अमर कहानी

 
सुभाषचंद्र बोस
प्र.ग. सहस्रबुद्धे


आनंद और चिंता

सितंबर सन् १९२० कर अन्तिम सप्ताह। कटक के वकील जानकीनाथ बोस अत्यंत प्रसन्न थे। उनका लाडला सुभाषचंद्र आय. सी. एस्. की कठिन परीक्षा, चौथा क्रमाँक पाकर, उत्तीर्ण हुआ था। अभिमान के साथ वे सबसे कहते थे, “मेरा सुभाष बहुत बुद्धिमान है। प्रथम तो इस परीक्षा में बैठने का उसका मन नहीं था। जिस जहाज से वह निकला, वह दो मास देरी से लंदन पहुँचा। केवल सात मास की पढ़ाई के भरोसे उसने उत्तम यश प्राप्त किया। वह जिलाधीश बनेगा; उच्चतर पद पायेगा।”

जानकीनाथ यह सब कहते अवश्य थे, परंतु उनका मन आशंकाओं से घिर भी जाता था। क्या सुभाष अंग्रेज अधिकारियों के सामने झुकेगा? क्या वह अपने ध्येय तथा विचारों को बदलेगा? सुभाष के पूर्वजीवन के कई प्रसंग उन्हें स्मरण हो आते। फिर वे चिंतामग्र हो जाते। माता प्रभावती देवी ने मनौतियों-को पूरी करते हुए समारोहों के साथ पूजापाठ किया। वे सोचती-मेरे सुभाष को बहुत बड़ी तनख्वाह मिलेगी। मैं बड़े ठाठ से उसका विवाह करूँगी। परंतु क्या वह नौकरी करेगा? वह तो बचपन से स्वाभिमानी और जिद्दी रहा है। माता-पिता की आँखों के सामने सुभाष के पूर्वजीवन के अनेक चित्र साकार होने लगे।

अन्याय का विरोधी

सुभाष का जन्म कटक नगर में २३ जनवरी १८९७ को हुआ था। जब वह पांच वर्ष का हुआ तब उसे ’प्रोटेस्टंट यूरोपियन स्कूल‘ में भरती किया गया। उस पाठशाला में अंग्रेज लड़के भी पढ़ते थे। वे भारतवासी विद्यार्थियों को गालियाँ देते तथा उन्हें मारते।
एक दिन मध्यावकाश में, अंग्रेज बच्चे मैदान में खेल रहे थे। सब स्वदेशी विद्यार्थी पेड़ के नीचे बैठे थे। सुभाष ने उन्हें पूछा, ’क्या तुम्हें खेलना नहीं भाता?‘
उन्होंने कहा, ’भाता तो बहुत है, परंतु वे हमें मैदान में नहीं आने देते।‘
यह सुनकर सुभाष ने कहा, ’क्या, ईश्वर ने तुम्हें हाथ नहीं दिए हैं? क्या तुम गोबर मिट्टी के बने हो ? निकालो गेंद।‘
बच्चे पहले तो कुछ झिझके परंतु जब सुभाष ने गेंद उछाली तब सब दौड़ पड़े। अंग्रेज बच्चे उन्हें रोक न सके। दो दलों में घमासान झगड़ा हुआ। भारतीयों ने अंग्रेजों को खूब पीटा। शिक्षक दौड़ पड़े। प्राचार्य आये। सीटियाँ बजीं। प्राचार्य ने कुछ समझाया, कुछ डाँटा। सब अपनी कक्षाओं में गए।
चौथे दिन अंग्रेज बच्चों ने योजना बनाकर आक्रमण किया। सुभाष के नेतृत्व में भारतीयों ने उनकी खूब पिटाई की। प्राचार्य ने जानकीनाथ बोस को चिट्ठी लिखी-’उनका पुत्र पढ़ाई में उत्तम है परंतु वह गुट बनाकर मारपीट करता है, उसे समझाइये।‘
पिताजी ने सुभाष को बुलाकर पूछा। पूरी घटना सुनाने के बाद उसने कहा, ’आप भी प्राचार्यजी को चिट्ठी लिखें कि आप अंग्रेज बच्चों को समझाइये। यदि वे गालियाँ देंगे और मारेंगे तो हम करारा जबाब देंगे।‘

आग बिजली और तूफान

सन् १९०७ की बात है। सुभाष के मामा उसे कलकत्ता ले गए। तीन ही दिनों में वापस आकर मामा ने बहन से कहा, ’संभालो अपना लाडला।‘
प्रभावती देवी ने पूछ, ’क्यों ? क्या हुआ?‘
मामा ने कहा, ’क्या नहीं हुआ सो पूछो। हमारे कलकत्ता पहुँचने के पूर्व दिन वहाँ एक सनसनीखेज घटना हुई। पन्द्रह वर्ष के सुशीलकुमार सेन ने हट्टेकट्टे अंग्रेज सार्जन्ट को बहुत मारा। किंग्जफोर्ड ने उसे पन्द्रह बेंत मारने की सजा सुनाई। वह-सब सुनकर सुभाष ने एकाकी जिद पकड़ी, ’मामाजी, मुझे न मिठाई खानी है न कपड़े खरीदने हैं, मुझे तो सुशीलकुमार सेन के दर्शन करने हैं।‘ जहाँ सुशीलकुमार को बैंत मारे जाने वाले थे, वहाँ मैं इसे ले गया। चारों ओर भीड़ थी। उसे चीरकर सुभाष आगे जा खड़ा हुआ। हर मार के साथ सुशीलकुमार गरजता था, ’वंदे मातरम् !‘ इधर सुभाष काबू से बाहर हो रहा था। बड़ी मुश्किल से मैं उसे वहाँ से निकाल सका। लो संभालो इसे। इसमें आग, बिजली और तूफान, तीनों एकत्र हो गए हैं।‘

जीवन के आदर्श

कलकत्ता से आने के बाद सुभाषचंद्र एक पुस्तिका में क्रान्तिकारियों के चित्र चिपकाने लगा। नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई से लेकर, वासुदेव बलवंत, चाफेकर बंधु, प्रफुल्लचंद्र चाकी, खुदीराम बोस आदि के चित्र उसमें थे। ऊपर लिखा था- ’मुझे ऐसे ही जीना है‘, ’मुझे ऐसा ही मरना है।‘

एक बार जानकीनाथ के रिश्तेदार पुलिस अधिकरी, उनके घर आये। उनके हाथ वह चित्रसंग्रह पड़ा। उन्होंने उसे जानकीनाथ को दिखाते हुए कहा, ’तुम स्वयं शासकीय पद चाहते हो, बच्चों के लिए ऊँची नौकरियाँ चाहते हो और तुम्हारे घर में क्या पक रहा है? इसे घर में न रखो।

डस पुस्तिका को जला दिया गया। सुभाष के घर आने पर उसे वह ज्ञात हुआ। वह फूटफूटकर रोने लगा। दो दिन उसने कुछ भी नहीं खाया।

निश्चयी विद्यार्थी

जनवरी सन् १९०९ में सुभाषचंद्र रेव्हनशा कॉलेजिएट स्कूल में भरती हुआ। अब तक के यूरोपियन स्कूल में बंगला का नाम तक नहीं था। रेव्हनशा में बंगला भाषा आवश्यक विषय था। छः माही परीक्षा में ’गाय‘ पर निबंध आया। सुभाष ने बीस पंक्तियाँ लिखीं। उनमें पचास गल्तियाँ थीं। शिक्षक ने उस निबंध को कक्षा में पढ़ा। विद्यार्थी खूब हँसे। सब विषयों में सुभाष को अच्छे गुण थे, परंतु बंगला में वह अनुत्तीर्ण रहा। उसने तुरंत ही बंगला का अभ्यास करने का निश्चय किया। वार्षिक परीक्षा में बंगला में उसे सर्वाधिक गुण प्राप्त हुए। शिक्षक ने उसे बहुत शाबाशी दी।

इस विद्यालय में वीणामाधव नाम के ऋषितुल्य शिक्षक थे। उनका जब तबादला हुआ तब सुभाष बहुत रोया। पत्र द्वारा उसने उनसे संबंध रखा। वे भी अपने पत्रों से, सुभाष को नई प्रेरणा देते थे। एक बार उन्होंने लिखा, प्रकृति की शरण में जाओ। चेतनाघन प्रकृति के समान मनुष्य का न कोई मित्र है न मार्गदर्शक। सृष्टि के दृश्य केवल नयनाभिराम ही नहीं हैं। वे अन्तरात्मा में नए सामर्थ्य का संचार कराते हैं। सुभाषचंद्र प्रति संध्या समय नदी के किनारे जा बैठता था। डूबते हुए सूर्य को वह टकटकी लगाकर देखता था। चारों ओर की शान्ति वह हृदय में भर लेता था।

अंतरंग

सुभाष के भाई उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता रहने लगे। माँ उनके पास रहने लगी। सुभाष माता को पत्र लिखता था। उनमें इस प्रकार के विचार रहते थे। “-जो भी प्राप्त करें वह सब हम श्रीहरि के चरणों में समर्पित करें। मनुष्य और पशु में एक अंतर है। पशु ईश्वर की न कल्पना कर सकते हैं, न प्रार्थना। मुझे श्रद्धा चाहिए। परमेश्वर के सर्वसामर्थ्य संपन्न स्वरूप पर मुझे श्रद्धा रखनी होगी। श्रद्धा से भक्ति प्राप्त होती है और भक्ति से ज्ञान---

पुष्पवाटिका में प्रतिदिन नये फूल खिलते हैं। उसी प्रकार मेरे मन में नित्य नई कल्पनाएँ उमड़ती हैं। इन मानसिक आविष्कारों को मैं तुम्हारे चरणों में चढ़ाता हूँ। ये सब तुम्हें सुगंधि के समान सुख देते हैं या कांटों के समान कष्ट ? माँ, तुम मेरी निकटतम आत्मीय हो इसलिए मैं तुम्हें बार-बार चिट्ठियाँ लिख अंतरंग से अवगत कराता हूँ।

इस युग में परमेश्वर ने बाबू लोग नाम की अद्भुत वस्तु उत्पन्न की है। ईश्वर ने हमें भले-चंगे पैर दिए हैं परंतु हम चालीस पचास मील चल नहीं सकते क्योंकि हम बाबू हैं। हमारे हाथ भी हैं। परंतु उनका उपयोग करने में हमें लज्जा आती है क्योंकि हम बाबू हैं। ईश्वर ने हमें हृष्टपुष्ट शरीर दिया है परंतु हम कष्टों से जी चुराते हैं। हम आलसी और अकर्मण्य बने हैं। जन्मे जाड़े के दिनों में लबादा ओढ़कर हुःहुःहुः कहकर बैठे रहते हैं क्योंकि हम बाबू हैं।

हम मनुष्याकार पशु नहीं, पशु से भी गये बीते हैं। बुद्धि होते हुए हम उसका उपयोग नहीं करते। हम सुखासीन और विलासी बन, अपनी क्षमताएँ खो-बैठे हैं।‘ सुभाष का पत्र आते ही सब भाई उस पर टूट पड़ते। फिर उसका सामूहिक वाचन होता था और खूब चर्चा छिडती थी। सतीश कहता, ’पन्द्रह वर्ष की आयु में इसे खाने पीने, खेलने में मग्न होना चाहिए।‘ शरद कहता, ’गगन को छूने वाले विचार और सुडौल भाषा शैली, यह सब इसने कहाँ से पाया ?‘ सुरेश कहता, ’कोई महात्मा इसे हिमालय न ले जाए‘, इन उद्गारों को सुन प्रभावती देवी का मन कांप उठता। कलकत्ता आने पर जानकी बाबू भी उन पत्रों को पढ़ते थे। वे कहते, “इतने प्रौढ और सुन्दर विचार ! कोई गत जन्म का सिद्ध महात्मा हमारे घर जन्मा है।”

ध्यानधारणा

एक दिन सुभाष विवेकानंद ग्रंथावलि ले आया। वह उसका पठन मनन करने लगा। अपने पाठ्यपुस्तकों पर वह ’आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धितायच‘ लिखने लगा। कटक के अनेक विवेकानंद प्रेमी उसने जुटाए। वे सब एकान्त स्थान में ध्यान, पठन, भजन करते। सुभाष घर के कोने में आँखें मूँदकर घण्टों बैठा रहता। कभी वह वन में चला जाता। सब सुभाष के भविष्य की चिन्ता करने लगे।

मार्च १९१३ में उसने मैट्रिक की परीक्षा दी। सुभाष को किसी ने पढ़ते हुए नहीं देखा था। वह अपनी उत्तर पुस्तिका समय से बहुत पूर्व शिक्षक को थमा देता था। सब उसके बारे में निराश थे। परंतु सुभाष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। सम्पूर्ण प्रान्त में उसका दूसरा क्रमाँक आया।

सेवाकार्य

सुभाष अब कलकत्ता के प्रेसिडेन्सी कालेज में जाने लगा। कलकत्ता के ’नवविवेकानंद समूह‘ का वह सदस्य बना। विवाह न करने की तथा दीनदुखियों की सेवा करने की उसने शपथ ली। आध्यात्मिक उन्नति और सामाजिक सेवा को प्रत्यक्ष में लाने हेतु वह प्रयोग करने लगा। उसके निवास स्थान के सामने एक वृद्ध भिखारिन बैठती थी। उसके बाल सफेद थे। चेहरे पर झुर्रियाँ थीं। वह चिथड़े पहनती थी। सुभाष ने सोचा, मुझे इसे कुछ देना चाहिए। परंतु पिताजी के भेजे पैसे नहीं, स्वयं के कष्ट के पैसे।

प्रेसिडेन्सी कॉलेज तीन मील दूर था। सुभाष वहाँ ट्राम से जाता आता था। उसने पैदल जाना शुरू किया और ट्राम के किराये के पैसे वह प्रतिदिन बूढ़ी भिखारिन को देने लगा। पिताजी को जब यह ज्ञात हुआ, तब उन्होंने अपना माथा ठोक लिया। ’समूह‘ के सदस्यों ने आठ दिनों का शिविर रखा। सब ने भगवा कपड़े पहने और झोली हाथ में लिए धनधान्य जुटाया। इस शिविर में मेडिकल कालेज के छात्र भी थे। उनमें से केशव बलिराम हेडगेवार के साथ सुभाष का विशेष स्नेहसंबंध प्रस्थापित हुआ। सुभाष और केशव हेडगेवार ने अनेक बार कंधे से कंधा भिडाकर सेवा कार्य किया। बाढ, हैजा, अकाल आदि आपत्तियों से लड़ते-लड़ते देश की वास्तविक परिस्थिति का उन्हें दर्शन हुआ। सर्वत्र दारिद्रय, दैन्य, अज्ञान, अकर्मण्यता, आलस्य तथा भीरूता का राज्य था। कौन इसे बदलेगा ? यह प्रचण्ड कार्य कौन करेगा ? ऐसे प्रश्न उनके हृदयों को कचोटने लगे।

सद्गुरू की खोज

सन् १९१४ के मई मास में सुभाषचंद्र मित्र हरिपाद चट्टोपाध्याय के साथ गुरू की खोज में निकल पड़ा। न घर में बताया न पैसे लिये। हृषिकेश से वाराणसी तक अनेक तीर्थक्षेत्रों में वे गए। जटाजूट, भगवी कफनी, धुनी आदि देखकर वे माथा नमाते रहे। निराश हो, आगे बढते रहे। २५ दिनों बाद सुभाष कलकत्ता आ पहुँचा। शरदा उसे कटक ले आये। उसे देख प्रभावती देवी दौड़ पड़ीं। गले लगाकर रोने लगीं। पास बैठाकर उन्होंने कहा, “क्या अपनी माँ को केवल कष्ट देने के लिए ही तुम जन्मे हो ?”

पिताजी की आंखों से अविरत अश्रुधारा बहने लगी। उनके पूछने पर सुभाष ने पूरा वर्णन सुनाया। पिताजी ने कहा, “तुम वापस आ गए, हम सब कुछ पा गए।” इसके बाद सुभाष को टाइफाइड हुआ। कई दिनों तक वह बिस्तरे पर रहा। जनवरी १९१५ में उसने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी। वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ।

’माफी नहीं माँगूँगा‘

१० जनवरी १९१६ की बात है। प्राध्यापक ओटन ने एक विद्यार्थी को भद्दी गालियाँ दीं और धक्का मारा। सुभाष उसे लेकर प्रिन्सिपाल जेम्स के पास गया। विद्यार्थी ने पूरी आपबीती सुनाई। सुभाष ने प्रिन्सिपाल से कहा, “प्राध्यापक ओटन विद्यार्थियों से हमेशा ही बुरा व्यवहार करते हैं। विद्यार्थियों की सभा में उन्हें खेद प्रकट करना चाहिए।”
जेम्स ने कहा, “ऐसा कभी नहीं होगा।”
विद्यार्थियों ने हडताल कर दी। एक दिन ओटन स्वयं विद्यार्थी सभा में उपस्थित हुए। उन्होंने कहा, “जो हुआ सो भूल जाओ।” विद्यार्थियों ने तालियाँ पीटीं। कालेज पूर्ववत् चलने लगा। परंतु पन्द्रह दिनों बाद ओटन ने फिर से एक विद्यार्थी पर हाथ चलाया। विद्यार्थियों ने वहीं उन्हें घेरा और उनकी पिटाई की।

प्रिन्सिपाल ने सुभाष को बुलाकर कहा, “इस सब की जड़ में तुम हो, तुम माफी माँगो।”
सुभाष ने कहा, “मैं क्यों माफी माँगू ? कसूर तो प्राध्यापक ओटन का है और उन्हें काबू में न रखने वाले आपका है।”
प्रिन्सिपाल ने कडककर कहा, “मैं तुम्हें कॉलेज से निकाल देेता हूँ।”
सुभाष ने कहा, “ धन्यवाद”।

स्वेच्छा सेवा संघ

सुभाष कटक में रहने लगा। उसने अपने मित्रों को जुटाया और ’स्वेच्छा सेवा संघ‘ स्थापित किया। कटक के आसपास के गाँवों में जाकर इस संघ ने बहुत सा सेवा कार्य किया। फिर सुभाष ने अपने साथियों से कहा, “हमारा कार्य केवल प्रासंगिक न रहे। हम उसे स्थायी रूप देंगे। हमारी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक, तीनों प्रकार की उन्नति होनी चाहिए।” वसतिगृह के मैदान में प्रति शाम को युवक जुटने लगे। वे नित्य नियम से व्यायाम, खेल, चर्चा, व्याख्यान आदि करने लगे। सुभाष अनेक विषयों पर अभ्यासपूर्ण भाषण देता था।

एक साल बीत गया। कलकत्ता की परिस्थिति बदल गई। सुभाष को स्काटिश मिशन कॉलेज में प्रवेश मिला। वहाँ उसने विश्वविद्यालय के चातुर्मासिक सैनिक शिक्षा शिविर में भाग लिया। बंदूक चलाना, घुडसवारी, कवायत् आदि बातें उसने सीख लीं। मार्च सन १९१९ में सुभाष ने बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उसका द्वितीय क्रमाँक आया।

आय. सी. एस. का त्याग

सुभाष के पूर्व जीवन के ऐसे सारे प्रसंग जानकीबाबू तथा प्रभावती देवी की आंखों के सामने आने लगे। उनके मन में तरह तरह की शंकाएँ उठीं- आये दिन अंग्रेज अधिकारी अधिकाधिक उन्मत्त हो रहे हैं। सुभाष का किसी उद्दण्ड अंग्रेज से पाला पड़ा तो ? हे राम, मेरे सुभाष का क्या होगा ? अंग्रेजों के साथ उसकी कैसे निभेगी ? उन्हें शीघ्र ही पता चला कि सुभाष ने आय. सी. एस. से त्यागपत्र दे दिया। मित्र-रिश्तेदार सभी चकित हुए। आय. सी. एस. याने उच्च पद, मोटी तनख्वाह, ऐश्वर्य, और रौबदौब। भारत में और इंग्लैण्ड में जिस आय. सी. एस. के लिए हजारों युवक लार टपकाते थे, उसे सुभाष ने जीवन से निकाल बाहर कर दिया।

अपने भाई शरद को उसने लिखा, “मैं भला अंग्रेजों की कभी सेवा कर सकता हूँ ? असंभव। क्रूर-निर्दयी-अन्यायी अंग्रेजों का, जलियाँवालाबाग के रक्तपात के पापियों का, क्या मैं कभी साथ दे सकता हूँ ? क्या मैं स्वदेश का शत्रु बन सकता हूँ ? असंभव। यदि सब लोग घरौंदों में मशगुल हो जाएँ, तो देश की चिंता कौन करेगा ? माँ की पुकार रात दिन मेरे कानों में गूंज उठती है - ’धाओ धाओ समरक्षेत्रे‘ - परतंत्र राष्ट्र का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह स्वातंत्र्य प्राप्ति तक अखण्ड लड़ता रहे। स्वतंत्रता संग्राम का सैनिक बनने हेतु मैंने आय. सी. एस. का त्याग किया है।”

विविध कार्यों में अग्रसर
भारत आकर सुभाषबाबू १६ जुलाई १९२१ को बम्बई में गांधीजी से मिले। फिर कलकत्ता पहुँचकर देशबंधु चित्तरंजन दास के चलाये राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल के वे प्रमुख कार्यकर्ता बने। कुछ समय तक वे नेशनल कालेज के प्रिन्सिपाल रहे। ’युगान्तर‘ और ’अनुशीलन‘ इन दो क्रान्तिकारी गुटों में समन्वय प्रस्थापित करने का उन्होंने भरसक प्रयास किया।

इंग्लैण्ड का राजपुत्र भारत आया। कांग्रेस ने बहिष्कार पुकारा। कलकत्ता में सर्वत्र उसे काले झण्डे दिखाए गए। अंग्रेजी सरकार ने प्रमुख नेताओं को जेल में ठूंसा। न्यायधीश ने सुभाष को छह मास की सजा सुनाई। सुभाष ने उसे कहा, “बस ! छह मास ! किसी की मुर्गी चुराने पर ६ मास की सजा दी जाती है। मैं तो अंग्रेजों का तख्त पलटने जा रहा हूँ।”

धुरंधर कार्यकर्ता

सन १९२४ में देशबंधु दास कलकत्ता के महापौर बने। सुभाष महानगरपालिका के कार्यकारी अधिकारी बने। पालिका में अनेक अधिकारी अंग्रेज थे। उन्होंने सोचा, एक तो यह कःपदार्थ भारतीय, फिर अनुभवहीन छोकरा, इसे हम यों ही वश कर लेंगे। दूसरे ही दिन इंजीनिअर कोट्स सिगरेट पीते हुए कार्यालय में आए। सुभाषचंद्र ने कड़ी आवाज में कहा, “क्या आप इसे शिष्टाचार मानते हैं ? क्या आपके कनिष्ठ आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करें?”

श्रीमान कोट्स ने उसी समय सिगरेट बुझाई और क्षमायाचना की। सुभाष का प्रभाव बढ़ा। अंग्रेज सरकार ने २५ अक्तूबर १९२४ को उन्हें गिरफ्तार कर अलीपुर, बेहरामपुर आदि स्थानों पर रखने के बाद, मण्डाले पहुँचाया। वहाँ की खराब हवा में वे बार बार बीमार हुए। परंतु पढ़ाई, चिंतन, मनन, ध्यानधारणा में वे मग्न रहते थे।

अपने मित्र दिलीपकुमार राय को उन्होंने लिखा, “प्रफुल्ल गुलाब के फूलों के लिए हमें कांटों का भी स्वागत करना होगा। ऊषा की शोभा यदि हमें देखनी है, तो हमें घनी अंधेरी रात धैयपूर्वक बितानी होगी। स्वतंत्रता का आनंद प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उसकी पूरी कीमत चुकानी पड़ेगी।”

जेल में सुभाषजी ने उपोषण किया। समाचार पत्रों ने हो-हल्ला मचाया। प्रान्तिक विधानसभा के चुनाव हुए। जनता ने जेल में बन्द सुभाष को ही विजयी बनाया। उनका स्वास्थ जब अधिक बिगड़ा तब सरकार ने कुछ शर्तो पर छोड़ने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने उसे ठुकरा दिया। भाई को उन्होंने लिखा-

“मेरा मन शान्त है। प्रभु की जो भी योजना होगी उसे स्वीकार करने के लिए मैं सिद्ध हूँ। मेरे प्रियतम सप्त भावी पीढ़ियों को विरासत के रूप में प्राप्त होंगे। यह श्रद्धा ही यातनामय मार्ग में मुझे प्रेरणा देती है।”

सुभाष बाबू का बुखार हटा नहीं। वे बेहोश होने लगे। सरकार ने सोचा इनकी मृत्यु समीप है। एक दिन चुपचाप सरकार ने उन्हें उनके घर पहुँचा दिया।

उनके भाइयों ने चार मास तक उन्हें शिलांग के आरोग्यधाम में रखा। कुछ ठीक होते ही वे विभिन्न कार्यों में जुट गए। वे बंगाल प्रान्तिक कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।१ जनवरी १९२८ को उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस का सहसचिव पद प्राप्त हुआ। वे देशभर में घूम कर जनजागरण करने लगे।

विदेशों में प्रचार

नमक सत्याग्रह प्रारंभ हुआ। ५ जनवरी १९३८ को बम्बई जाते हुए सुभाष पकड़े गए। उन्हें सिवनी कारागार में रखा गया। वहाँ जब उनका स्वास्थ बिगड़ा तब उन्हें प्रथम जबलपुर में और फिर मद्रास में रखा गया।

एक बार मद्रास के उच्च न्यायाधीश अब्वास अली कारागार निरीक्षणार्थ वहाँ आए। उन्होंने पूछा, “क्यों सुभाष बोस, मजे में तो हो ?”

सुभाष ने तपाक से जबाब दिया, “यहाँ आइए और मजा चखिए। केवल पूछने से क्या होगा ?”

सुभाष का स्वास्थ बिगड़ता ही गया। सरकार ने उन्हें ’देश निकाला‘ दिया। उनके भाई उन्हें उपचार हेतु विएन्ना ले गए। जनता ने द्रव्यसहाय्य भेजा। ६ मार्च १९३३ को वे यूरोप पहुँचे। स्वास्थ की परवाह न करते हुए वे यूरोप के अनेक देशों में घूमते रहे। रोमा रोलां, प्रा. लेस्नी, डाक्टर बेनेस, डी वैलेरा, मुसोलिनी, हिटलर, आदि से मिलकर उन्होंने जागतिक परिस्थिति की चर्चा की। भारत के स्वातंत्र्ययुद्ध में कौन-सा देश कितनी सहायता कर सकेगा, इसकी उन्होंने टोह ली। उन्होंने ’इण्डियन स्ट्रगल‘ नाम का ग्रंथ लिखा।

पिताजी के सख्त बीमार होने से, वे भारत लौटे। ४ दिसंबर १९३३ को वे कलकत्ता पहुँचे। एक दिन पूर्व ही पिताजी की मृत्यु हो गई थी। ११ जनवरी १९३४ को उन्होंने फिर से यूरोप के लिए प्रस्थान किया। उनकी पेट की बीमारी पर विएन्ना में उपचार किया गया।

१९३६ में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लखनऊ में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने हेतु वे निकल पड़े।

१९ अगस्त १९३६ को जहाज से उतरते ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा और येरवडा जेल में भेज दिया। वहाँ उनका पित्ताशय का विकार उभर आया। उनका गला सूजने और दर्द करने लगा। तब सरकार ने उन्हें दार्जिलिंग जिले में गिड्डापहाड नामक पर, शरदबाबू के बंगले में स्थानबद्ध किया।

कांग्रेस की अध्यक्षता

बंगाल में फजलुल हक का मंत्रिमण्डल बना। उसने १७ मार्च १९३७ को सुभाष को मुक्त किया। देशभर में हर्ष की लहर दौड़ पड़ी। उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद की माला पहनाई गई। फरवरी १९३८ में गुजरात में तापी के तीर पर हरिपुरा अधिवेशन संपन्न हुआ। सुभाषजी ने शुद्ध हिन्दी में बहुत प्रेरणादायक भाषण दिया।

“इतिहास बताता है कि साम्राज्य निर्मित होते हैं, फैलते हैं और नष्ट होते हैं। अंग्रेजी साम्राज्य अब तीसरी स्थिति में है। उनके राज्य की समाप्ति हमारी एकता, दृढता, पराक्रम तथा त्याग पर निर्भर है। स्वराज्य प्राप्ति के लिए हमें क्रान्तिकारी कदम उठाने होंगे।”

उन्होंने देशभर में दौरा किया और स्वातंत्र्य प्रेम की ज्योति प्रज्वलित की। सुभाष के उग्र विचार, स्वतंत्र कर्तृव्य और प्रभाव के कारण बड़े बड़े कांग्रेसी नेता उनसे ईर्ष्या करने लगे। गांधीजी, जवाहरलाल, वल्लभभाई, राजेन्द्रप्रसाद आदि उनके विरूद्ध हो गए। सुभाषबाबू अध्यक्ष पद के लिए फिर से खड़े हुए और पट्टाभि सीतारामय्या को हराकर कांग्रेस के अध्यक्ष बने। परंतु वे बहुत बीमार हुए। अध्यक्ष के उच्चासन पर वे बैठे नहीं सके। उनका भाषण उनके भाई ने पढकर सुनाया।

जमदोवा में इलाज कराते हुए उन्होंने एक पत्र में लिखा,-”त्रिपुरी का वायुमण्डल घिनौना था। उच्चस्तरीय अग्रगण्य नेता आदि इतने हीन, ईष्यालु तथा कुटिल हैं, तब इनके हाथ में देश का भवितव्य क्या होगा ?”

१ अगस्त १९३९ को कलकत्ता में कांग्रेस प्रमुखों की सभा हुई। उस सभा ने सुभाष को कांग्रेस से निकाल दिया।

भीतर बाहर से युद्ध करेंगे

सुभाष ने शीघ्र ही ’फारवर्ड ब्लॉक‘ नाम का दल प्रारंभ किया। वे साप्ताहिक पत्रिका निकालने लगे। देशभर में भ्रमण कर अपने तेजस्वी विचारों से वे युवकों को आकर्षित करने लगे। ३ सितंबर १९३९ को मद्रास में हुई उनकी सभा में ढाई लाख जनता उपस्थित थी।

सुभाष ने कहा-”अंग्रेजों पर संकट आना हमारे लिए सुवर्णावसर है। स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए हमें हर प्रकार से प्रयत्नशील रहना चाहिए।”

१९४० की फरवरी में दिल्ली में अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन के विशाल अधिवेशन में उन्होंने कहा, “भूख, प्यास, उपवास, कष्ट, मृत्यु आदि का सामना करते हुए भी हमें अडिग रहना होगा। हम स्वराज्य लेकर ही दम लेंगे इस हेतु भीतर बाहर से युद्ध करेंगे।”

इस भ्रमण में वे विभिन्न दलों के प्रमुख नेताओं से मिले। डाक्टर हेडगेवार उनके पुराने परिचित थे। उनका अनुशासनबद्ध-संगठन सुभाष को ज्ञात था। डॉक्टरजी से मिलने हेतु वे नागपुर आये। परंतु डॉक्टरजी उस समय मृत्युशय्या पर थे।

१ जुलाई १९४० को जनता को आवाहन करते हुए सुभाषबाबू ने कहा, “अंग्रेजों के पुतले गुलामी के निदर्शक हैं। उन्हें हम उखाड़ फेकेंगे। कलकत्ता के हालवेल स्मारक की हम ईंट से ईंट बजा देंगे।”

शीघ्र ही उन्हें गिरफ्तार किया गया। अब तक वे दस बार जेल जा चुके थे। शासन की सैंकडों अन्यायपूर्ण कृतियों के विरोध में उन्होंने उपोषण प्रारंभ किया। उनका स्वास्थ बिगड़ने लगा। फजलुल हक की प्रार्थना पर अंग्रेज सरकार ने उन्हें रूग्णवाहिका में डालकर उनके घर पहुँचा दिया। परंतु चारों ओर पहरे बैठाकर उन्हें स्थानबद्ध किया।

सीमापार

सुभाषबाबू ने परदेश जाने की योजना बनाई। उन्होंने दाढी-मूछें बढाईं। पठान जैसे कपडे सिलवाये। छद्मनाम के भेंटपत्र भी छपवा लिए-”महंमद जियाउद्दीन, प्रवासी प्रतिनिधि, जबलपुर।”

१७ जनवरी १९४१ की मध्यरात्रि में ३८/२ एलगिन रोड पर एक मोटर कार आई और झियाउद्दीन को बैठा ले गई। गाडी पहले धनबाद और वहाँ से गोमोह स्टेशन पर पहुँची। वहाँ वे कालका मेल में सवार हुए। प्रथम दिल्ली, वहाँ से पेशावर और वहाँ से भगतराम तलवार के साथ, वे काबुल की ओर चले। भगतराम रहमतखान बन गए। अनेक संकटों का मुकाबला करते हुए-दोनों भारत की सीमा के बाहर पहुँचे। सुभाषचंद्र ने मातृभूमि को प्रणाम किया और धूलि मस्तक पर लगाते हुए कहा, ’वन्दे मातरम्‘।

रास्ता अति कठिन था। सुभाषबाबू मस्ती के साथ कदम बढ़ा रहे थे। उनकी प्रसन्नता देख भगतराम चकित हुए। उनके मन में विचार आया-’पैदल, खच्चर पर या सामान ढोने वाले ट्रक पर बैठ, ये रास्ता चल रहे हैं। कहीं भी बैठते-सोते हैं। जो भी रूखी सूखी मिलती है, मजे में खाते हैं। कभी कोई शिकायत नहीं। कर्मयोगी महापुरूष हैं।‘

२७ जनवरी १९४१ की दोपहर वे काबुल पहुँचे। दूसरे ही दिन से रशियन, जर्मन, इतालियन राजदूतों से सम्पर्क प्रस्थापित करने के प्रयास में वे लगे। यह सब गुप्त रीति से करना था। बार बार अपयश पल्ले पड़ता था। दोनों में दिन में कई बार इस प्रकार संभाषण होता था।
’रहमतखान, अब क्या होगा।‘
’बाबूजी, सब ठीक होगा।‘
’कब ?‘
’आज नहीं तो कल।‘
’फिर दोनों खूब हँसते थे।

काबुल के दुकानदार उत्तमचंद मलहोत्रा ने दोनों की उत्तम व्यवस्था रखी। उन्होंने हर तरह की जोखिम उठाकर सुभाष को सहायता पहुँचाई। तीनों ने खूब प्रयास किए। कभी निराशा के काले बादल छा जाते तो कभी आशा की किरणें दिखाई देंती।
१८ मार्च १९४१ को ओर्लान्दो माझोता बनकर सुभाषबाबू काबुल से निकले। पाताकिसार, समरकंद तथा मास्को होते हुए वे बर्लिन पहुँचे।

आजाद हिन्द फौज

जर्मनी के बडे-बडे अधिकारियों ने सुभाष को हर तरह से तौला, परखा। जापान, इटली तथा जर्मनी के प्रमुखों ने आपस में विचार विमर्श किया। सुभाषचंद्र को स्वतंत्र भारत के प्रवक्ता के रूप में तीनों ने मान्यता दी। बर्लिन में स्वतंत्र हिन्दुतान केंद्र खुला। यूरोप के अनेक देशों में रहने वाले भारतीय नागरिक सुभाषचंद्र को तन मन धन से सहकार्य देने लगे। हजारों युद्ध कैदियों ने आजाद हिन्द सेना में प्रवेश किया। उनके प्रशिक्षण केन्द्र चलने लगे। ’जय हिंद‘ का नारा बुलंद हुआ। ’जन गण मन‘ राष्ट्रगीत बना। भारतीय दूतावास पर व्याघ्रचित्रांकित तिरंगा झंडा लहराने लगा।

२६ जनवरी १९४२ को सैनिकों ने आजादी की शपथ ग्रहण की। अनेकों ने अपना अंगूठा चीरकर खून से हस्ताक्षर किये। सुभाषजी को तिलक लगाया। उस समय सुभाष ने कहा, “---आप लोग कल तक भारत के शत्रुओं का साथ दे रहे थे। आज आप भारत को स्वतंत्र करने हेतु सिद्ध हैं। यही सच्ची क्रान्ति है। यह बलिदान है। यह कभी विफल नहीं होगा। हम भारत को आजाद करके ही रहेंगे।” रोम में भी आजाद हिन्द सेना की शाखा खुल गई। जापान में रासबिहारी बोस की प्रेरणा से उसी ढंग के प्रयत्न बड़े परिमाण पर होने लगे।

२७ फरवरी १९४१ को सुभाष ने आजाद हिन्द रेडियो पर कहा “प्रिय भारतीयों, मैं सुभाषचंद्र बोस बोल रहा हूँ। गत एक वर्ष मैं संगठन कार्य में जुटा रहा। अब हम सिद्ध हैं। हम बाहर से आक्रमण करेंगे। आप लोग भारत में विप्लव मचाइये। सिंगापुर की पराजय का अर्थ हैं, अंग्रेजी साम्राज्य का अस्त और भारत के स्वराज्य का उदय।” इस भाषण को सुनते ही भारत में सर्वत्र नवचैतन्य की लहर दौड़ पड़ी।

अद्भुत यात्रा

जापान की विजय हो रही थी। ७ दिसंबर १९४१ को अंग्रेजों को पर्ल हारबर छोड़ना पड़ा। १२ दिसंबर को अंग्रेजों के दो बडे जहाज उध्वस्त हुए। १५ फरवरी १९४२ को अंग्रेजों को सिंगापुर छोडकर भागना पड़ा। रासबिहारी बोस तथा उनके सहयोगियों ने हजारों भारतीय सैनिकों को आजाद हिन्द सेना में शामिल कर लिया। उन्होंने बार बार सुभाषचंद्र को निमंत्रण भेजा। सुभाष ने अपने यूरोपीय सहयोगियों से विचार-विनिमय करते हुए जापान जाना निश्चित किया। यात्रा लम्बी थी। गुप्त रूप से करनी थी। न हवाई जहाज से जा सकते थे न समुद्री जहाज से न खुश्की मार्ग से। अतः पनडुब्बी से जाना निश्चित हुआ। फरवरी १९४३ को सुभाष बाबू पनडुब्बी में आरूढ हुए। वहाँ केवल ३ फुट लम्बी और २ फुट चौडी जगह थी। खडे तक नहीं रह सकते थे। चौबीस घण्टे इंजिन की घरघराहट चलती थी। डीजेल तेल की गंध रात दिन नाक में घुसती थी। खाद्यपदार्थों में भी वही बू आती थी। ऊपर-नीचे चारों तरफ पानी ही पानी। शत्रु की पनडुब्बियाँ, उनके लगाये विस्फोटक तथा जाल, भीमकाय जलचर पशु, यंत्र का बिगडना आदि अनेक खतरों से भरी वह यात्रा थी। अठ्ठासी दिनों के बाद ६ मई १९४३ को यह वरूणी यात्रा साबांग बंदरगाह में समाप्त हुई। अब उन्होंने नया नाम धारण किया, ’मातसुदा‘।

पूर्वदिशा में क्रांति प्रकाश

जमीन पर पैर रखते ही सुभाषजी की दौड़ धूप प्रारंभ हो गई। टोकियो, रंगून और सिंगापुर से उनके भाषण आजाद हिन्द रेडियो ने प्रसारित किये।

४ जुलाई १९४३ को सिंगापुर में ’इंडियन इंडिपेन्डन्स लीग‘ की सभा हुई। उसमें पूर्व एशिया के दो हजार प्रतिनिधि उपस्थित थे। सुभाष ने रासबिहारी के चरण छुए। रासबिहारी ने उन्हें गले लगाया।

रासबिहारी ने कहा-”आज से इंडिपेन्डन्स लीग का नया अध्याय प्रारंभ हो रहा है। लीग के सब सूत्र मैं सुभाष बाबू के हाथों सौंप रहा हूँ।”

रासबिहारी ने सुभाष को उच्चासन पर बैठाया। तालियों की गडगडाहट से आकाश गूंज उठा। सुभाष ने सब को संबोधित किया-”शत्रु के शत्रु से मित्रता प्रस्थापित कर उसकी सहायता से अपने शत्रु को पछाड़ना सर्वमान्य राजनीतिक चाल है। तद्नुसार जर्मनी, जापान, इटली आदि देश हमारे मित्र बने हैं। मैं हिन्दुस्तान का सेवक हूँ, सैनिक हूँ। मैं जिऊँगा मेरे देश के लिए, और मरूँगा मेरे देश के लिए।”

आजाद हिन्द सेना के सम्मुख उन्होंने कहा, -”आप सब मुक्ति योद्धा हैं। आपका दर्शन मेरे लिए बहुत अभिमानास्पद है। अब हमारा नारा रहेगा, ’चलो दिल्ली‘। लाल किले के मैदान में हम विजयगीत गाते हुए संचलन करेंगे। तब तक हम चलते रहेंगे, जूझते रहेंगे, बढते रहेंगे। मैं तुम्हें केवल भूख, प्यास, कष्ट और मृत्यु दे सकता हूँ। भारत की स्वतंत्रता हमारा जीवनध्येय है। उस हेतु सर्वस्य न्यौछावर करने के लिए हम सिद्ध हैं।” तेरह हजार सैनिक गरज उठे, “भारतवर्ष जिन्दाबाद।” “आजाद हिन्द जिन्दाबाद।”

युद्ध योजनाएँ बनीं

सुभाष बाबू ने जापानी सेनाधिकारियों तथा मंत्रियों को बहुत प्रभावित किया। जापान सब सहायता देने लगा। ९ जुलाई १९४३ को सिंगापुर की जनता ने सुभाष बाबू का स्वागत किया। हजारों ने अपना नाम लिखवाया। हजारों ने धन समर्पण किया। सोने के अलंकारों के ढेर लग गए। वे रंगून पहुँचे। एक लाख लोगों ने हवाई अड्डे पर उनका स्वागत किया। उन्हें अपार धन दिया। युद्ध कैदियों के अतिरिक्त अनेक नौजवान आजाद हिन्द सेना में भरती हुए। महिलाओं के लिए ’रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेन्ट‘ खोलनी पड़ी। युद्धविद्या के प्रशिक्षण केंद्र चलने लगे।

एक छावनी में पचास हजार सैनिकों ने गणवेषधारी सुभाष को मानवंदना दी। सुभाष ने सबसे प्रतिज्ञा पढवाई। -”मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि भारतवर्ष के स्वातंत्र्य युद्ध में मैं आखरी दम तक लड़ूँगा। मैं सदैव हिंदुस्तान की सेवा करूँगा। मेरे अडतीस करोड भाई बहनों की हित-साधना ही मेरा परम कर्तव्य है।”

प्रत्यक्ष युद्ध की योजनाएँ बनीं। भारत के किस रास्ते से प्रवेश करना होगा, किस दिन, किस नगर में स्वराज्य का झंडा लहरेगा, इसकी पूरी समयसारिणी बनाई गई, नगाड़े बजने लगे। सेनाएँ इम्फाल की ओर कूच करने लगीं। अण्डमान-निकोबार जीत कर वहाँ तिरंगा लहराने लगा, बरसों से संजोये हुए स्वप्नों को प्रत्यक्ष में उतारने का समय निकट आ गया।

परंतु हाय ! इसी समय दैव ने पांसा पलटा।

संकटों के पहाड़-

मुसोलिनी की मृत्यु हुई। हिटलर का जादू समाप्त हुआ। इंग्लैण्ड-अमेरिका तथा रूस की जीत होने लगी।

ब्रह्मदेश में धुआँधार वर्षा होने लगी। नदी-नालों में बाढ आ गई। रास्ते रूक गए। आगे बढ़ना तो क्या पीछे हटना भी कठिन हो गया। दो-दो दिन फांके पड़ने लगे। सैनिक बीमार पड़ने लगे।

२३ जनवरी १९४५ को सुभाष का अडतालिसवां जन्मदिन आया। सुभाष की स्वर्णतुला की गई। वह धन आजाद हिन्द सेना को दिया गया। सुभाष का भाषण सुनकर श्रोता गद्गद् हो गए। हमीदखान नाम का पंजाबी मुसलमान दौड़ते हुए उनके पास आया। उसने कहा-”मेरी लाखों की जायदाद आपके चरणों पर समर्पित है।” इस प्रकार के सैंकड़ों हमीदखान जुटने लगे। परंतु मुसीबतों के बड़े-बड़े पहाड भी उसी समय टूटने लगे।

रूस ने जापान पर आक्रमण किया। जापानी सेनाधिकारियों के आपसी मतभेद उग्रतर हुए। २४ अप्रैल १९४५ को सुभाष ने रंगून छोडा। वे अन्य छावनियों में गए। ऊपर से बम बरस रहे थे। चारों ओर तोपें गरज रही थीं। हथगोले फेंके जा रहे थे। रास्ते पानी और कीचड़ से भरे थे। पेट में अन्न नहीं था। घण्टों तक पैदल चल रहे थे। भीगे कपडों में ही सोना पड़ता था। पैरों में छाले पड गए थे। फिर भी सब की चिन्ता करते हुए, दूसरों को उत्साह देते हुए, हृदय में ध्येय की आग लिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस आगे बढ़ रहे थे।

भयानक ज्वालाएँ-

जापान पर एटम बम बरसे। जापान ने हथियार डाल दिए। कोई सहारा नहीं बचा। सकंट बढने लगे। सहयोगियों ने कहा, ’नेताजी, आप कहीं गुप्त स्थान पर चले जाइए तो किसी प्रकार संघर्ष चलाया जा सकेगा। नेताजी का मन नहीं कर रहा था। परंतु सहयोगियों ने उन्हें माँचूरिया भेजने का निश्चित किया।

हबीबुर्रहमान को साथ लिए सुभाष छोटे से जापानी हवाई जहाज में बैठे। सायगाँव, तुरेन होते हुए वे तैपेई तक पहुँचे। तैपेई के अड्डे से जब उनका जहाज उड़ा तब थोडी ही देर में टेढ़ा मेढ़ा होता हुआ वह जमीन पर गिरा। ज्वालाएँ भभक उठीं।

उनके अन्तिम शब्द थे, “मैं भारत की आजादी के लिए आखरी दम तक लड़ा। भारत स्वतंत्र होगा-शीघ्र ही स्वतंत्र होगा।” १८ अगस्त १९४५ को उनके प्राणपखेरू उड गए। शौर्य, धैर्य संगठन कौशल्य, प्रयत्नशीलता, त्याग तथा बलिदान का उच्च आदर्श उन्होंने दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। भारत माता के महान पुत्र देशगौरव नेताजी सुभाषचंद्र बोस अमर हो गए।

१२ नवंबर २०१२