१८ जून बलिदान दिवस के अवसर पर
वीरांगना रानी
लक्ष्मीबाई
--तिलक
परमार
यह आश्चर्य
की बात है कि वीरांगना लक्ष्मीबाई के जीवन का उज्ज्वलतम अध्याय
उनके पति, झाँसी नरेश महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद ही
प्रारंभ हुआ। २१ नवम्बर १८५३ को गंगाधर राव का अवसान हुआ था।
मृत्यु के पूर्व, निस्संतान होने के कारण, महाराजा ने अपने
निकट संबंधी दामोदर राव को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया
था। लेकिन अंगरेज़ झाँसी के राज्य को चूंकि किसी न किसी तरह
हड़पना चाहते थे, इस लिए २७ फ़रवरी १८५४ को लॉर्ड डलहौज़ी ने
फ़ैसला दे डाला कि दत्तक पुत्र दामोदर राव का राज्य पर कोई
अधिकार नहीं। इतना ही नहीं, १३ मार्च १८५४ को झाँसी के राज्य
को उन्होंने ज़बर्दस्ती ईस्ट इण्डिया कम्पनी में अधिग्रहीत कर
लिया और गंगाधर राव द्वारा छोड़ी गयी समस्त सम्पत्ति कम्पनी
सरकार के अधिकार में स्थानान्तरित हो गयी।
कम्पनी के इस कुकृत्य से जनसामान्य के मध्य महान रोष उत्पन्न
हो गया और क्रान्ति की चिनगारियाँ सुलगना शुरू हो गयीं। लोगों
की इस भावना को प्रश्रय मिला कि विधवा महारानी के साथ सरासर
अन्याय किया जा रहा है। इसी कालखण्ड में ब्रिटिश शासकों द्वारा
महारानी पर जिन सर्वथा अनर्गल और आधारहीन आरोपों का आरोपण किया
गया, उन्होंने इस सुलगती आग में घी का काम किया। स्वयं अंगरेज़
इतिहासकार सर जॉन ने लिखा है -- हम लोगों के मध्य यह एक
परम्परा सी बन गयी है कि पहले हम किसी देशी शासक का राज्य
हड़पते हैं और फिर पदच्युत नरेश अथवा उसके उत्ताराधिकारी पर
निराधार आरोप लगाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती हैं। महारानी पर
भी यह दोषारोपण इसी उद्देश्य से किये गये थे। एक ओर यह प्रचार
किया जाता था कि लक्ष्मीबाई मात्र एक बच्ची है और उस पर दूसरों
का व्यापक कुप्रभाव है, वहीं दूसरी ओर यह आरोप लगाये जाते थे
कि महारानी को नशा करने की आदत है जिससे उनका दिमाग़ दुरूस्त
नहीं रहता। लेकिन यह तथ्य कि महारानी बच्ची नहीं है उनकी
बातचीत और कार्यकलापों के गांभीर्य से पूरी तरह सिद्ध हो जाता
था, और उनके नशा करने की बात को तो कोरी कल्पना के अलावा और
कुछ नाम देना ही असंभव है। सर जॉन की तरह मेजर मैलकम ने भी
महारानी के चरित्र की प्रशंसा करते हुए लिखा था -- लक्ष्मीबाई
का चरित्र असंदिग्धरूप से सर्वोच्च कोटि का है, और झाँसी के
अंचल में उनको असीम आदर और सम्मान प्राप्त है।
लेकिन यह टीका-टिप्पणियाँ तो उस समय की हैं जब देश में कम्पनी
शासन पूरी तरह स्थापित हो चुका था और तात्कालिक घटनाओं पर उनका
कोई प्रभाव पड़ना कठिन था। ४ जून १८५७ को ईस्ट इण्डिया कम्पनी
की बारह नम्बर की पलटन के हवलदार गुरूबख्शसिंह ने किले की
मैगज़ीन और खज़ाने पर जब कब्ज़ा कर लिया तो धधकती चिनगारियाँ
ज्वाला बन कर चमक उठीं। उसके पश्चात महारानी लक्ष्मीबाई ने
स्वयं क्रान्तिकारी सेना की बागडोर को अपने हाथों में ले लिया।
७ जून को रिसालदार कालेखां और तहसीलदार मोहम्मद हुसैन ने
महारानी की ओर से जब किले पर आक्रमण किया तब किले के अन्दर की
सेना ने उनकी क्रान्तिवाहिनी को अपना पूरा सहयोग दिया था।
लक्ष्मीबाई के सेनानायकत्व में झाँसी के दुर्ग पर जब पुन:
केसरिया ध्वज फहराया गया तब महारानी की अवस्था मात्र बाईस वर्ष
की थी। दत्तकपुत्र दामोदरराव की संरक्षिका के रूप में
लक्ष्मीबाई ने झाँसी के शासन-प्रशासन को पूरी तरह अपने हाथों
में ले लिया था। उस छोटी सी वय में इतनी योग्यता और निपुणता का
परिचय विश्व-इतिहास में कहीं और नहीं मिल सकता। पूरे ग्यारह
महीनों तक झाँसी का प्रशासन पूरी तरह सुचारू रूप से चलता रहा।
इस कालखण्ड में महारानी ने जो शासकीय निपुणता प्रदर्शित की
उसने सिद्ध कर दिया कि उनमें रणकुशलता और राजनीतिज्ञता का
अद्भुत समन्वय था।
मार्च १८५७ से मात्र झाँसी के इतिहास में ही नहीं वरन समग्र
भारतीय इतिहास में नवीन अध्याय का समारंभ हुआ। यह इतिहास
महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य और बलिदान का जीवित इतिहास है -
एक ऐसा इतिहास जिसके प्रति भारत का जनजन युगयुगान्त तक श्रद्धा
से युक्त होकर नतमस्तक होता रहेगा और गर्व और गरिमा से अपने
मस्तक को ऊँचा करते हुए यही कहेगा कि भारत के पुत्र ही नहीं
बल्कि उसकी बेटियाँ भी अपनी स्वतंत्रता के लिये, अपने देश की
स्वाधीनता और उसके गौरव संस्थापन के लिये तिलतिल जल कर मरना भी
जानती हैं और अपने शत्रुओं के मान का मर्दन करना भी।
२० मार्च की सुबह से ही झाँसी की घनगर्जन तोप ने कम्पनी की
सेना पर गोले बरसाने प्रारंभ कर दिये थे। लगातार आठ दिनों तक
यह घनघोर संग्राम चलता रहा। तोपों की गड़गड़ाहट से समस्त झाँसी
कंम्पायमान हो रही थी। इस अवधि में चारों ओर घूमघूम कर महारानी
ने अपने सैनिकों का उत्साहवर्ध्दन किया, उनको मार्गदर्शन दिया।
महारानी की सहेलियों ने भी उस समय जिस कुशलता और कार्यक्षमता
का परिचय दिया था उसे अविस्मरणीय ही कहा जायेगा। महारानी के
हृदय में प्रज्ज्वलित आग का दर्शन उनके कार्यव्यवहार से सहज ही
प्रकट हो रहा था। पारस के स्पर्श से लोहा भी स्वर्ण में
परिवर्तित हो चुका था।
इसी समय तात्या टोपे के झाँसी प्रयाण के समाचार प्राप्त हुए,
लेकिन दुर्भाग्य की बात यह कि तात्या को वहाँ पहुँचने में
किंचित सफलता नहीं मिल पायी और झाँसी को स्वयं अपने भाग्य के
भरोसे संघर्षरत रहना पड़ा। ३ अप्रैल को अंगरेज़ी सेना ने अन्तिम
बार झाँसी पर आक्रमण किया। चारों ओर से हमले-दर-हमले होने लगे।
लक्ष्मीबाई अपने घोड़े पर सवार होकर सैनिकों और सेनानायकों के
हौसले को बढ़ाते हुए बिजली की तरह चारों ओर चक्कर लगा रही थीं।
उस दिन का युद्ध इतना भयंकर था कि झाँसी के किले का चप्पाचप्पा
गोलियाँ उगलता दिखायी दे रहा था। अनेक अंगरेज़ सैनिक और अधिकारी
उस युद्ध में मारे गये और अन्तत: उनको पीछे हटने के लिये बाध्य
होना पड़ा। इसी बीच किसी विश्वासघाती की सहायता से कम्पनी की
सेना दक्षिणी द्वार से नगर में घुसने में सफल हो गयी।
इसके बाद एक स्थान से दूसरे स्थान को विजित करती हुई अपने रूख
को उसने राजमहल की ओर मोड़ दिया। महारानी ने किले की प्राचीर से
नगरवासियों का भीषण संहार होते हुए देखा। यह देख कर वह तुरंत
कुछ सवारों को साथ लेकर अंगरेज़ी सेना पर टूट पड़ीं और इसके
परिणामस्वरूप उसे कुछ समय के लिये पीछे हट जाना पड़ा। इसी बीच
महारानी को यह समाचार प्राप्त हुए कि सदर द्वार के मुख्य रक्षक
सरदार खुदाबख्श और तोपखाने के अधीक्षक सरदार गुलाम ग़ौसखाँ मारे
जा चुके हैं। इस खबर को सुन कर कुछ क्षणों के लिये तो निराशा
ने उनको निश्चित ही घेर लिया था, लेकिन उनका स्वाभिमान
अभूतपूर्व था। उन्हें परतंत्रता की अपेक्षा मौत अधिक प्यारी
थी। मैगज़ीन में आग लगा कर स्वयं को भस्म करने का विचार भी क्षण
भर के लिये उनके दिमाग़ में कौंघा, लेकिन देश के अन्यान्य
स्थानों पर धधकती ज्वाला में स्वयं की आहुति डाल कर उसे
प्रज्ज्वलित करने की भावना ने उनके मन पर विजय प्राप्त कर ली
और वह तुरन्त कुछ सहेलियों और चुने हुए सहयोगियों के साथ
काल्पी की ओर प्रयाण कर गयीं। उस समय उनका दत्तक पुत्र
दामोदरराव उनकी कमर से बँधा हुआ था।
मार्ग में जिस शौर्य के साथ महारानी ने जनरल बेकर और जनरल
हयूरोज़ के दाँत खट्टे किये उसने स्पष्ट कर दिया कि वह एक
सुयोग्य सेनानेत्री थीं तथा पराजित सैनिकों के मनोबल को
पूनर्जाग्रत करने का उनमें अद्भुद कौशल था। अवसर का लाभ उठाने
में उन्होंने कभी कोई विलम्ब नहीं किया। यह बात उस समय अत्यंत
स्पष्टरूप से प्रकट हुई जब उन्होंने ग्वालियर पर अधिकार कर उसे
क्रान्तिकारियों के केन्द्रस्थल के रूप में परिवर्तित कर दिया।
वह प्रत्येक क्षण के मूल्य को समझती थीं, और इसीलिये उन्होंने
ग्वालियर पहुँच कर राव साहब और तात्या आदि को दरबार-आयोजन जैसे
निरर्थक कार्यक्रमों में समय की बरबादी करने से पूरी तरह
निरुत्साहित करने का प्रयत्न किया। दुर्भाग्य की बात यह कि
महारानी की सद्सम्मति उन नेताओं की समझ में नहीं आ पायी और उसी
का परिणाम उनकी पराजय में हुआ।
मृत्यु से लड़ने की अभूतपूर्व क्षमता और धैर्य के साथ शत्रुओं
का सामना करने का महारानी का संकल्प उनके जीवन के अंतिम क्षणों
तक प्रत्यक्षत: दिखायी पड़ता है। द्वन्द्वयुद्ध में भी वह कितनी
निपुण थीं इसका परिचय उन घटनाओं से मिलता है जिनमें वह अकेले
ही काफ़ी समय तक अनेक अंगरेज़ सैनिकों और सेनापतियों का मुकाबला
करती रही थीं। १८ जून १८५७ को बाबा गंगादास की कुटिया में उनके
द्वारा दिये गये चार बूंद जल का पान करने के बाद अत्यन्त
वीरोचित ढंग से महारानी ने अपने प्राण छोड़े, और तत्पश्चात समीप
ही घासफूस की चिता बना कर उनके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार
किया गया। समग्र संसार के इतिहास में शायद ही किसी नारी ने
इतनी अलौकिक वीरता के साथ रणस्थल में अपने प्राणों का त्याग
किया होगा। |