नव किरन
की आस
में
साँझ के
सहवास
में
कुछ दूर
तक आओ
चलें
हम
साथ में
दिन बहुत
लंबा हुआ
पर शाम
तो बाकी
अभी है
दो पलों
के दर्द
में
यह
जिंदगी
जाती
नहीं है
नवल इस
पतवार से
कठिन इस
मझधार से
उस पार
तक आओ
चलें
हम
साथ में
पूर्व से
आता है
सूरज
शाम को
जाता भी
तो है
भोर का
शीतल
सवेरा
रात
कुम्हलाता
भी तो है
सुदिन के
शृंगार
से
हौसलों
के प्यार
से
भिनसार
तक आओ
चलें
हम
साथ में
फिर कभी
सूरज न
डूबे
यह कभी
होता
नहीं है
मन में
उजियारा
भरा हो
धैर्य
फिर खोता
नहीं है
हर्ष से
अधिकार
से
समय के
स्वीकार
से
शुभ आस
का मंदिर
बनाएँ
साथ में
—
पूर्णिमा
वर्मन