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भास्कराचार्य द्वितीय
-मधु
महान भारतीय
खगोलविद् एवं गणितज्ञ आर्यभट की खोजों और रचनाओं का उनके बाद
की पीढ़ी के भारतीय वैज्ञानिकों पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा था।
उनके बाद आने वाले भारतीय खगोल वैज्ञानिकों ने उनके कार्यों को
आधार बनाकर आगे शोध प्रयोग, प्रेक्षण एवं ग्रंथों के निर्माण
किए। उनके अनुयायियों ने उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलकर
उनके काम को और आगे बढ़ाते हुए अपने उच्चस्तरीय भाष्यों के
माध्यम से उनके विचारों का प्रचार-प्रसार किया है।
यद्यपि उनके प्रमुख शिष्यों में पांडुरंग स्वामी, लाटदेव,
प्रभाकर एवं निःशंकु के नाम लिए जाते हैं लेकिन भास्कराचार्य
द्वितीय नामक चर्चित खगोल वैज्ञानिक ने आर्यभट के सिद्धांतों
का अनुसरण करते हुए अनेक व्याख्याएं और भाष्य लिखे हैं। भारतीय
इतिहास में भास्कराचार्य नाम के दो खगोल वैज्ञानिकों की चर्चा
मिलती है। इनमें भास्कराचार्य द्वितीय की विशेष चर्चा होती है।
इन्होंने आर्यभट को प्रचारित-प्रसारित करने के अलावा उनकी रचना
पर सरल भाष्य लिखकर आर्यभट को अमर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई है।
भास्कर द्वितीय के नाम से चर्चित ’भास्कराचार्य‘ के संबंध में
चर्चित विद्वान एस. बालचंद्र राव ने लिखा है कि- ’भास्कर
द्वारा की गई विस्तृत व्याख्या के अभाव में सूत्रात्मक गूढ़
भाषा में लिखी गई आर्यभट की कृतियों को जन सामान्य को समझने
में बहुत कठिनाई होती।‘ भास्कराचार्य ने आर्यभट की कृतियों के
सिद्धांतों पर आधारित अपनी स्वतंत्र रचनाओं के द्वारा भी उनके
काम को और आगे संप्रेषित किया। भास्कराचार्य की प्रमुख रचना
महाभास्करीय में आर्यभट के प्रसिद्ध ग्रंथ आर्यभटीय के खगोलिकी
से संबंधित तीन अध्यायों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की गई
है। एस.एन. सेन द्वारा ए कंसाइज हिस्ट्री आफ साइंस इन इंडिया
में दिए गए विवरण के अनुसार इसमें आठ खंड हैं जिनके चर्चा के
विषय निम्नवत हैं- १. ग्रहों के माध्य रेखांश तथा अविधार्य
विश्लेषण, २. रेखांश संशोधन, ३. समय, स्थान एवं दिशा, गोलीय
त्रिकोणमिति, सूर्य एवं चंद्रग्रहण, ४. ग्रहों के सही रेखांश,
५. सूर्य एवं चंद्रग्रहण, ६. ग्रहों का उदय होना, ७. अस्त
होना, ८. खगोलीय नियतांक, ९. तिथि एवं विविध उदाहरण।
भास्कराचार्य ने खगोलिकी शोध में कई नई तकनीकों का प्रयोग आरंभ
किया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आर्यभट ने केवल अविधार्य
विश्लेषण के नियमों का ही निर्धारण किया था। भास्कराचार्य ने
उनके इस काम को और आगे बढ़ाते हुए विस्तृत रूप प्रदान करके
उन्हें खगोलिकीय अनुप्रयोगों में लगाया। भास्कराचार्य ने अपनी
प्रमुख कृतियों का एक संक्षिप्त संग्रह तैयार किया। उनका यह
संग्रह लघुभास्करीय के नाम से चर्चित है।
भारत के इस महान खगोलिकीय गणितज्ञ का जन्म सन १११४ में आधुनिक
कर्नाटक प्रांतं के बीजापुर जनपद में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित
विद्वान परिवार से संबद्ध थे। उनके पिता ’महेश्वर‘ भी अपने समय
के चर्चित गणितज्ञ और वेदों के विद्वान थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा
उनके पिता के साथ ही अन्य विद्वानों की देखरेख में संपन्न हुई।
खगोलिकी के अतिरिक्त भास्कराचार्य की गणित में भी विशेष रूचि
थी। उनकी पहली कृति सिद्धांत शिरोमणि सन ११५० में प्रकाशित
हुई। इस ग्रंथ में उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं के अनुसार
अपने गोत्र और निवास स्थल के विषय में भी लिखा है।
भास्कराचार्य रचित यह ग्रंथ चार खंडों में है। इसके प्रथम खंड
का नाम ’पारीगणित‘, द्वितीय खंड का नाम ’गोलाध्याय‘ है।
सिद्धांत शिरोमणि के पहले और दूसरे भाग में क्रमशः पारीगणित और
बीजगणित में गणितीय विषयों पर चर्चा की गई है। बाकी के दोनों
खंड ज्योतिष से संबंधित हैं। इस ग्रंथ के पारीगणित खंड में
सारणियों तथा संख्या प्रणालियों की आठ परिक्रम भिन्न, शून्य,
त्रैराशिक, श्रेणी, क्षेत्रमणि, चित (ढेरी), छाया आदि विषयों
पर प्रकाश डाला गया है। बीजगणित खंड में विशेष बातों के रूप
में बताया गया है कि ऋणात्मक तथा धनात्मक संख्याओं का वर्ग
धनात्मक ही होता है। इस खंड में दिया गया एक उदाहरण इस प्रकार
है- ’एक बांबी के नौ हाथ ऊपर एक मोर पक्षी बैठा है, उसने
सत्ताइस हाथ की दूरी पर सांप को स्तंभ में स्थित बिल में आते
हुए देखा और तिरछी चाल से चलकर उस पर झपट्टा मारा। आखिर मोर ने
बिल से कितनी दूरी पर सांप को पकड़ने में सफलता पाई होगी।‘
बीजगणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य ने अद्भुत कार्य किया है।
उनके द्वारा इस क्षेत्र में किए गए कार्य पर व्यापक शोधकार्य
भी हुए हैं। भास्कराचार्य ने अव्यक्त संख्याओं की राशियां,
वर्गों का स्वरूप, वर्ग समीकरण और उनके समाधान, घन क्षेत्रफल
का उदाहरणों के माध्यम से वर्णन किया है। उन्होंने शून्य की
प्रकृति व विशेषताओं की वृहद विवेचना की है। उन्होंने (पाई) का
मान ३.१४१६६ निकाला जो आधुनिक मान के बहुत पास है।
आज से हजारों वर्ष पूर्व भास्कराचार्य द्वारा प्रतिपादित अनेक
सिद्धांत आज के इस कंप्यूटर युग में भी पाठ्य-पुस्तकों के
माध्यम से प्रयोग में आ रहे हैं। गणिताध्याय में ग्रहों के
माध्य तथा यथार्थ गतियां, समय, दिशा-संबंधी समस्याओं के साथ ही
उनके हल भी दिए गए हैं; साथ में सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण,
ग्रहों के उदय और अस्त के संबंध में भी चर्चा की गई है।
गोलाध्याय में ग्रहों की गति के कारणों पर व्यापक रूप से
प्रकाश डाला गया है। यंत्राध्याय में ज्योतिषीय कार्यों में
प्रयुक्त होने वाले यंत्रों का वर्णन है।
अपने एक अन्य ग्रंथ सूर्य सिद्धांत में भास्कराचार्य ने यह
स्पष्ट किया है कि पृथ्वी गोल है और सूर्य के चारों ओर एक
निर्धारित मार्ग पर चलकर अनवरत परिक्रमा करती रहती है। अपने इस
सिद्धांत के पक्ष में उन्होंने ठोस प्रमाण भी प्रस्तुत किए
हैं।
उनकी एक अन्य कृति कर्ण कौतूहल है, जो सन ११६३ में प्रकाश में
आई। इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया है कि चंद्रमा की छाया
से सूर्यग्रहण और पृथ्वी की छाया से चंद्रग्रहण लगता है।
भास्कराचार्य जिस काल में पैदा हुए और ज्ञान-विज्ञान में
सक्रिय रहे, वह समय संक्रमण का समय था। एक ओर विदेशी
आक्रमणकारी बाहर से भारतीय ज्ञान-विज्ञान को क्षति पहुंचा रहे
थे तो दूसरी ओर हमारे समाज के भीतर भारी अंधविश्वास व्याप्त
थे। ऐसे ही समय में कट्टर और परंपरावादी अंधविश्वासियों ने यह
अफवाह फैलाई थी कि पृथ्वी बिना आधार की है और वह धंसती जा रही
है। इन परंपरावादियों ने यह कार्य पौराणिक ग्रंथों की गलत
व्याख्या करते हुए समाज में अपने वर्चस्व के लिए दहशत फैलाने
के उद्देश्य से किया था। ऐसे समय में इस महान खगोलविज्ञानी ने
अपने वैज्ञानिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए प्रमाण
प्रस्तुत करके यह बताया कि ’निश्चय ही पृथ्वी बिना आधार के है,
लेकिन उसके चारों ओर जो ग्रह नक्षत्र आदि हैं, वे अपने
गुरूत्वाकर्षण से एक-दूसरे को अपनी ओर खींचकर आपसी संतुलन बनाए
हुए हैं; हमारी पृथ्वी ऐसी ही रहेगी और कभी भी नहीं धँसेगी।‘
भारतीय ज्ञान-विज्ञान के इस अप्रतिम महापुरूष ने जो खगोलिकीय
घोषणाएं कीं, उन्हीं बातों को जब पश्चिमी वैज्ञानिकों- कैपलर,
ब्रूनो, गैलिलियो ने कहा तो, किसी को जिंदा जला दिया गया और
किसी को आजीवन कारावास में डाल दिया गया। उससे भी महत्वपूर्ण
बात यह है कि भारतीय खगोल वैज्ञानिकों ने ये घोषणाएं पश्चिमी
खगोल वैज्ञानिकों से सदियों पूर्व ही कर दी थीं, जो भारत के
वैज्ञानिक क्षेत्र में अग्रणी होने का ठोस प्रमाण है।
भास्कराचार्य के महत्वपूर्ण खगोलिकीय विचारों की दुनिया की कई
भाषाओं में प्रस्तुति हुई है। इस प्रकार महत्वपूर्ण भारतीय
खगोलिकीय एवं गणितीय सूचनाएं विश्व स्तर पर मान्य हुई। सम्राट
अकबर के एक दरबारी विद्वान फैजी ने भास्कराचार्य की रचना
लीलावती का फारसी में अनुवाद किया था। इसी प्रकार सन १८१० में
कोलब्रुक नामक एक अंग्रेज विद्वान ने इसी ग्रंथ का अंग्रेजी
में अनुवाद किया था। आधुनिक काल में रायल सोसाइटी की शोध
पत्रिका ने अपने शोधपत्र में भास्कराचार्य की प्रशंसा की है।
भारत सरकार ने उनके सम्मानार्थ अपने द्वितीय अंतरिक्ष ग्रह का
नाम ’भास्कर‘ रखा। भास्कराचार्य का निधन सन ११७१ में मात्र ५६
वर्ष की आयु में हुआ था।
भास्कराचार्य ने एक सत्यान्वेषी वैज्ञानिक के रूप में रूढ़ियों
और अंधविश्वासों को नकारते हुए समाज में सत्य को स्थापित किया।
उन्होंने अंधविश्वासियों का हमेशा विरोध किया और आजीवन
सत्यान्वेषण में लगे रहे। उनकी खोजों और गणनाओं ने विश्व
वैज्ञानिक समाज के सम्मुख भारतीय विज्ञान का यथार्थपरक एक
उन्नत स्वरूप प्रस्तुत करके देश को गौरवान्वित कराया है। |