तात्या टोपे
के. श्रीपति शास्त्री
ग्वालियर से ७५ मील दूरी पर स्थित शिवपुरी किले के
कवायत के मैदान में ब्रिटिश टुकड़ियों ने अपने खेमे गाड़
दिये थे दिन था १८ अप्रैल
१८५९ का, समय दोपहर चार बजे एक सुंदर मुस्कराता हुआ
कैदी जेल से बाहर लाया गया उसके हाथों और पैरों में
जंजीरे पड़ी थीं सिपाहियों की निगरानी में उसे फाँसी के
तख्त के पास ले जाया गया उसे मौत की सजा सुनाई गई थी
कैदी तख्त की ओर निर्भयता से बढ़ा तख़्त पर पैर रखते समय
उसमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं थी परिपाटी थी कि
मृत्युदंड दिए गए व्यक्ति की आँखें रुमाल से बाँध दी
जाए पर जब सिपाही रुमाल लेकर आगे बढ़े तो कैदी
मुस्कुराया और उसने इशारे से समझा दिया कि “मुझे उसकी
कोई आवश्यकता नही।” उसने अपने हाथ- पैर बँधवाने से भी
इनकार कर दिया अपने हाथ से ही उसने उस फंदे को अपनी
गर्दन में फँसाया फंदा कसा गया, अंत में एक झटका और पल
भर में सब कुछ
समाप्त।
हृदय विदारक दृश्य था सारे देश ने आँसू बहाए सारे देश
का हृदय शोक में डूब गया फाँसी के तख्त पर झूलती वह
प्राणहीन काया किसी चोर–उचक्के की नहीं थी ना ही उसने
किसी का गला काटा था, वह था स्वतन्त्रता–संग्राम के
सेनानियों का सरसेनापति, जिसने १८५७ में अँग्रेजी
सत्ता को ललकारा था जिसने अँग्रेजी सत्ता की नींव हिला
दी थी स्वतन्त्रता का झण्डा उठाए हुए उसने पराधीनता की
जंजीरों को तोड़ना चाहा और बड़ी बहादुरी से उसने
अँग्रेजों की सैनिक शक्ति से लोहा
लिया था वह वीर था,
तात्या टोपे जिसका नाम हर जबान पर था और जों शक्ति और
शौर्य का ज्वलंत प्रतीक था।
नानासाहब का दाहिना हाथ
तात्या टोपे का जन्म १८१४ में हुआ था पिता का नाम था
पांडुरंग पंत पांडुरंग पंत नासिक के पास येवले नामक
छोटे से ग्राम के निवासी थे उनके ८ बच्चे थे दूसरे
बच्चे का नाम रघुनाथ था यही बालक आगे चलकर भारतीय
स्वतन्त्रता –संग्राम में तात्या टोपे के नाम से
प्रसिद्ध हुआ पेशवा बाजीराव द्वितीय का उस समय पूना
में शासन चल रहा था पांडुरंग पंत उस दरबार के एक
सम्माननीय सदस्य थे तात्या अपने पिताजी के साथ अक्सर
पेशवा के दरबार में जाते बच्चे की प्रतिभा मानो उसके
तेजस्वी और मुखर नेत्रों से छलक पड़ती थी इन्हीं विशाल
और आकर्षक नेत्रों ने जल्द ही पेशवा का ध्यान अपनी ओर
आकर्षित किया पेशवा बच्चे की प्रखर बुद्धि से प्रभावित
हुए और उन्होने एक रत्नजटित टोपी उसे पहना दी रघुनाथ
का प्यार का नाम तात्या था और उसके परिजन, पुरजान
प्यार से उसे तात्या कहाकर पुकारते थे जब से पेशवा ने
बालक तात्या को टोपी पहनाई तब से वह मानो उसकी
चिरसंगिनी हो गई लोग अब तात्या को तात्या टोपे कहने
लगे और आजन्म यही
उनका अपना हो गया।
उन दिनों भारत
में अँग्रेजों का प्रभुत्व था छह हजार मील दूर से आए
इन व्यापारियों ने तराजू फेंककर राजदंड अपना लिया था
वे शासक और स्वामी बन गए भारतीय राजा और राजकुमार आपस
में लड़ रहे थे इस फूट को बढ़ावा देना अँग्रेजों के लिए
एक बड़ा आसान काम हो गया वे फूट फैलाकर एक के बाद दूसरा
प्रांत जीतते चले गए राजमुकुट धराशायी होते गए और
राज्य ताश के पत्तों की तरह तहस-नहस हो गए अँग्रेजों
का अति प्रिय स्वप्न था सारे भारत पर एक छत्र राज्य
पर, मराठा वीर अँग्रेजी सत्ता के सामने डटकर खड़े हो गए
और उन्होने अँग्रेजी आधिपत्य अस्वीकार कर
दिया वे स्वतंत्र रहे
मानो वे देश का वह हाथ थे जो देश की लाज बचाने के लिए
तलवार लिए चल पड़ा हो
पर अँग्रेजों ने भी हिम्मत नहीं हारी और अपने इरादे पर
डटे रहे वे मौके की तलाश में थे, और ऐसा अवसर उन्हें
जल्द ही मिल गया सन १८०० तक बहुत से मराठा वीर और
राजनीतिज्ञ मृत्यु का ग्रास बन चुके थे दुर्बल और
ऐशपरस्त द्वितीय बाजीराव, पेशवा की गद्दी पर था
बुद्धिमत्ता लुप्त हो गई थी लालच और ईर्ष्या से जनता
का दिमाग निकम्मा बना था सब सर्वनाश के मार्ग पर थे
परिणाम यह हुआ कि १८१८ के युद्ध में मराठा लोग
अँग्रेजों के हाथों बुरी तरह परास्त हुए
अभागा भारत, दासता की बेड़ी में जकड़ा हुआ, अँग्रेजों के
सामने अपमानित और नतमस्तक था।
पेशवा ने अपना राज्य, ८ लाख सालाना पेंशन की ऐवज में,
अँग्रेजों के आधीन कर दिया पेंशनयाफ़्ता जिंदगी बसर
करने के लिए पेशवा कानपुर के पास ब्रह्मावर्त में जा
बसे कई मराठा परिवारों ने उनका अनुकरण किया पांडुरंग
पंत इनमें से एक थे बालक तात्या टोपे भी पिताजी के
पीछे हो लिया ब्रह्मावर्त में तात्या टोपे के बाल-सहचर
रहे, उन सब ने बाद में स्वाधीनता-संग्राम में
अविस्मरणीय त्याग और सेवा के कारण अमर यश प्राप्त किया
इन सबमें उल्लेखनीय हैं नानासाहब नानासाहब, द्वितीय
बाजीराव का दत्तक पुत्र था, और उन्होंने ही बाद में
१८५७ के युद्ध की योजना आँकी थी उनका भतीजा था रावसाहब
क्रान्तियुद्ध में रावसाहब छाया की भाँति तात्या के
साथ रहा घटनाओं के किसी भी प्रसंग में उसने, तात्या का
साथ नहीं छोड़ा इसी समय एक नन्हीं बालिका भी थी जिसका
नाम था मनु यह बालिका मोरोपंत तांबे की सुकन्या थी
मोरोपंत पेशवा दरबार के स्वामिभक्त सरदार थे तेजस्विनी
मनु का प्यार का सम्बोधन था छबीली इसी छबीली ने आगे
चलकर सारे देश की आँखे चौधियाँ दीं उसके शत्रु भी
चकाचौंध हो गए यही थी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
वास्तव में ब्रह्मावर्त
ऐसे बच्चों का घर था जो आगे चलकर महान हुए और जिन्होने
देश की कीर्ति में चार चाँद लगाए।
इन बच्चों की शिक्षा –दीक्षा सच्ची लगनवाले गुरुओं के
जिम्मे थी बचपन के प्यार के बंधन ने इन्हें परस्पर
बाँध रखा था बचपन से ही ये युद्ध के खेल खेलते तथा
घुड़सवारी और तलवार चलाना सीखते तात्या बहुत शीघ्र
युद्ध की समस्त कलाओं में पटु हो गया द्वितीय बाजीराव
की मृत्यु के पश्चात नानासाहब १८५१ में पेशवा बने
नानासाहब बड़े आत्माभिमानी और कट्टर स्वतन्त्रताप्रेमी
थे वे दासता के कलंक को धो डालना चाहते थे पेशवा बनते
ही उन्होंने पिता द्वारा १८१८ में त्यक्त तलवार उठा ली
खोए हुए राज्य की पुन: प्राप्ति और पराजय का प्रतिशोध
यह एक ही धुन नानासाहब पर सवार थी तात्या टोपे उनके
साथी ही नहीं, अपितु अभिन्न मित्र और परामर्शदाता भी
थे दोनों एक ही स्वप्न देख थे- स्वप्न था स्वतंत्र
भारत।
पराधीनता के अंधकार का सर्वनाश
मराठों की हार ने
अँग्रेजों को भारत में सर्वश्रेष्ठ बना दिया था अपने
साम्राज्य को बलिष्ठ बनाने के लिए वे हर अच्छा या बुरा
मार्ग अपनाने लगे लोगों की भावनाओं की उन्होंने तनिक
परवाह नहीं की जब लार्ड डलहौज़ी गवर्नर जनरल बनकर भारत
आया तो देश का नक्शा ही बादल गया उसने कोई न कोई बहाना
बनाकर भारतीय युवराजों के राज्य छीन लिए फिर भी उसकी
भूमि- विस्तार की तृष्णा का शमन नहीं हुआ।
इसी बीच ईसाई मिशनरी अधिक संख्या में भारत आने लगे थे
उनका एकमात्र ध्येय था भारतीयों में ईसाई धर्म का
प्रचार और उन्हें किसी न किसी बहाने से ईसाई धर्म
स्वीकार करने को बाध्य करना राज्य का शक्तिशाली छत्र
उन पर था इसलिए उन्हें किसी का भय न था अब तक अँग्रेज
कई रियासतें हड़प चुके थे छोटे राज्यों पर ही उन्होंने
कब्जा जमाया हो ऐसा नहीं था मुगल बादशाह को भी एक तरफ
कर दिया था अवध के नवाब को गद्दी से हटाकर उसका राज्य
ज़बरदस्ती छीन लिया था दत्तक पुत्र के अधिकार को
अस्वीकार कर डलहौज़ी ने झाँसी भी हथिया ली थी।
फिर नानासाहब की
बारी आई पेशवा को आठ लाख रुपयों की पेंशन मिलती थी
डलहौज़ी ने इस पेंशन को भी छीन लिया बहाना यह बनाया कि
नानासाहब केवल दत्तक पुत्र थे नानासाहब घमंडी
अँग्रेजों के अत्याचारों से पहले ही आगबबूला थे, अब इस
अपमान से मानो जख्म पर नमक छिड़क दिया गया था।
तात्या टोपे ने जान की बाजी लगा दी और वह अँग्रेजों को
ब्रह्मावर्त से बाहर खदेड़ने के लिए अंत तक लड़ता रहा
क्यों ? उसकी क्या हानि हुई थी? न उसका कोई राज्य था
और ना ही कोई पेंशन, जिसके खोने का उसे कोई भय हो
परंतु उसे अँग्रेजों से घृणा थी अपने लिए नहीं परंतु
इसलिए कि जिस देश से उसे बेहद प्यार था, उसकी
स्वतन्त्रता को अँग्रेजों ने छीना था, अपमानित किया था
तात्या टोपे के लिए उसका देश स्वर्ग से भी अधिक प्रिय
था, प्यारा था वास्तव में देश में चारों ओर असंतोष की
आग जल रही थी लोगों की क्रोधाग्नि भड़क चुकी थी वे
स्वराज्य और स्वधर्म के लिए, तन-मन-धन की आहुति चढ़ाने
के लिए तत्पर थे दासता की शृंखला को चुपचाप सहना उनके
लिए असह्य हो उठा था
अँग्रेजों की फौजें और
तोपें उन्हें डराने में असमर्थ थीं देश का वातावरण
क्रान्ति के लिए नितांत अनुकूल था
नानासाहब तत्कालीन परिस्थिति में युगपुरुष साबित हुए
उन्होंने लोगों के हृदय की जलती हुई आग को पहचाना
देशवासियों की स्वतन्त्रता- संग्राम में भाग लेने की
उत्कट अभिलाषा को उन्होंने क्रियात्मक मोड़ दिया तात्या
टोपे उनका दाहिना हाथ थे अँग्रेज भारत में दुर्दांत
शक्तिशाली थे इस शक्ति का स्रोत क्या था? स्रोत थी वह
सेना जिसमें भारतीय अँग्रेजों के लिए लड़ते थे नानासहब
और तात्या टोपे ने इन भारतीय सिपाहियों के सामने
राष्ट्रीयता का आदर्श रखा आने वाले युद्ध के लिए
उन्होंने रेजिमेंटों से संपर्क साधा प्रमुख राजाओं से
भी मेल-जोल बढ़ाया ताकि इस युद्ध के विषय में उन के
विचार मालूम हो सकें क्रान्ति का अग्नि संदेश इस तरह
देश भर में फैला दिल्ली के बहादुरशाह, झाँसी की
लक्ष्मीबाई, जगदीशपुर के कुँवरसिंह तथा अन्य कई राजाओं
ने इस युद्ध के सेनापतित्व का भार सम्हाला तात्या टोपे
पेशवा के मुख्य सेनापति थे हरेक रेजिमेंट के सिपाहियों
ने विद्रोह करने का निश्चय कर लिया था जो हाथ पहले
सलामी के लिए उठा कराते थे वे ही हाथ एक-दूसरे से होड़
लगाते थे की अत्याचारी शासक पर पहली गोली कौन दागे?
इस महान आंदोलन
की योजना गुप्त रूप से बनी थी कार्यकर्ताओं को छोड़
किसी को कानोंकान इसकी खबर नहीं थी पूरा कार्यक्रम बड़ी
बारीकी और स्पष्ट रूप से बनाया गया था ३१मई १८५७ को
सारे देश में एक साथ विद्रोह शुरू होना था यदि समस्त
भारत एक ही दिन एक ही साथ विद्रोह के लिए उठ खड़ा होता
तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता किन्तु दुर्भाग्य !!
तात्या : स्वतन्त्रता की तलवार
बैरकपुर में एक अनपेक्षित घटना घटी ३१ मई को अभी दो
माह बाकी थे, जब बैरकपुर की सिपाही रेजिमेंट ने पहला
वार किया जिस वीर ने पहली गोली दागी, उस वीर का नाम था
“मंगल पांड़े।”
हिन्दुस्तानी फौज को हुक्म मिला कि बंदूकों में नए
कारतूसों का इस्तेमाल करो यहाँ खबरें गरम थीं कि नई
कारतूसों में चिकनाहट के लिए गाय और सुअर की चर्बी का
प्रयोग किया गया है भारत में चारों ओर यह खबर
क्रांतिकारियों ने ही फैलाई थी सिपाही इस बात को सुनकर
आपे से बाहर हो गए यह उनके धर्म का प्रश्न था गाय और
सुअर की चर्बी छूना अधर्म था बार-बार डराने और धमकाने
के बावजूद भी उन्होंने नई कारतूसों का उपयोग करने से
इनकार कर दिया गोरे अफसरों ने सिपाहियों के हथियार
छीनने का आदेश दे दिया किसी भी सिपाही के लिए उसके
हथियार उसकी आबरू है यह आदेश उनके लिए सरासर अपमान था
मंगल पांड़े उसे चुपचाप पी न सका, वह तिलमिला उठा वह
देशभक्त, स्वाभिमानी
और बहादुर था उसका खून
खौल उठा उसकी एक ही गोली ने उसके अधिकारी हयूगसन का
काम तमाम कर दिया कैद और जिल्लत से मृत्यु की गुना
अच्छी , यह सोचकर उसने दूसरी गोली अपने ऊपर चला दी वह
घायल हो गिर पड़ा उसे हिरासत में ले लिया गया और उसका
कोर्ट मार्शल किया गया।उसे सजा मिली सजा थी मृत्युदंड
साथी सिपाही आँसू बहाते हुए देखते रहे और ८ अप्रैल
१८५७ को मंगल पांड़े फाँसी के तख्त पर झूल गया देश का
पहला शहीद इस प्रकार वीरगति को प्राप्त हुआ।
मंगल पांड़े का साहस सर्वथा सराहनीय था पर जल्दबाज़ी के
कारण गड़बड़ी हो गई अनजाने उसने तमाम योजना पर पानी फेर
दिया था यदि निश्चित किए हुए दिन तक वह को अपने को रोक
सकता तो विद्रोह सफल हो जाता मंगल पांड़े की जल्दबाज़ी
का परिणाम यह हुआ कि विद्रोह छुटपुट ढंग से अलग-अलग
स्थानों में अलग-अलग समय पर हुआ बैरकपुर की घटना के एक
माह बाद , मेरठ विद्रोह की आवाज उठाई १० मई को मेरठ
“मारो फिरंगी को” की गगनभेदी ध्वनि से गूँज उठा।
मेरठ क्रान्ति की आग में जल रहा था अँग्रेज़ जान बचाने
जहाँ- वहाँ भाग रहे थे बहुत कम समय में सिपाहियों ने
मेरठ पर कब्जा कर लिया और फिर ३६ मील दूरी पर स्थित
दिल्ली की ओर मोर्चा बढ़ा दिया इस बार गगनभेदी नारा था-
‘चलो दिल्ली’ दूसरे दिन दिल्ली पर विद्रोहियों ने विजय
पा ले और बहादुरशाह को बादशाह बना दिया ये समाचार
ब्रह्मावर्त में पहुँचे पर ब्रह्मावर्त ने इस समाचार
से अपनी शांति और गंभीरता में कोई फर्क नहीं आने दिया
नानासहब और तात्या टोपे ने अपने क्रोध या अपनी योजना
का कोई भी लक्षण बाह्यरूप से प्रकट न होने दिया दोनों
अनुकूल क्षण की ताक में थे उनके इस व्यवहार के कारण
फिरंगियों के मन में उनके प्रति तनिक भी संदेह नहीं
हुआ नानासहब और तात्या टोपे की
ओर से मानो वे निश्चिंत
थे।
यह अवश्य था कि अब अँग्रेज़ यथेष्ट रूप से घबरा गए थे
कानपुर का मुख्य अधिकारी हयूग व्हीलर यह जान गया था कि
विद्रोह शीघ्र होगा उसे भयंकर चिंता थी अँग्रेजों के
जान-माल की सुरक्षा की, इसके अलावा उसके पास सरकारी
रकम के १२ लाख रुपए थे इस शत्रुओं से कैसे बचाया जाय,
इस चिंता से भी वह बेहद आक्रांत था उसने नानासहब से
सहायता माँगी नानासहब, तात्या टोपे और ३०० सिपाहियों
के साथ ले कानपुर पहुँचे साथ में दो तोपें भी लेते आए
नानासहब पर खजाने की सुरक्षा का भार सौंपा गया यह
जिम्मेवारी नानासहब पर सौंप व्हीलर निश्चिंत हो गया
बेचारा व्हीलर ! वह जिन्हें मित्र समझ बैठा था, उन दो
दुर्दाँत शत्रुओं के मस्तिष्क में सुलगती हुई
ज्वालामुखी थे, यह देखने में वह असमर्थ था।
कानपुर आते ही
नानासहब ने सिपाहियों के नेता सूबेदार टीकासिंह से
संपर्क साधा नौकाविहार के बहाने, एक दिन नाना गंगा-
तीर आए यहाँ टीकासिंह अपने साथियों के साथ पहले ही
उपस्थित था वे भी नौकारूढ हो गए पवित्र गंगा माँ की
साक्ष और सौगंध ले शपथें ली गईं और योजनाएँ आँकी गईं
यह निश्चय हुआ कि ४ जून मध्यरात्रि को कानपुर पर हमला
हो
निश्चित दिन कानपुर ने वार किया सिपाही विद्रोह कर उठे
यह भयंकर प्रतिशोध का युद्ध था नानासहब और तात्या टोपे
ने सैन्य – संचालन किया अँग्रेजों का बुरा हाल था बहुत
से खेत हुए और अनगिनत फिरंगियों ने मौत के मुँह में
तड़प-तड़प कर दम
तोड़ा बारह लाख रुपए की रदबदली एक क्षण में हो गई
सिपाहियों ने कानपुर पर अधिकार जमा लिया।
उसके आनन्द और उत्साह की सीमा नहीं थी नानासहब को
विधिपूर्वक समारोह से पेशवा पद पर आरूढ़ किया गया देश
का एक वीरपुत्र फिर से देश का राज्यकर्ता बना।इस
स्वतन्त्रता- संग्राम में झाँसी ने कानपुर का शीघ्र ही
अनुसरण किया लक्ष्मीबाई ने फिर से झाँसी की गद्दी पर
अपने अधिकार की घोषणा की नंगी तलवार हाथ में लिए वह
युवती रानी विद्युल्लता की तेजी और चमक से युद्धभूमि
पर उतरी कानपुर और झाँसी के विद्रोह के समाचार आग की
तरह चारों ओर फैल गए समूचा उत्तरावर्त सुलग पड़ा
अँग्रेज स्त्री – पुरुष जहाँ- तहाँ सुरक्षा और सहारा
पाने के लिए भागने लगे मानो किसी सोते हुए दैत्य की
निद्रा टूट गई थी और उसकी विकरालता देख अँग्रेज भयभीत
थे।
पर यह विजय अल्पजीवी थी अँग्रेजों की ताजी कुमक कानपुर
पहुँची और दोबारा अति भयंकर लड़ाई छिड़ी इस बार १६ जून
को, नानासहब बचे-खुचे सिपाहियों को ले पीछे हट गए
तात्या टोपे छाया की भाँति नानासहब के साथ रहे नानासहब
को हर –हालत में बचना यही मानो उनका जीवन – प्रण था
पराजय से सिपाही बुरी तरह हतोत्साहित हो गए थे
अँग्रेजों की सुनियंत्रित, रणकुशल और अनुशासित फौज का
मुक़ाबला वे कर
नहीं सकते थे एक भीषण प्रश्न था सेना का पुन: संगठन
?कौन इनके दिलोदिमाग को हिम्मत और प्रेरणा से भर सकता
है? इस प्रश्न का एक ही अनिवार्य उत्तर था- तात्या
टोपे नानासाहब ने यह महान उत्तरदायित्व तात्या को
सौंपा, और उसे स्वतन्त्रता का झण्डा फहराते रखने की
आज्ञा दी नाना की आज्ञा तात्या ने शिरोधार्य की
संपूर्ण आयु में, अब तक वे साथ रहे थे जहाँ नाना वहाँ
तात्या – मानो एक प्राण दो शरीर अब वियोग की बेला थी
तात्या अपने उत्तरदायित्व की गुरुता,कठिनता और महत्त्व
से अपरिचित नहीं थे अनेक कठिन समस्याएँ थीं बिखरे हुए
सिपाहियों का संगठन, उनके अन्न तथा आश्रय की व्यवस्था,
शस्त्र एकत्रित करना, दैनिक अनेक प्रकार की आवश्यकताओं
की पूरा करने की व्यवस्था करना अनगिनत समस्याएँ उन्हें
ग्रस रही थीं, दूसरी ओर सब प्रकार से सुसज्जित और पूरी
तरह से लैस अँग्रेज सेनानी
थे फिर भी तात्या ने यह
कठिन आहवान स्वीकार किया।
पहले वे सीधे शिवराजपुर गए वहाँ की रेजिमेंट ने हाल ही
मे विद्रोह किया था तात्या ने विद्रोही सिपाहियों को
अपनी ओर कर लिया एक नई सेना फिर से संगठित की इस
प्रकार सिपाहियों की भारी संख्या साथ लेकर तात्या ने
कानपुर के विजेता हेवलाक पर आक्रमण कर दिया हैवलक लखनऊ
की ओर बढ़ रहा था इस अचानक आक्रमण से अँग्रेज
किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए मानों वज्राघात हो गया हो
मराठों की गुरिल्ला युद्धप्रणाली के जरिए तात्या टोपे
इतनी शीघ्रता से आते –जाते कि शत्रु चकरा जाते
उन्होंने हेवलाक की फौज की नाक में दम कर दिया फिर
तात्या की दृष्टि काल्पी पर पड़ी काल्पी कानपुर से ४५
मील दूर थी वह केंद्रीय स्थल पर बसी होने के कारण एक
ओर फतेहपुर और दूसरी ओर नानासाहब और लक्ष्मीबाई के
मुख्यालय झाँसी को जोड़नेवाली मुख्य कड़ी के समान थी यह
बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था वनराज सिंह
की भाँति तात्या ने
काल्पी के किले पर छापा मारा और अविलंब उसे हस्तगत कर
लिया
अब तात्या ने काल्पी को युद्धविषयक कारवाइयों के हेतु
मुख्य छावनी में परिवर्तित करने का कार्य आरंभ कर दिया
उसने किले की सुरक्षा को और मजबूत किया वहीं शस्त्र
तैयार करने का काम भी आरंभ हुआ काल्पी एक कारखाना भी
बन गई शत्रुओं के मर्मस्थल जैसे स्थान में तात्या
आश्चर्यजनक कार्य कर रहा था अत्यंत तीव्रगति से तात्या
ने कई किले जीत लिए ये किले कानपुर को ग्वालियर से
सन्नद्ध करते थे ग्वालियर रेजिमेंट अभी तक निष्क्रिय
थी वेश बदल कर तात्या, मोरार में स्थित सिंधिया
रेजिमेंट तक पहुँचे उनके जादुई शब्दों ने सिंधिया के
सिपाहियों का हृदय जीत लिया अब तात्या की सैनिक शक्ति
दुगुनी हो गई क्रान्ति को नया बल मिला
उस समय कानपुर मेजर विडहैम के कमान में था तात्या को
समाचार मिला कि विडहैम की सैनिक संख्या यथेष्ट नहीं है
विद्युतगति से तात्या ने सिपाहियों का संगठन किया,
यमुना पार की और असावधान विडकरालहैम के सम्मुख कराल
काल-सा जा उपस्थित हुआ विडहैम हमले के लिए बिलकुल
तैयार नहीं था फलत: तात्या ने उसे धूलसात कर दिया लड़ाई
पांडु नदी के तीर पर हुई थी नंगी तलवार हाथ में लिए
तात्या एक ही समय यत्रतत्र सर्वत्र दिखाई देता था मानो
साक्षात प्रतिशोध की कराल रूप धारण कर लिया हो अँग्रेज
फौज को न सिर्फ हराया था बल्कि सम्पूर्ण रूप से उसे
तात्या ने ध्वस्त कर दिया था जान- माल की जो हानि हुई
उसने अँग्रेजों को पंगु कर दिया अभी काल्पी के जाने के
आँसू सूखे भी नहीं थे कि कानपुर उनके हाथ से निकल गया
कानपुर पर पुन: विजय प्राप्त कर तात्या ने खोये हुए
गौरव को फिर पा
लिया था।
तात्या टोपे का यश यूरोप के हर कोने में फैल चुका था
बरतानिया के हर एक घर में उसके नाम का आतंक छाया था
संसार ने तात्या टोपे में भारतीय वीरता के साक्षात
दर्शन किए कानपुर एक बार फिर से नानासाहब के हाथ में
था और वह अँग्रेजों द्वारा सताए हुए सैनिकों का संगठन
केंद्र बन गया।
एक अँग्रेज सेना-पदाधिकारी जिसका नाम केम्पबेल था, उस
समय लखनऊ में व्यस्त था अत्यंत युद्ध –पटु कालिन
केम्पबेल ने जान लिया कि सिपाही फौज का नेता कोई मूर्ख
नहीं है जो आतंक और दबदबा तात्या ने फैलाया था वह उसने
अपनी आँखों से देखा था उसने निश्चय किया कि यदि
अँग्रेजों को भारत में टिकना है तो तात्या को गिरफ्तार
करना ही होगा मानो तात्या की गिरफ्तारी अँग्रेजों के
जीने की शर्त बन गई।
उसने तत्काल अपनी सेना एकत्रित की उत्तमोत्तम जनरलों
को युद्ध के मैदान में ले आया और जिससे अँग्रेज सबसे
अधिक घबराते थे उस तात्या टोपे को पकड़ने के लिए एड़ी
चोटी का ज़ोर लगा दिया भयंकर युद्ध हुआ यह संघर्ष
कानपुर के लिए था, पर इस बार रणदेवता ने विजयमाला
अँग्रेजों के गले में डाली नाना साहब के सिपाही भाग
खड़े हुए उनके महल को जला दिया गया लूटपाट से शहर
ऐश्वर्य श्रीहीन हो गया परन्तु फिर कैंपबेल को भयंकर
निराशा हुई क्योंकि तात्या टोपे वहाँ से जा चुका था
कैम्पबेल ने तात्या को पकड़ने के लिए कई लोगों ने जान
की बाजी लगाई थी पर इस सिंह ने उसके सारे प्रयत्नों पर
पानी फेर दिया अँग्रेजों ने जबरदस्त पीछा किया पर यह
तेजकदम गुरिल्ला उनकी पहुँच के बाहर जा चुका था
तात्या टोपे काल्पी आ पहुँचा
अब तात्या टोपे ने राजा- महाराजाओं की ओर ध्यान देना
शुरू किया इनसे राजाओं में इतना देशप्रेम तो था ही कि
वे कम से कम लुके–छिपे सहायता देते थे कुछ ऐसे थे जों
अँग्रेजों के भय के कारण निष्पक्ष थे पर कुछ कुल कलंक
ऐसे भी थे जों स्वामिभक्ति अँग्रेज शासकों के प्रति इस
हद तक निबाहते थे कि अपने ही देशवासियों से शत्रुत्व
करते थे ऐसे शासकों में एक शासक था चरखारी रियासत का
राजा उसने न सिर्फ स्वतंत्रता की पुकार अनसुनी की थी
अपितु उसका व्यवहार नितांत उद्दंड और उद्दाम था उसने
नानासाहब का निरादर किया था तात्या टोपे ने निश्चय
किया कि हरेक देशद्रोही को ऐसा सबक सिखाया जाए, जिसे
वह आजन्म याद रखे चरखारी का शासक तात्या का पहला शिकार
था।
तात्या के आगमन की खबर से चरखारी शासक के होश उड़ गए वह
भयकंपित हो गया भयभीत देशद्रोही ने अँग्रेजों से
सहायता की
प्रार्थना की वाइसराय कैनिंग और कमांडर इन चीफ
केम्पबेल ने रक्षा का आश्वासन दिया उन्होने एक
प्रसिद्ध अँग्रेज जनरल सर हयूरोज को अपने स्वामिभक्त
मित्र की सहायता के लिए दौड़ाया, परंतु सर हयूरोज को
झाँसी में ही रोक लिया गया और वह आगे बढ़ने में असमर्थ
हो गया तात्या को सारी सूचना पहले ही मिल चुकी थी वह
धम्म से चरखारी की राजधानी पर पहुँचा और चारों ओर घेरा
डाल दिया अल्प समय में ही शहर पर कब्जा हो गया साथ में
२४ तोपें और ३ लाख रुपया मिला देशद्रोहियोंको सबक मिल
गया कि तात्या टोपे के क्रोध से उन्हें वाइसराय और
कमांडर इन चीफ भी नहीं बचा सकते अँग्रेजों की इज्जत
मिट्टी में मिल गई जब कभी भी शस्त्र और पैसे की
आवश्यकता होती, तात्या टोपे इन सरकारी पिट्ठुओं का धन
और शस्त्र सरेआम छीन लेता, और अँग्रेज मुँह ताकते रह
जाते थे।
काल्पी को छावनी
बनाकर तात्या ने बड़ी चतुराई की थी अन्यत्र विद्रोही
सिपाहियों ने दिल्ली की ओर कूच किया था और दिल्ली में
इनकी काफी भीड़ हो गई थी राजधानी में ८०,००० सिपाही जमा
हो गए थे पहली विजय के उन्माद में समस्त योजना को सफल
बनाने के लिए आवश्यक था चारों ओर से उसपर एक-सा दबाव
इनकी लापरवाही का परिणाम यह हुआ कि अँग्रेजों ने
जबरदस्त हमला दिल्ली पर कर दिया ये सारे दिल्ली में ही
होने के कारण उन्हें किसी अन्य स्थान से प्रतिकार का
कोई डर ही न था सारी शक्ति एकत्रित कर जो उन्होने
दिल्ली पर फिरंगियों का झण्डा फहरा उठा और शांति –
आंदोलन की कमर टूट गई बहादुरशाह को हिरासत में ले लिया
गया बागी सिपाही जान बचा कर भागे स्वतंत्रता के
संग्राम में भारतीयों को यह हार बहुत महँगी पड़ी।
इधर तात्या टोपे ने कभी “दिल्ली चलो” का नारा नहीं
अपनाया था उसने काल्पी की मजबूत किले-बंदी कर दी वहाँ
दिल्ली गिरी और यहाँ प्रतिद्वंद्वी काल्पी सीना ताने
खड़ी हो गई अँग्रेजों के लिए बड़ी परेशानी थी काल्पी
भारत के गौरव का प्रतीक थी और हर देशप्रेमी के लिए
प्रेरणा का स्रोत वह एक महान शस्त्रागार थी और थी सताए
हुए सिपाहियों का एकमात्र
आश्रय इस काल्पी का
शिल्पकार – निर्माता था- तात्या टोपे।
झाँसी की स्वतन्त्रता के लिए
काल्पी के बाद नंबर था झाँसी का। झाँसी भी अँग्रेजी
सत्ता का बराबर प्रतिकार ही कर रही थी “झाँसी का त्याग
कभी नहीं, त्रिवार नहीं ! जिसमें साहस है वह मुझे
बाध्य करने के लिए आगे आए ! ” झाँसी की रानी
लक्ष्मीबाई का खुला आव्हान था उसने बड़ी बहादुरी से
अँग्रेजों से सामना किया सर हयूरोज जैसे महान अनुभवी
जनरल के सेनापतित्व में अँग्रेजों की फौज ने झाँसी को
चारों ओर से घेर लिया आने-जाने के तमाम मार्ग बंद कर
दिए। परंतु लक्ष्मीबाई ने साहस नहीं छोड़ा केवल २३
वर्षीय इस तरुण विधवा ने अपने थोड़े से सिपाहियों समवेत
युद्ध की समस्त भयानकताओं का डटकर सामना किया साक्षात
रणदेवी-सी लक्ष्मीबाई नंगी तलवार हाथ में लिए सदा सबसे
आगे रहती थी सर हयूरोज लगभग सौ लड़ाइयाँ जीत चुका था पर
उसने भी रानी लक्ष्मीबाई का वर्णन
“सर्वोत्तम-वीर–शिरोमणि” इन शब्दों में किया है। धन्य
है रानी लक्ष्मीबाई। लक्ष्मीबाई के साहसी प्रतिकार के
समाचार से तात्या का रोम-रोम हर्षित हो उठा यह अभिमानी
रानी और कोई नहीं,तात्या टोपे की बाल–सहचरी “छबीली” थी
तात्या के आनंद की सीमा न थी पर हाय दुर्दैव ! यह
आनन्द भी अधिक
समय टिक न सका समाचार मिला कि झाँसी का किला खतरे में
है सर हयूरोज ने घेरा सख्त कर दिया झाँसी अन्नहीन,
शस्त्रहीन और सेनाहीन हो गई थी रानी लक्ष्मीबाई की
गिरफ़्तारी और झाँसी की हार निश्चित-सी थी रानी
लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे से सहायता माँगी।
तात्या टोपे इस पुकार को अनसुनी न कर सके। अब उनका एक
लक्ष्य था – झाँसी का त्राण – छुटकारा। एक-एक क्षण
बहुमूल्य था तात्या ने भारी तादाद में सैनिक एकत्रित
किए।
२२ हजार सिपाहियों के साथ तात्या झाँसी को ओर बढ़े
झाँसी जों सहायता के लिए चीत्कार कर रही थी तात्या ने
जगह-जगह जंगल में आग लगा दी ताकि रानी जान ले कि
तात्या आ रहा है। झाँसी में घिरे हुए लोग पल छिन गिन
रहे थे जानलेवा चिंता के शिकार बने, जाने कितने घंटे
बीत चुके थे तात्या की ओर बढ़ती हुई फौज ने उन्हें
नवजीवन दिया।
पर झाँसी का भाग्य खोटा था सर हयूरोज, बराबरी की जोड़
पर खरा उतरा। उसने डटकर सामना किया तात्या की फौज बुरी
तरह हारी तात्या शेर की तरह लड़ा, पर उसकी सेना उसके
पासंग के बराबर भी नहीं थी वास्तव में वह फौज कहलाने
के योग्य ही नहीं थी एक ही हमले में सारी सेना ताश के
मकान सी धराशायी हो गई उनकी तोपें शत्रुओं के कब्जे
में चली गईं और
अब उन्हीं तोपों का मुँह झाँसी की ओर घुमा दिया गया
तात्या को बचे खुचे लोगों के प्राण बचाने के लिये वापस
लौटना पड़ा जीत की आशा निराशा के अंधकार में परिवर्तित
हो गई
तात्या झाँसी को न बचा सके ऐसा लगता था जैसे झाँसी अब
गई तब गई सर ह्यू रोज का उद्देश्य रानी को कैद करना था
पर रानी वीरबाला थी उसने सैनिक वेश धारण किया और किले
के नीचे उतर पड़ी और फिर आधी रात में किले के बाहर
निकल गई अँग्रेजों ने यह बात पता चलते ही उन्होंने
रानी का पीछा किया मुठभेड़ियों का रानी ने प्रतिकार
किया और उनके मुखिया डॉकर को जख्मी कर दिया उसका घोड़ा
काल्पी की ओर दौड़ रहा था प्रातःकाल होने के पहले ही
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई काल्पी पहुँच गई।
लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे का मिलाप हुआ। अब ह्यूरोज
ने अपना ध्यान काल्पी की ओर किया तात्या की गद्दी
काल्पी मानो अँग्रेजों की शक्ति का परिहास कर रही थी
समय था कि काल्पी पर वार किया जाए। एक बारी फौज लेकर
ह्यूरोज ने काल्पी की ओर कूच किया और काल्पी के किले
पर जबरदस्त आक्रमण कर दिया तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई
भूमि के एक एक चप्पे के लिये लड़े किंतु समय विपरीत था
लगातार लड़ाइयों के बाद काल्पी दुश्मनों के हत्थे चली
गई बेशुमार धन और
शस्त्र अँग्रेजों के हाथ लगे अनेक वर्षों के सतत
परिश्रम और पसीने पर पानी फिर गया काल्पी धूल में मिल
गई।
विद्रोही सिपाही हताश हो गये उन्हें कहीं भी आशा की
किरण नजर नहीं आती थी पर तात्या ने अभी भी हिम्मत नहीं
हारी थी काल्पी की पराजय होते ही तात्या वहाँ से
नौ-दो-ग्यारह हो गये वह लुकते-छिपते ग्वालियर पहुँच
चुके थे ग्वालियर मराठों के हाथ में था तात्या ने वहाँ
पहले से ही संपर्क साध रखा था वहाँ के सैनिकों से मिला
और उनकी राष्ट्रीय भावनाओं को उसने जागृत किया उसके
ज्वलन्त राष्ट्रप्रेम ने सबको प्रभावित किया उनको
राष्ट्रीय ध्वज के नीचे एकत्रित करने में उसे तनिक भी
विलम्ब न लगा अँग्रेजों के स्वामिभक्त मित्र ग्वालियर
के शासक और उनके मंत्री को भागना पड़ा। अँग्रेज अभी
काल्पी विजय का जश्न मना रहे थे कि उन्हें तात्या की
ग्वालियर-विजय का समाचार मिला। वे अवाक् रह गये कानपुर
के बाद काल्पी और काल्पी के बाद ग्वालियर आश्चर्य !
महान आश्चर्य !! मनुष्य रूप में यह कौन अलौकिक जीव है
? सिपाही अब ग्वालियर में विजय नगाड़े पर भावी
क्रांतियुद्ध की घोषणा कर रहे थे।
सर हयू रोज ने अविलम्ब कदम उठाया उसने ग्वालियर पर
धावा बोल दिया १८ जून १८५८ को किले पर आक्रमण हुआ
तात्या और रानी लक्ष्मीबाई ने नेतृत्व सम्हाला
प्रयत्नों में कोई कोर कसर न रखी पर भाग्य को कौन टाल
सकता है पराजय मानों उनका पीछा कर रही थी इसलिये घायल
अवस्था में भी उसने अपने घोड़े को एड दी और निकल पड़ी
शरीर खून से तरबतर था पर अँग्रेज पीछा कर रहे थे और
रानी का घोड़ा सरपट भाग रहा था अन्त निश्चित था पर
आखिरी दम तक
घोड़े की रफ्तार ज्यों की त्यों थी। रक्तरंजित शरीर
रूधिर-स्नाता लक्ष्मीबाई ने घोड़े की पीठ पर प्राण
त्यागे रानी की मृत्यु से मानों सिपाहियों को लकवा मार
गया और तात्या टोपे तो इस बड़े संसार में नितान्त
अकेला और मित्रहीन हो गया।
अवसान का समय समीप था क्रान्ति की लपटें निस्तेज हो
रही थीं नेता गायब हो गये थे सिपाही तितर-बितर थे कोई
भी राजा तात्या की सहायता के लिये तैयार नहीं था वह अब
नितान्त अकेला था विजय की आशा हार के निश्चय में बदल
चुकी थी वह अपने गले में पड़ा हुआ फन्दा स्पष्ट रूप से
देख रहा था पर यह दृढ निश्चयी वीर फिर भी हार मानने से
इन्कार कर रहा था पराजय उसे अस्वीकार थी लड़ना छोड़
दे, प्रयत्न छोड़ दे ? असम्भव ! कभी नहीं, कभी नहीं।
सबसे प्रबल और खतरनाक क्रान्तिकारी ’तात्या‘ अभी तक
स्व्च्छन्द था मुक्त था वह अँग्रेजों का प्रमुख शत्रु
था आठ रणकुशल योद्धा, आठ महीनों से तात्या का पीछा कर
रहे थे कि उसे पकड़ ले, पर वह उनकी शिकंज में आता ही
नहीं था शहर, जंगल, पहाड़, खंदक, रेगिस्तान- वह चारों
ओर घूमता था आज यहाँ तो कल वहाँ, अभी इधर तो अभी उधर
जहाँ उसके जीने की तनिक भी संभावना न होती, वह वहीं
पहुँच जाता था सब कुछ मिट गया, मिट जाए, वह अभी भी एक
फौज एकत्रित कर सकता है, अभी भी एक और युद्ध में जूझ
सकता है, अभी भी एक और पराजय झेल सकता है पर लड़ने से
वह मुँह न मोड़ेगा भयानक बाढ पर उफन रही नर्मदा पार कर
लेना तात्या कि लिये सहज था यह सब कुछ वह कैसे कर पाता
था-ईश्वर ही जाने हाँ, यह अलबत्ता सत्य है कि तात्या
अपने समय में ही एक जीवंत दन्तकथा बन गये
थे आश्चर्यजनक और रहस्मय
!!
स्वतंत्रता-संघर्ष बुरी तरह अपयशी हो चुका था रानी
विक्टोरिया ने घोषणा कर दी कि हथियार सौंपकर शरणागत
आने वाले सारे विद्रोहियों को क्षमा प्रदान की जाएगी
इस घोषणा का लाभ उठाकर कई विद्रोहियों ने प्राण बचाने
के लिये शरणागत होना स्वीकार कर लिया और अपने शस्त्र
अँग्रेजों को अर्पण कर दिये।
न कोई फौज, न किला, न कहीं से कोई सहायता की आशा !
तात्या बिलकुल असहाय थे हैदराबाद के निजाम सहायता का
आश्वासन दे मुकर गये थे ग्वालियर के शासक सिंधिया ने
मैत्री के बढाए हुए हाथ को ठुकरा दिया था चारों ओर
पराजय और निराशा विकट अट्टहास से तात्या का स्वागत कर
रही थी।
१८५७ की क्रान्तिज्वाला धुएँ की लकीर मात्र बन कर रह
गई थी एक ही प्रदीप्त शिखा बची थी वह थी तात्या टोपे
उन्होंने छोटी-बडी ड़ेढसौ लड़ाइयाँ लडी थीं दस हजार
अँग्रेज सैनिकों को नचाया था उनकी नंगी तलवार कई
रणचतुन प्रसिद्ध योद्धाओं और जनरलों को मौत के घाट
उतार चुकी थी अँग्रेजों को सर्वाधिक भय केवल तात्या का
था उन्होंने तात्या को शैतान की
पदवी दे रखी थी।
पर अब यह शूर, दन्तनखविहीन शेर की तरह लाचार था कहीं
पैर रखने को ठिकाना नहीं, कहीं सिर छुपाने को स्थान
नहीं ! कहीं क्षणभर चैन से सोने के लिये छत नहीं वह उस
वनराज की भांति था जिसके पीछे असंख्य शिकारी लगे हुए
हों तात्या की गिरफ्तारी के लिये मानों होड़-सी लगी थी
कि कौन इस क्रान्तिशिरोमणि को पकड़े उनके पकड़ने या
उनका पता देने के लिये भारी इनामों की घोषणा कर दी गई
थी तात्या के प्रति तनिक भी सहानुभूति दिखाना मानों
अँग्रेजी सत्ता के कोप को न्यौता देना था तात्या
रात-दिन सुरक्षित स्थान की खोज में एक जगह से दूसरी
जगह, यहाँ से वहाँ मारा-मारा फिर रहा था।
उसके सामने दो मार्ग थे लड़ते-लड़ते मौत को अपनाना या
उन लोगों का अनुकरण करना जो दया की भीख माँगते हुए
शरणागत हो गये थे शरणागत-कभी नहीं ! तात्या पददलित और
अपमानित होने से पहले मौत को गले लगाएगा बेइज्जत
जिन्दगी से
मानयुक्त मौत बेहतर है। यह सच था कि तात्या की पराजय
हुई थी, पर उसकी राष्ट्रभावना, राष्ट्रप्रेम और उत्साह
अदम्य था उसे निरूत्साहित करना असंभव था।
उस कठिन परिस्थिति में तात्या को याद आया एक पुराना
मित्र मानसिंह ग्वालियर फौज में एक सरदार था वह राजा
का साथ छोड़ कर विद्रोहियों से आ मिला था तात्या ने
उसका स्वागत किया था उसकी सहायता की थी उसका सम्मान
किया था बसेरे की खोज में तात्या पारोन के उस जंगल में
आया जहाँ मानसिंह छिपा था तात्या का विश्वास था कि वह
सबसे सुरक्षित स्थान है।
मानसिंह का आश्वासन
अँग्रेज ताक में थे ही उन्हें खबर मिल गई कि तात्या
कहाँ छिपा है अब तक उन्होंने सैन्यबल और चतुराई से
तात्या को हतबल कर जीतना चाहा था और उन्हें असफलता ही
हाथ लगी थी बाल से भी बारीक संधि पा तात्या सदा ही
उनकी चुंगल से निकल भागा था वे दुबारा ऐसे खतरे का
मार्ग नहीं अपनाना चाहते थे इसलिये उन्होंने खलमार्ग
अपनाया और कुटिलता से तात्या को जीतना चाहा उन्होंने
मानसिंह को संदेशा भेजा कि वह तात्या को उन्हें सौंप
दे बदले में उसे संपूर्ण माफी और जागीर देने का
प्रलोभन दिया मानसिंह लालच में पड़ गया विश्वासघात की
विजय हुई लालची कायर मानसिंह तात्या को अँग्रेजों के
हवाले करने के लिए तैयार हो गया एक सेना की टुकडी चोरी
छिपे जंगल में लाई गई तात्या, मित्र के विश्वास से
आश्वस्त हो जंगल को सबसे सुरक्षित स्थान समझ, गहरी
निद्रा में बेखबर था सोये हुए वीर तात्या के साथ
जबरदस्त विश्वासघात किया गया आँख खुलते ही उसने अपने
आपको बंदी पाया वह ७ अप्रैल १८५९ की मध्यरात्रि
का समय था जब यह सिंह
पिंजरे में डाला गया।
सिपाही तात्या टोपे को शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर
में ले गए वहाँ तीन दिन तक ’’न्यायपूर्ण मुकदमे‘‘ का
नाटक खेला गया तात्या पर अँग्रेजों के विरूद्ध युद्ध
करके राजद्रोह करने का मुकदमा चलाया गया तात्या का सर
ऊंचा रहा अंतिम क्षण तक उसने कोई पश्चाताप व्यक्त नहीं
किया अँग्रेजों को घृणापूर्ण दृष्टि से देख उसने गरज
कर कहा-’’मैं आपका नौकर नहीं हूं, मेरे स्वामी पेशवा
हैं और मैं उन्हीं की आज्ञा मानता हूँ न्यायपूर्ण
युद्ध के मैदान को छोड़ मैंने कभी किसी बेकसूर का रक्त
नहीं बहाया मैं आपसे कोई क्षमायाचना नहीं करता बल्कि
मेरा अनुरोध है कि आप मुझे तोप के मुँह पर रख मेरी
धज्जियाँ उड़ा दें, या फाँसी का फंदा डाल मुझे फाँसी
के तख्त पर चढा दें मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिये !‘‘
मृत्यु के मुँह में यह कैसा अनोखा हृदयहारी रोमांचकारी
शौर्य था !
न्याय का स्वांग तीन दिन के बाद समाप्त हो गया
न्यायाधीश तात्या टोपे को मृत्युदंड की सजा सुनाने में
तनिक भी न झिझके नियतसमय पर वधस्थल पर खड़े तात्या
टोपे की शान्ति, शौर्य और साहस अद्भुत और अलौकिक था
लोग अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखते रहे और भारत का लाडला
फाँसी पर चढ गया यह शहीद की मौत थी तात्या देशभक्तों
के सिरमौर थे अँग्रेजों ने उन्हें खूनी कहा, चोर कहा,
विद्रोही कहा पर कृतज्ञ भारत अपने इस वीर सपूत के
त्याग को कैसे भूले ? तात्या टोपे की याद जब तक सूर्य
चमकता रहेगा तब तक ताजा रहेगी।
२४
सितंबर २०१२ |