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जुलाई पुण्यतिथि के अवसर पर भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ-
स्मृतिशेष दिनेश
सिंह
अवनीश सिंह
चौहान
२ जुलाई की
शाम प्रबुद्ध नवगीतकार एवं नये-पुराने पत्रिका के यशस्वी
सम्पादक दिनेश सिंह का निधन उनके पैतृक गाँव गौरारूपई में हो
गया। जब यह दुखद समाचार कौशलेन्द्र जी ने दिया तो मेरा हृदय
काँप उठा। यद्यपि वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे- वे न तो
बोल सकते थे न ही ठीक से चल-फिर सकते थे, फिर भी अभी उनके
जीवित रहने की उम्मीद हम सभी को थी। किन्तु होनी को कौन टाल
सकता है… आज उनकी कमी उनके सभी चाहने वालों को खल रही है।
दिनेश सिंह का जन्म १४ सितम्बर १९४७ को रायबरेली (उ.प्र.) के
एक गाँव गौरारुपई में हुआ था। इनके दादा अपने क्षेत्र के
जाने-माने तालुकदार थे। पिता चिकित्सा अधिकारी थे, जिनकी
मृत्यु इनके जन्म के पाँच वर्ष बाद ही हो गई। इनकी शिक्षा
स्नातक तक हुई। आगे चलकर उन्होंने उत्तर प्रदेश शासन के
स्वास्थ्य विभाग में कार्य किया।
दिनेश सिंह
का नाम हिंदी साहित्य जगत में बड़े आदर से लिया जाता है। सही
मायने में कविता का जीवन जीने वाला यह नवगीतकार अपने निजी जीवन
में मिलनसार एवं सादगी पसंद रहा। गीत-नवगीत साहित्य में इनके
योगदान को एतिहासिक माना जाता है। दिनेश जी ने न केवल
तत्कांलीन गाँव-समाज को देखा-समझा और जाना-पहचाना था बल्कि
उसमें हो रहे आमूल-चूल परिवर्तनों, और अपनी संस्कृति में
रचे-बसे भारतीय समाज के लोगों की भिन्नह-भिन्न मनःस्थिरति को
भी बखूबी परखा, जिसकी झलक इनके गीतों में पूरी लयात्मकता के
साथ दिखाई पड़ती है।
अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ में आपकी पहली कविता
प्रकाशित हुई थी। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा देश
की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा
छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं
नियमित रूप से प्रकाशित हुआ करते थे। ‘नवगीत दशक’ तथा ‘नवगीत
अर्द्धशती’ के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत
कविता संकलनों में गीत तथा कवितों को सम्मिलित किया गया।
‘पूर्वाभास’, ‘समर करते हुए’, ‘टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर’, ‘मैं फिर
से गाऊँगा’ आदि आपके नवगीत संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त आपके
द्वारा रचित ‘गोपी शतक’, ‘नेत्र शतक’ (सवैया छंद),
‘परित्यक्ता’ (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक
संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना) चार अन्य नवगीत तथा
छंदमुक्त कविताओं के संग्रह तथा एक गीत और कविता से संदर्भित
समीक्षकीय आलेखों का संग्रह अभी अप्रकाशित हैं।
टेढ़े मेढ़े ढाई आखर में कविवर दिनेश सिंह प्रेम की उद्दात्ता
को जिस प्रकार से गीतायित करते हैं उससे प्रेम की गहराई,
पवित्रता, एवं गरिमा का तो पता चलता ही है, वर्तमान में
पाश्चात्य जगत् से प्रभावित प्रेम की प्रचलित प्रणालियों से
प्रेम मूल्यों में जो गिरावट आयी है उससे प्रणयधर्म का बेड़ा
गर्क हो रहा है यह बात भी सामने आती है। इससे यह अर्थ नहीं
निकालना चाहिए कि वे प्रणय प्रणाली के धुर विरोधी हैं बल्कि वह
तो प्रेम की मूलभूत संवेदना एवं संस्कार को सँजोये-सँवारे रखकर
प्रीति की साफ-सुथरी धारा को सतत प्रवाहित रखना चाहते हैं
जिससे इस स्वस्थ एवं सुंदर कला के माध्यम से जीवन को सार्थक
बनाया जा सके। वह नहीं चाहते कि आज बाजारवाद एवं विज्ञापनवाद
की लहर में प्रेम भी व्यापारिक अनुबंधों की भेंट चढ जाए और
विलासिता और ऐश-ओ-आराम के लिए दैहिक आग को शांत करने में अपने
आपको होम कर दे।
दिनेश सिंह का गीत संग्रह ‘समर करते हुए!‘ कलम के प्रयोग एवं
बुद्धि कौशल के बल पर अदम्य साहस एवं अटूट विश्वास से परिपूर्ण
होकर, उन सभी विडंबनापूर्ण स्थितियों एवं असंगत तत्वों से जो
कि समय के साँचे में अपना आकार लेकर मानवीय पीड़ा का सबब बनी
हुई हैं, युद्धरत दिखाई पड़ता है। लगता है कि ये रचनाएँ अपनी
जगह से हटतीं-टूटतीं चीजों और मानवीय चेतना एवं स्वभाव पर भारी
पड़ते समय के तेज झटकों को चिह्नित कर उनका प्रतिरोध करने तथा
इससे उपजे कोलाहल एवं क्रंदन के स्वरों को अधिकाधिक कम करने
हेतु नये विकल्पों को तलाशने के लिए महासमर में जूझ रही हैं।
इस प्रकार से वैश्विक फलक पर तेजी से बदलती मानवीय
प्रवृत्तियों एवं आस्थाओं और सामाजिक सरोकारों के नवीन खाँचों
के बीच सामंजस्य बैठाने की अवश्यकता का अनुभव करती इन कविताओं
में जहाँ एक ओर नए सिरे से नए बोध के साथ जीवन-जगत के विविध
आयामों को रेखांकित करने की लालसा कुलबुलाती है तो वहीं आहत
मानवता को राहत पहुचाने और उसके कल्याण हेतु सार्थक प्रयास
करने की मंषा भी उजागर होती हैं। और उद्घाटित होता है कवि का
वह संकल्प भी जिसमें समय की संस्कृति में उपजे विशांकुरों के
प्रत्यक्ष खतरों का संकेत भी है और इन प्रतिकूल प्रविष्टियों
के प्रति घृणा एवं तिरस्कार की भावना को जगाने की छटपटाहट भी।
चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका ‘नये-पुराने’(अनियतकालीन) के
माध्यम से गीत पर किये गये इनके कार्य को अकादमिक स्तर पर
स्वीकार किया गया है। स्व. कन्हैया लाल नंदन जी लिखते हैं- ”
बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश
सिंह के संपादन में निकलने वाले गीत संचयन ‘नये-पुराने’ ने गीत
के सन्दर्भ में जो सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है,
वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही । गीत के सर्वांगीण विवेचन का
जितना संतुलित प्रयास ‘नये-पुराने’ में हुआ है, वह गीत के शोध
को एक नई दिशा प्रदान करता है । गीत के अद्यतन रूप में हो रही
रचनात्मकता की बानगी भी ‘नये-पुराने’ में है और गीत, खासकर
नवगीत में फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी । दिनेश
सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत
विधा के गहरे समीक्षक भी।” आपके साहित्यिक अवदान के
परिप्रेक्ष्य में आपको राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी अकेडमी
सम्मान, पंडित गंगासागर शुक्ल सम्मान, बलवीर सिंह 'रंग'
पुरस्कार से अलंकृत किया जा चुका है।
कम लोग ही जानते होंगे कि परम श्रद्देय गुरुवर दिनेश सिंह जी
संजय गाँधी जी के विशेष सलाहकार, राजा संजय सिंह (अमेठी) के
अभिन्न मित्र-सलाहकार और राजीव गाँधी जी के 24 सलाहकारों में
से एक रहे। और जब संजय गाँधी जी के नेतृत्व में उ.प्र. विधान
सभा चुनाव के लिए कोंग्रेस पार्टी से टिकट बांटे गए थे तब पहला
टिकट दिनेश सिंह जी को दिया गया था; लेकिन उन्होंने यह कहकर
टिकट लेने से इंकार कर दिया था कि वे पार्टी के एक कार्यकर्ता
हैं एवं पार्टी के लिए कार्य करना चाहते हैं और यह कार्य बिना
चुनाव लड़े भी किया जा सकता है । उस समय टिकट के लिए पार्टी
में काफी खीचतान चल रही थी। संजय गांधी जी ने जब दिनेश सिंह जी
के ये शब्द सुने तो वे उनका हाथ पकड़कर स्टेज पर ले गए और
कांग्रेसियों से कहा कि उ.प्र. के भावी शिक्षा मंत्री दिनेश
सिंह होंगे । दिनेश सिंह जी ने संजय गाँधी जी की मृत्यु के बाद
सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया था. बाद में दिनेश सिंह जी
ने कभी भी सत्ता पक्ष से लाभ उठाने की चेष्टा नहीं की; वे बड़ी
ईमानदारी से साहित्य सृजन में लग गए और गीत-नवगीत के क्षेत्र
में उल्लेखनीय कार्य किया । नवगीत के इस महान शिल्पी को विनम्र
श्रद्धांजलि।
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई।
तुम जैसे गये वैसे तो जाता नहीं कोई।। |