।
आकाश दर्शन, संसार के महान गणितज्ञ, भारतीय विज्ञान की कहानी,
भारतीय अंक पद्धति की कहानी, प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक,
ज्यामिति की कहानी, नक्षत्र-लोक, अंतरिक्ष-यात्रा, सौरमंडल,
सूर्य, भास्कराचार्य, आर्यभट, राहुल-चिंतन, भारतीय सिक्कों का
इतिहास, हमारी राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं आदि ४० के लगभग पुस्तकें
तथा ४००० के करीब लेख उनके प्रकाशित हैं। संभवतः इससे अधिक
सामग्री उनकी फाइलों तथा कंप्यूटर में सुरक्षित हैं। यह सारा
काम उन्होंने स्वतंत्र लेखन से ही किया और कहीं नौकरी नहीं की।
वह एन.सी.ई.आर.टी., नेशनल बुक ट्रस्ट, सी.एस.आई.आर., भारतीय
इतिहास अनुसंधान परिषद आदि पुरस्कारों से सलाहकार के रूप में
जुड़े रहे तथा अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हुए।
स्वभावतः अभावों से निरंतर संघर्ष करते हुए फक्कड़पन और
मनमौजीपन में राहुल और नागार्जुन की परंपरा को आगे बढ़ाया।
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