हिन्दी-कविता-में-चमत्कार-काव्य-के-एकमात्र-कवि-पंडित---हृषीकेश-चतुर्वेदी
- भरतचंद्र मिश्र
हृषीकेश
चतुर्वेदी का जन्म सन १९०७ में आगरा के एक प्रतिष्ठित एवम्
धनाढ्य परिवार में हुआ। मात्र १४ वर्ष की आयु में उनकी पहली
कविता प्रकाशित हुई। हिन्दी चमत्कार साहित्य के वे अनन्य साधक
थे। वर्ष १९२८ में उन्होंने ‘चामरबंध’ लिखकर चमत्कार काव्य का
श्रीगणेश किया। उन्होंने देश भक्ति के गीत लिखे, शृंगार रस की
रचनाएँ की, भक्ति रस में डूबकर छ्न्द लिखे, हास्य व्यंग की
रचनाएँ लिखीं। ईश्वर ने उन्हें सुदर्शन व्यक्तित्व प्रदान किया
था। फर्रुखाबाद के एक कवि सम्मेलन के सभा पति के रूप में मैंने
उन्हें देखा था आज भी उनका वह चेहरा मेरे स्मृति पटल पर ज्यों
का त्यों अंकित है। गौर वर्ण, शालीन, गोल चेहरा, तिलक मंडित
भव्य भाल, चपल मुस्कराती बड़ी बड़ी आँखें, सुगढ़ सुतवाँ नाक,
मंद सिम्त से सजे अधर, अत्यंत प्रभावशाली एवम् अभिजात्य पूर्ण
चेहरा जिस पर विद्वता की स्पस्ट झलक प्रतिबिंबित हो रही थी। वे
काली शेरवानी और सफ़ेद चूड़ीदार पजामा पहने थे। सर पर बड़े
सुन्दर तरीके से बँधा जयपुरिया साफा उनके सुदर्शन व्यक्तिव को
चार चाँद लगा रहा था। जिस कुशलता एवं सौम्यता से उन्होंने कवि
सम्मेलन का संचालन किया वह देखते ही बनता था। वे अत्यंत मृदु
भाषी एवं शिष्टाचार सम्पन्न व्यक्ति थे।
हृषीकेश जी
कवियों के कवि थे। उनके जीवन काल में प्रति सप्ताह सोमवार को
उनके निवास स्थान पर उदीयमान कवियों की गोष्ठी आयोजित होती थी
जहाँ वे रचना के गूढ़ एवं सूक्ष्म सिद्धांन्तों के ज्ञान भी
करवाते थे।
हृषीकेश जी जहाँ कवियों के कवि थे वहाँ वे साधारण जन के भी
लोकप्रिय कवि थे। मथुरा के विशेष समारोहों मुख्य रूप से होली
पर लोकगीत जिन्हें तान कहा जाता था, गाए जाते हैं। हर होली पर
मथुरा से लोक गायक उनसे तानें लिखवाने आते थे और हृषी केश जी
उनके बीच बैठकर पूर्ण तन्मयता से नयी तानों की रचना करके उन
लोकगायकों को स्नेहपूर्वक सौंपकर विदा करते थे। वास्तव में वे
एक लोक प्रिय जनकवि थे।
हृषीकेश जी पर माँ सरस्वती की विशेष कृपा रही जिससे उनका
बहुमखी विकास संभव हुआ। उन्होंने संस्कृत एवं हिंदी में काव्य
रचनाएँ कीं अंग्रेजी व् संस्कृत कविताओं के हिंदी कविताओं में
अनुवाद किए, चित्र काव्य बनाए, हिंदी में ग़ज़लें लिखीं।
उन्होंने भक्ति रस, शृंगार रस एवं मृदुल व्यंग की विशेष रूप से
अनके रचनाएँ रची जिन्होंने हिंदी काव्य जगत की उच्च श्रेणी की
रचनाओं में अपना स्थान बनाया। उनमें साहित्य एवं संगीत दोनों
का अनूठा संगम था, हारमोनियम बड़ी कुशलता से बजाते थे। कविता
पाठ वे हमेशा सस्वर करते थे और श्रोता मन्त्र मुग्ध हो रचनाओं
का आनंद लेते थे। भक्ति रस की उत्कृष्ठ रचनाओं में उनकी
उत्कृष्टता, चामत्कारिक रचना, राम कृष्ण काव्य है। यह हिंदी
कविता का एक मात्र विलोम काव्य है जिसमें उन्होंने अपने आराध्य
द्वय भगवान् राम और कृष्ण की गाथा का वर्णन किया है। हर पंक्ति
सीधी पढने पर जहाँ भगवान् राम का चरित्र वर्णन करती है वो वहीँ
उलटी ओर से पढने पर वही पंक्ति भगवन कृष्ण का गौरव गान करती
है। हिंदी काव्य में कोई अन्य इस प्रकार का विलोम काव्य अभी तक
नहीं लिखा गया। हृषीकेश जी सचमुच एक शब्द शिल्पी कवि थे।
प्रथम उदाहरण
राम हरें कष्टइ तीव्र धारा ( राम पक्ष )
इसी पंक्ति को दूसरी ओर से पढने पर
राधा व्रती इष्ट करें हमारा ( कृष्ण पक्ष ) ( वर्ष १९४३ )
दूसरा उदाहरण
विषय - श्री राम जन्म
हुए कुल बालक तारक चार
हुए कुल पालक तारक चार
भावार्थ - जगत को तारने वाले श्रीराम भरत लक्षमण शत्रुघ्न नामक
चार कुल पालक सुन्दर बालकों ने जन्म लिया
विषय - श्री कृष्ण जन्म
रचा करता कल बालकु एहू
रचा करता कुल पालकु एहू
भावार्थ - कर्ता ने यह कुल पालक सुन्दर बालक श्री कृष्ण रचा
इस विलोम काव्य में कुछ ४९ छंद हैं
चतुर्वेदी जी ने इसी कर्म में एक अन्य चमत्कार पूर्ण प्रबंध
काव्य श्री रामकृष्णायन की रचना की। यह कृति एक ही ओर से पढने
पर श्री राम एवं श्री कृष्ण दोनों की कथा का वर्णन करती है। एक
ही पंक्ति में केवल अर्धविराम
अथवा ' -' लगाकर पढने से अर्थ राम परक से कृष्ण परक हो जाता
है। इस यमक श्लेष में लिखे गए काव्य में ३५ छंद हैं।
उदहारण
श्री राम पक्ष
मन सोचत श्रीवस देव जम न बीच रहें
है प्रभु पग जल संसर्ग नर वर पार गहै
वे 'गो' कुल अधिपति आप, आनंद नन्द भये
गो सहस्त्र 'दसरथ ' राय विप्रनी दान दये
भावार्थ - मन में श्री निवास - ( विष्णु ) देवता को सोचते ही
यमराज बीच में नहीं रहते, उन प्रभु के चरनामृत से संसर्ग होने
पर श्रेष्ठ पुरुष (संसार सागर से) पार हो जाते हैं। ऐसे
इन्द्रिय वर्ग के स्वामी ( जितेन्द्रिय ) श्रीराम स्वयम आनंद
रूप तथा आनंददायक होकर उत्पन्न हुए। यह जानकार श्री दशरथ रजा
ने सहस्त्रों गायें ब्राम्हणों को दान में दीं।
श्री कृष्ण पक्ष
मन सोचत श्रीवसदेव , ' जमना बीच रहैं
है प्रभु पग जल संसर्ग नर वर पार गहैं
वे गोकुल अधिपति आप, आ नन्द नन्द भये
गो सहस्त्र दस रथ 'राय' विप्रनी दान दये
भावार्थ - श्री वासुदेव जी मन में सोचते हैं कि ( गोकुल जाने
के लिए ) यमुना मार्ग में पड़ती हैं, किन्तु वे न श्रेष्ठ
वासुदेव जी प्रभु के चरण का ( यमुना जी के ) जल से संसर्ग होते
ही पार पहुँच जाते हैं। इस प्रकार ( मतहा से ) आकर गोकुल के
स्वामी नन्द नंदन ( नाम से प्रसिद्ध हुए) हुए। श्री नन्द राय
ने ब्राम्हणों को दस सहस्त्र गायें तथा रथ दान में दिए। ( वर्ष
१९४८ ) हिंदी काव्य में 'हालावाद' का जन्म सन १९३६ में हुआ।
चतुर्वेदी जी ने भारतीय संस्कृति के अनुकूल 'विजय वाटिका ' एवं
'भंग का लोटा ' लिखकर 'हालावाद' का उत्तर कवि सम्मेलनों में
प्रस्तुत कर दिया।
उदहारण
( विजय वाटिका से )
बूटी ये सड़ाकर न बनाई जाती,
सज्जन -समाज ही को ये प्रायः न भाती
दुर्गन्ध, भभक का है नाम भी न यहाँ
इसमें इलायची की महक ही आती
छिप छिप के 'कलारी' को लोग जाते हैं ;
डर- डर के ही प्याले से मुंह लगते हैं
डंके की चोट जाके बगीची अलमस्त ,
ललकार के, लोटे को नित चढाते हैं
(भंग का लोटा से )
नयन सुबिम्बित हैं लोटे में नयनों में बिम्बित लोटा ;
अधंरा विचुम्बित हैं लोटे से, अधर से चुम्बित लोटा
इस अन्योन्य प्रणय का वर्णन कवि कितना कर सकता है
वे हैं अवलंबित लोटे पर उन पर अवलंबित लोटा
कुछ उदहारण अन्य रसों के -
मृदुल व्यंग -
दोऊ टाइम हवा खात, बैद जू की दावा खात
ब्याज सौ पैसवा खात, अति इतरात हैं
दबि कें रहम खात, चारि में सरम खात
कौड़ी पै कसम खात, बढ़ी बतरात हैं
पञ्च बनि घूस खात, निर्बल कों चूसि खात,
सुधरे कों भूसी खात , मन मुस्कात हैं
एते हु पै अम्मा कहैं, लल्ला कछु खात नाहीं
लल्ला तो बिचारे खात- खात न अघात हैं
शृंगार रस -
कर हटाई खोले नयन, लीन्ही हृदय लगाई
यह अनो न्य अनन्यरति, बरनन बरनी न जाई
शृंगार का यह शुद्ध रूप, जहाँ अश्लीलता लेश मात्र भी न हो यह
चुतर्वेदी जी ही कर सकते थे।
एक अन्य शृंगार शब्द चित्र देखिए
विधि जौहरी की अधखुली अंजुरी में मानो,
नीलमणि-कनिका है कंचन कटोरी में
इसके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत ग्रन्थ व अंग्रेजी कविताओं का
हिंदी में अनुवाद भी किया।
उदाहरणार्थ - श्री दुर्गा सप्तशती,
चतुर्वेदी जी छंद शास्त्र के अपने युग सर्व श्रेष्ठ ज्ञाता थे।
उन्होंने जीवन पर्यंत कविता- साधना की। उनकी अनन्य साधना ने,
उनके छंद शास्त्र के ज्ञान ने सम्मिलित रूप से उन्हें कीर्ति
के कठिन सोपानों को लांघने में सहायता प्रदान की। उनके शब्द
शिल्प ने उन्हें 'श्री राम कृष्णायन' एवं हिंदी के एक मात्र
विलोम काव्य 'श्रीराम कृष्ण' काव्य नामक काल जयी रचनाएँ सृजित
करने की क्षमता प्रदान की। उर इस अथक साधना के फलस्वरूप वे
हिंदी साहित्य में कीर्ति अर्जक रहे। हिंदी साहित्य का इतिहास(
डॉ नागेन्द्र ) के पृष्ठ ६५२ पर उनकी कीर्ति गाथा निम्न शब्दों
में अंकित है-
'इसी प्रकार की एक अन्य प्रसिद्ध रचना के कवि हृषिकेश
चतुर्वेदी जी का 'रामकृष्ण -काव्य' (१९४३) हैं। कलात्मक
अभिव्यंजना की दृष्टी से यह एक महत्त्व पूर्ण कृति है यमक
श्लेष मयी इस रचना में शब्द योजना इस ढंग से की गई है कि एक ओर
से पढने पर पंक्ति का अर्थ राम परक निकलता है, तो विलोम रूप
में पढने से कृष्ण परक।
कीर्ति मनुष्य को स्मृति के रूप में अमर नव जीवन देने वाली
दूसरी मात होती है। आयुष्य की गिनती कीर्ति के मान दंड से ही
मापी जाती है। केवल जीवित रहना ही जीना नहीं है। जीवन कैसा
होना चाहिए यह कीर्ति बताया करती हैं। हृषिकेश जी हिंदी काव्य
एवं साहित्य के कीर्ति अर्जक एवं युग के छंद शास्त्र ज्ञाता
एवं पुरोधा थे। सन १९७० में काव्य शास्त्र के इस सूर्य का अस्त
हो गया। |