इतिहास– भारत कला भवन | ||
भारत कला भवन |
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भारतीय चित्रकला के विषय में यदि कोई भी विद्वान, शोधकर्ता या कलाविद गहन अध्ययन करना चाहे तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि उसे वाराणसी में स्थित 'भारत कला भवन' के चित्र संग्रह का अवलोकन करना ही होगा। भारत में प्रचलित लगभग समस्त शैलियों के चित्रों का विशाल संग्रह इस संग्रहालय में है। यहाँ का चित्र संग्रह, विशेषकर लघुचित्रों का विश्व में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। विख्यात कला मर्मज्ञ तथा कलाविद पद्मविभूषण स्व. रायकृष्ण दास 'भारत कला भवन' संग्रहालय के संस्थापक थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन 'भारत कला भवन' के लिए संग्रह हेतु समर्पित कर दिया। उनके जीवन का यही समर्पण और आत्मविश्वास आज 'भारत कला भवन' के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय को गौरवान्वित कर रहा है। विभिन्न कला कृतियों के संयोजन में तो उनकी अभिरुचि थी ही, किंतु भारतीय चित्रों के संकलन के प्रति उनकी आत्मीय आस्था थी। यही कारण है कि 'भारत कला भवन' न केवल राष्ट्रीय स्तर पर अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लघु चित्रों के संग्रह में अपना एक निजस्व रखता है। इस संग्रहालय में लगभग बाहर हजार विभिन्न शैलियों के चित्र संकलित हैं। इन सभी चित्रों की अपनी पृथक तथा रोमांचक कहानियाँ हैं। यहाँ केवल उन्हीं चित्रों की चर्चा की जा रही है जो चित्र विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। पोथीचित्र की विभिन्न शैलियाँ भारतीय लघु चित्रों का इतिहास ९वीं-१०वीं शती से प्रारंभ होता है। इस युग में पूर्वी भारत में बौद्धपोथियों का चित्रण हुआ। बोधियाँ उनके ताल पत्रों (राजतलों) पर तैयार की गईं, इनके पृष्ठ २२-१/२'' गुना २-१/२'' माप के हैं। इन बौद्ध पोथियों में प्रज्ञापारमिता, पंचरक्षा तथा करंडव्यूह महायान बौद्धपोथियों का चित्रण प्रधानतः हुआ। चित्रण का प्रमुख केंद्र बिहार एवं बंगाल था। शीघ्र ही नेपाल इस शैली का केंद्र बन गया, परंतु नेपाल के चित्रों की मुखाकृतियों में प्रचुर मंगोल प्रभाव आ गया है, कदाचित यह नेपाल का अपना स्थानीय प्रभाव है। इसी समय पश्चिमी भारत में जैन धर्म, हिंदू धर्म तथा धर्म निरपेक्ष कथाओं से संबद्ध चित्रित पोथियों का सृजन हुआ, जिसने भविष्य की एक विशेष चित्रकला शैली की एक आधारशिला तैयार की। इस कारण इसका ऐतिहासिक महत्व है। इस शैली के नामकरण के संबंध में मतभेद हैं। इसे जैन शैली, गुजरात शैली, पश्चिमी भारतीय शैली तथा अपभ्रंश शैली के नामों से पुकारा गया। ताड पत्र एवं कागज पर मध्यकालीन रीति को अपनाते हुए गुजरात के ये पोथी चित्र अधिकांशतः जैन धर्म से संबंधित हैं। कलात्मक दृष्टि से देवशानपाडा से प्राप्त कल्पसूत्र पोथी इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस पोथी के कुछ सचित्र पृष्ठ भारत कला भवन में विद्यमान हैं। पूर्वी भारत एवं गुजरात में जब चित्र सृजन की उक्त शैलियाँ लोकप्रिय आधार ग्रहण कर चुकी थीं, तब १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं १७वीं शती के प्रथम चरण में राजस्थान के विभिन्न अँचलों में स्थानीय प्रभाव लिए एक चश्म चेहरे से युक्त मेवाड, बूँदी, कोटा, बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, नाथद्वारा, किशनगढ इत्यादि विभिन्न शैलियों का विकास हुआ। प्रारंभिक राजस्थानी शैली के चित्रों के अंतर्गत मीठाराम भागवत, चौर पंचाशिका, मृगावत एवं कतिपय रागमाला के चित्र इस संग्रह की अमूल्य निधि हैं। मृगावत की सचित्र पोथी विश्व के किसी अन्य संग्रहालय में उपलब्ध नहीं है। जौनपुर से प्राप्त उक्त पोथी के २५० चित्र इस संग्रहालय में संग्रहीत हैं। मुगल चित्रकला भारतीय इतिहास में मुगल चित्रकला एक सुखद संयोग के रूप में दरबारी सभ्यता और भोग-विलास का उल्लास अपने में संचित किए है। मुगल चित्रकला का जन्म अनेक विदेशों और स्वदेशी चित्रकारों के परिश्रम और शिल्पसाधना का परिणाम है। आरंभिक मुगल चित्रों की शैली परिवर्ती कला से पृथकत्व लिए हुए है। आरंभिक चित्र ईरानी अर्थात फारसीपन लिए हैं। इनमें मुख्यतः ईरानी शैली का अनुकरण किया गया है। इस प्रकार के अधिकांश चित्र हुमायूँ के समय के हैं। बाबर भारत आते समय जिन पुस्तकों को अपने साथ लाया, उनमें शाहनामा की सचित्र प्रति भी थी। यह प्रति २०० वर्ष तक मुगल कुतुबखाने में रही जो बाद में अंग्रेजों के हाथ चली गई, संयोग से इस शाहनामा के छह महत्वपूर्ण चित्रों का संकलन इस संग्रहालय में सुरक्षित है। काबुल पर अधिकार (१५५० ई.) करने के पश्चात, हुमायूँ दो विदेशी चित्रकार ख्वाजा अब्दुस्समद तथा मीर सैयद अली को अपने संरक्षण में ईरान से काबुल लाया। इन चित्रकारों ने हुमायूँ की आज्ञा से ''दास्तान-ए-मीर हम्जा'' के चित्र बनाना प्रारंभ कर दिये जो पूर्णतया फारसी शैली के थे। इस चित्रावली के लगभग १४०० चित्र बाद में अकबर के समय में बनाए गए। चित्रों के चेहरे की बनावट, प्रकृति तथा पहनावा अधिकांश ईरानी-फारसी ढंग का है। हम्जनामा के १४०० चित्रों में से आज प्रायः १५०-१६० चित्र विश्व में प्राप्त हैं। भारतवर्ष में मात्र पाँच चित्र अवशिष्ट हैं, जिनमें से दो 'भारत कला भवन' संग्रह में हैं। बडे आकार के (६८×५२से.मी.) ये चित्र सूती कपडे पर अस्तर लगाकर बनाए गए हैं। बसोहली शैली का उद्गम पहाडी राज्यों की स्थापना सातवीं और आठवीं शताब्दी में राजपूत युवराजों ने की और यहाँ पर छोटे-छोटे राज्य स्थापित किए। मैदानी भाग में अफगानों और मुगलों का राज्य स्थापित हो गया था, अतः सत्रहवीं शताब्दी के पहाडी प्रदेशों में वैष्णव धर्म का विशेष विकास हुआ। दिल्ली के निराश्रित चित्रकारों का पहला दल जम्मू और पंजाब के पहाडी राज्यों में जाकर बसा। इस शैली के चित्र पहले बसोहली में, फिर अन्य राज्यों में बनाए गए। अनुमानतः इन चित्रकारों ने बसोहली शैली को जन्म दिया और वैष्णव संप्रदाय की अभिव्यक्ति चित्रों के रूप में होने लगी। सन १७४५ ई. के पश्चात बसोहली शैली का स्थान स्थानीय राज्यों की निजी शैलियाँ ग्रहण करने लगीं। पहाडी चित्रों के अंतर्गत जयदेव कृत गीत-गोविंद काव्य पर भी सुंदर चित्र बनाए गए जो यहाँ संग्रहीत हैं। इसमें बसोहली शैली की समस्त विशिष्टताएँ कमल-जैसी लुभावनी आँखें, (प्राथमिक रंगों का प्रयोग) समाहित हैं। कवि भानुदत्त कृत 'रस मंजरी' बसोहली के राजा कृपाल पाल का प्रिय काव्य ग्रंथ था। जिसका सुंदर चित्रण किया गया। 'रस मंजरी' में चित्रित वाग्विदग्धा नायिका चित्र भावाभिव्यंजना, रंग समायोजन एवं उत्कृष्ट कला प्रदर्शन हेतु विश्व प्रसिद्ध है। इस चित्रमाला का (कोलोफन) परिचय पृष्ठ भी कला भवन में विद्यमान है, जो इसके चित्रकार, दाता तथा काल की जानकारी प्रदान करता है। परिवर्ती चित्रकारों ने बारहमासा चित्रावलियों के निर्माण में विशेष रुचि प्रदर्शित की। इन विषयों के अतिरिक्त बसोहली शैली में 'रागमाला' पर आधारित चित्र भी प्राप्त होते हैं, जिनके उदाहरण भी 'भारत कला भवन' में सुरक्षित हैं। बंगाल शैली आधुनिक बंगाल शैली के उन्नायक अवनींद्र नाथ टैगोर व उनके शिष्य नंदलाल बोस, ए.के, हल्दर, एस.एन. डे, ओ.सी. गांगुली, क्षितींद्र नाथ मजूमदार, यामिनी राय तथा गगनेंद्र नाथ टैगोर के चित्रों का संग्रह इस संग्रहालय की अमूल्य निधि है। एस.एन.डे की मेघदूत चित्रावली, ए.एन. टैगोर की अभिसारिका तथा उमर खैयाम, नंदलाल बोस की शिव-पार्वती, प्याऊ, हजरत दराब खाँ एवं चित्रित पोस्टकार्ड 'बंगाल चित्र शैली' की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। हेब्बार, अकबर मदमसी, बेंद्रे, सुल्तान अली, दिनकर कौशिक, एम.एफ, हुसैन, जे.एम. अहिवासी, के.एस. कुलकर्णी, वासुदेव स्मार्त आदि आधुनिक चित्रकारों के चित्र भी इस संग्रहालय की शोभा है। भारतीय चित्रों के अतिरिक्त 'भारत कला भवन' में नेपाल और तिब्बत में चित्रित पटरा, पोथी चित्र और चित्रित थंकां का भी संग्रह है, जिसमें जय प्रकाश मल्ल कालीन सन १७६५ ई. तिथि युक्त चित्रित तांत्रिक पोथी एवं प्रायः १३-१४वीं ई. शती का रत्नसंभव थंकां उल्लेखनीय है। विविध माध्यमों- कागज, कपडा, काष्ठ, शीशा, हाथी दाँत, ताड पत्र, अभ्रक तथा चमडे पर चित्रित उक्त सभी शैलियों के चित्र इस संग्रहालय की धरोहर हैं जो आरक्षित संग्रह के अतिरिक्त छवि, निकोलस, रोरिख, एलिस बोनर तथा बनारस वीथिकाओं में प्रदर्शित है। |
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११ जनवरी २०१० |