खुदीराम बोस
श्रीपति शास्त्री
यह एक ऐसे वीर की जीवन गाथा है,
जिसने भारत को रौदने वाले अँग्रेजों पर पहला बम फेंका था। अपने
विद्यार्थी जीवन में ही वह ' वन्देमातरम ' की ओर आकर्षित हुआ
और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा। यह सोलह वर्षीय किशोर
पुलिस की आज्ञा को ठुकराता उन्नीसवें वर्ष में ही, हाथ में
भगवतगीता लेकर 'वन्देमातरम' कहते हुए, हुतात्मा बना ।
फरवरी १९०६, बंगाल के मेदिनीपुर शहर में एक विशाल प्रदर्शनी
आयोजित की गयी थी। अंग्रेज राज्यकर्ताओं के अन्याय पर पर्दा
डालना यही इस प्रदर्शनी का उद्देश्य था। उस प्रदर्शनी में ऐसी
वस्तुएँ, चित्र तथा कठपुतलियाँ रखी हुई थी, जिनसे आभास हो कि
अंग्रेज राज्यकर्ता जो विदेश से आये थे, भारत को बहुत सहायता
दे रहे हैं। इस प्रदर्शनी को देखने बहुत भीड़ इक्कठा हुई थी ।
"ध्यान रखो , मुझे स्पर्श मत करो ।"
उस समय एक सोलह वर्षीय युवक लोगों को परचा बाँटते हुए दिखाई
दिया।उस पर्चे का शीर्षक था "सोनार बांगला "।
उसमें 'वन्देमातरम' का नारा था, साथ ही साथ उस प्रदर्शनी के
आयोजक, अंग्रेजों के वास्तविक हेतु को भी स्पष्ट किया गया था।
अंग्रेजों द्वारा किये गए अन्याय तथा क्रूरता का भी उस पर्चे
में उल्लेख था।
प्रदर्शनी देखनेवाले लोगों में कुछ लोग इंग्लैंड के राजा के
प्रति निष्ठा रखते थे। अंग्रेजो के अन्याय का विरोध करनेवाले
उस युवक का उन्होंने विरोध किया। 'वन्देमातरम ' 'स्वतंत्रता, '
'स्वराज्य,' इस प्रकार के शब्द उन्हें सुई की तरह चुभते थे।
उन्होंने उस लड़के को पर्च बाँटने से रोका। उन्होंने उस लड़के को
डराया धमकाया, पर उनकी उपेक्षा कर उस लड़के ने शांति से पर्चे
बाँटना जारी रखा। जब कुछ लोग उसे पकड़ने लगे तो वह चालाकी से
भाग गया।
अंत में एक पुलिस सिपाही ने उस लड़के का हाथ पकड़ा। उसके हाथ से
परचे छीन लिए। परन्तु उस लड़के को पकड़ना आसन नहीं था। उसने झटका
देकर अपना हाथ छुड़ाया और हाथ घुमा कर सिपाही की नाक पर जमकर
घूँसा मारा। उसने परचे फिर उठा लिए और कहा, ' ध्यान रखो, मुझे
स्पर्श मत करो ! मैं देखूँगा कि मुझे वारंट के बगैर पुलिस कैसे
पकड़ सकती है।"
जिस पुलिस सिपाही को घूँसा मारा गया था, वह पुन: आगे बढ़ा,
किन्तु लड़का वहाँ नहीं था। वह जनसमूह में अदृश्य हो चुका था।
जब लोग 'वन्देमातरम' के नारे लगाने लगे तो पुलिस और राजनिष्ठ
लोगों को आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अपने लिए अपमानजनक प्रतीत
हुआ। बाद में उस लड़के के विरुद्ध एक मुकदमा चलाया गया लेकिन
छोटी उम्र के आधार पर न्यायलय ने उसे मुक्त कर दिया।
कौन था यह लड़का ?
जिस वीर लड़के ने मेदिनीपुर की प्रदर्शनी में बहादुरी से परचे
बाँटकर अंग्रेजों की बुरी योजनाओं को विफल कर दिया , वह
खुदीराम बोस था।
जन्म एवं परिवार
खुदीराम बोस का जन्म ३ दिसम्बर सन १८८९ को मेदिनीपुर जिले के
बहुबेनी ग्राम में हुआ। उसके पिता त्रेलोक्यनाथ बसु नंद्झोल के
तहसीलदार थे। उसकी माता लक्ष्मीप्रियादेवी धार्मिक महिला थी,
जो अपने चारित्र्य और उदारता के लिए प्रसिद्ध थी। बसु दम्पति
की संतति में केवल एक पुत्र खुदीराम बोस ही जीवित बचा था। उनके
जो बच्चे हुए, वे जन्म के बाद ही मार गए थे। केवल एक कन्या ही
बची थी। खुदीराम अंतिम संतान था। बोस दम्पति का अपने पुत्र पर
अगाध प्रेम था। लेकिन वे उस सुख का अनुभव अधिक दिन नहीं ले
सके। खुदीराम जब ६ वर्ष का था, उसके माता – पिता का अचानक
देहाँत हो गया। उसकी बड़ी बहन अनुरूपादेवी और बहनोई अमृतलाल
को, खुदीराम के पालनपोषण का उत्तर- दायित्व अपने कन्धों पर
लेना पड़ा ।
जन्मजात देशभक्त
अनुरुपादेवी ने खुदीराम का पालन माँ की तरह किया।वह चाहती थी
कि अपना छोटा भाई बहुत पढ़े, ऊँचे पद पर चढ़े और कीर्ति प्राप्त
करे। इसलिए उसने खुदीराम को पास के एक स्कूल में दाखिल किया ।
खुदीराम पढ़ता नहीं था ऐसी बात नहीं; वह एक अच्छा लड़का था और
आसानी से कुछ भी ग्रहण कर सकता था। किन्तु कक्षा में उसका
ध्यान नहीं होता था। उसके मन में स्कूल के विषय से असम्बद्ध
बहुत विचार आते थे। शिक्षकों की आवाज़ भी उसे इस कारण सुनाई
नहीं देती थी। वह जन्मजात देशभक्त था। सात- आठ वर्ष की आयु में
सोचता, "भारत मेरा देश है, हजारों वर्षों से यह ज्ञान का घर
रहा है, फिर यहाँ राज करने वाले वाले अँग्रेज क्यों हैं ? इनके
रहते हम अपनी इच्छा से नहीं रह सकते। मैं बड़ा होकर इन सबको
यहाँ से निकाल दूँगा ।" दिनभर वह इस प्रकार के विचारों में
रहता।अपनी पुस्तकों में भी उसे भारतीयों पर अत्याचार करते
विदेशी ही दीखते थे। भोजन के समय भी वही विचार उसके मन में आते
थे जिसके स्मरण से ही उसे पीड़ा होती थी। उसकी बहन और बहनोई
दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि खुदीराम को कौन-सा दुःख है।
उन्होंने विचार किया कि माँ की याद में खुदीराम दुखी होगा।
इसलिये उन्होंने खुदीराम से बहुत अधिक प्रेम किया। किन्तु वह
तो भारतमाता की पीड़ा से दुखी था, और यह दुःख दिन - प्रति -
दिन बढ़ता जा रहा था ।
दासता से बड़ा रोग नहीं
एकबार खुदीराम मंदिर में गया।कुछ लोग वह मंदिर के सामने खुली
जमीन पर लेटे थे। खुदीराम ने एक व्यक्ति से पूछा, "ये लोग यहाँ
इस प्रकार क्यों लेटे हैं?" उत्तर मिला, "ये लोग किसी ना किसी
रोग से पीड़ित हैं। उनका प्रश्न है कि भगवान उन्हें स्वप्न में
दर्शन देकर रोग-मुक्ति का वचन दें, तभी वे अन्न - जल ग्रहण
करेंगें। इसलिये ऐसे पड़े हैं।"
खुदीराम ने एक क्षण विचार किया और कहा, "क्या एक दिन मुझे भी
इनकी तरह लेटना पड़ेगा?"
"तुम्हे कौन सा रोग हुआ है?" एक व्यक्ति ने पूछा।
खुदीराम हँसकर बोले, "दासता से अधिक बुरा कौनसा रोग है। मुझे
किसी दिन उसे हटाना ही पड़ेगा।"
अपनी बाल्यावस्था में भी खुदीराम अपने देश की स्वतंत्रता के
बारे में सोचा करता था। यही समस्या उसके मन को घेरे हुए थी ।
जब खुदीराम इस प्रकार की चिंता में था कि उसने 'वन्देमातरम',
'भारत माता कि जय ' के नारे सुने। इन शब्दों से उसके मन में
उत्साह निर्माण हुआ, उसकी आँखे चमकने लगीं।
वंदेमातरम का इतिहास
जिस पवित्र मंत्र से खुदीराम को प्रेरणा मिली, उस मंत्र
'वन्देमातरम' का अपना एक इतिहास है, और उससे ज्यादा महत्त्व उस
मंत्र की कार्यसिद्धि का है। सन १८३८ में कंतालपाड़ा में एक
महान व्यक्ति का जन्म हुआ। उनका नाम बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय
था। उनके पिता खुदीराम के जन्मग्राम मेदिनीपुर के ही सरकारी
अधिकारी थे। सन १८५७ में पहली बार अपने देश को ब्रिटिशों से
स्वतंत्र करने के लिए सशस्त्र संघर्ष हुआ। झाँसी की रानी
लक्ष्मीबाई, बिहार के कुंवरसिंह और दिल्ली के सम्राट बहादुरशाह
ने इस स्वतंत्र युद्ध में भाग लिया था। उस समय बंकिमचंद्र १७
वर्षीय युवा थे। भारत के लोग बुद्धिमान और वीर होते हुए भी
उनको इस युद्ध में हार स्वीकार करनी पड़ी। अपने लोगों में
अनुशासन, संघटन का अभाव था, अपने पास आवश्यक शस्त्र और
गोलाबारूद भी नहीं था। अनेक विश्वासघातकी, स्वार्थी और
अवसरवादी लोगों ने अंग्रेजों की मदद की, जिसके कारण हार माननी
पड़ी। बंकिम का खून इस पराजय से खौल उठा था।
स्वार्थ छोड़ने के लिए मनुष्य के सामने एक उज्ज्वल आदर्श होना
चाहिये। किस आदर्श से भारत के लोगों को प्रेरणा मिलेगी ?
बंकिमचंद्र ने इस प्रश्न के बारे में विचार किया। उनके सामने
भारत-माता का चित्र आया, जो गौरवशाली रत्नों से सज्जित सिंहासन
पर बैठी थी। बंकिमचंद्र के विचार थे, "हम भारत - माता के बच्चे
उनके सामने नतमस्तक हैं।" उसी समय उनके मन में 'वन्देमातरम' यह
शब्द गूँजे। बंकिमचंद्र ने इस 'वन्देमातरम' शीर्षक से एक बहुत
बड़ा गीत लिखा। इस गीत में भारत की शोभा का वर्णन किया गया है।
बंकिमचंद्र ने 'आनंदमठ' नाम से उपन्यास लिखा जिसमे स्वतंत्रता
संघर्ष की एक कहानी थी। उस उपन्यास में 'वन्देमातरम' का संकलन
किया गया।
जागृति का मन्त्र
'आनंदमठ ' उपन्यास में एक देशभक्त सन्यासी विदेशी राज्यकर्ताओं
के विरुद्ध किस प्रकार लड़ता है, इसका उल्लेख है। लोगों के मन
में देशभक्ति तथा स्वतंत्रता के लिए झगड़ने की भावना का
निर्माण करना यह बंकिमचंद्र का उद्देश्य था। उपन्यास में
स्वतंत्रता के लिए संघर्षशील सन्यासी 'वन्देमातरम' यह
प्रेरणादायी गीत गाता है। भारतमाता को दुर्गा माता समझता है।
सारे भारतियों को यह सब समझे इसलिए बंकिमचंद्र ने अनेक संस्कृत
शब्दों का प्रयोग इस गीत में किया है।
कुछ ही दिनों में 'वन्देमातरम ' और 'आनंदमठ ' ये नाम देशभक्तों
में प्रिय हुए। जहाँ भी देशभक्त इकट्ठे होते, 'वन्देमातरम ' का
नारा लगाते। बंकिमचंद्र के उपन्यास से अनेक लोगों को प्रेरणा
मिली। अरविन्द घोष , ब्रम्हबांधव उपाध्याय और बिपिनचंद्र पाल
जैसे अनेक व्यक्ति स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। उन्होंने
युवकों का एक संघटन किया, जिसमें उन्हें पिस्तौल, लाठी, छूरी
आदि शस्त्रों का उपयोग करना सिखाया गया उन संघटनों में अनुशीलन
समिति, युगांतर, भारती - समिति, वन्दे- मातरम सम्प्रदाय और
सरकुलर-विरोधी समिति प्रमुख थी। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए
अपना सुख, घर, पैसा इतना नहीं तो अपने प्राण तक देने का उनका
निश्चय हुआ था। स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने
भी उनको सहकार्य देकर उन्हें उत्साहित किया।
बंगाल का विभाजन
इस प्रकार 'वन्देमातरम ' से प्रेरणा लेकर हजारों भारतीयों ने
अंग्रेजो के विरुद्ध लोहा लिया। इस स्थिति से अब भारत में अपना
साम्राज्य अधिक दिन नहीं रहेगा इसका भय अंग्रेज राज्यकर्ताओ को
होने लगा। इसलिए उन्होंने हिन्दू ततः मुसलमानों को अलग करने का
प्रयास किया। पश्चिम बंगाल में हिन्दू और पूर्व बंगाल में
मुसलमानों की संख्या अधिक थी। इसे देखकर अंग्रेजों ने एक नयी
योजना बनाई। सन १९०५ में लार्ड कर्जन भारत के गवर्नर जनरल थे।
उन्होंने बंगाल का पूर्व तथा पश्चिम में विभाजन किया। किन्तु
अंग्रेजों का यह उद्देश्य भारतीय जान गये। अनेक देशभक्तों ने
एक स्वर से इस विभाजन का विरोध किया। अनेक स्थान पर जुलूस,
बैठकें तथा सत्याग्रह आयोजित किये गये। प्रत्येक व्यक्ति के
ओठों पर 'वन्देमातरम' यह शब्द थे।
खुदीराम पर हुए संस्कार
बचपन से ही खुदीराम में मातृभूमि का प्रेम निर्माण हुआ था। इसी
समय उस पर क्रांति के संस्कार हुए। 'वन्देमातरम ' के नारों से
उसके विचार निश्चित हुए। बंगाल के विभाजन के विरोध में किये
हुए सत्याग्रह की पद्धतियों का खुदीराम ने अध्ययन किया। वह
शांत नहीं बैठा। इसकी पार्श्वभूमि जानने का उसने प्रयत्न किया।
'आनंदमठ' उपन्यास पढते ही उसे अपने जीवन - कार्य की दृष्टि
मिली। मातृभूमि की सेवा में उसने अपने जीवन - समर्पण का निश्चय
किया। अपने देश को विदेशी राज्यकर्ताओं की दासता से मुक्त करने
के लिये क्रांतिकारियों द्वारा निर्मित देशभक्तों के संघटन की
खुदीराम ने प्रशंसा की। क्रांतिकारियों ने अपना घर, पैसा,
रिश्ते आदि सब कुछ न्योछावर कर दिया था। चारित्रवान पुरुष कठिन
स्थिति में कभी नहीं डरते। इसी प्रकार के एक क्रन्तिकारी बनने
की खुदीराम की इच्छा थी। क्रांतिकारियों से उसने मित्रता की।
क्रांतिकारियों ने उसके हर प्रकार की परीक्षाएँ ली। और उनमें
वह सफल हुआ। अंत में उसे राष्ट्रसेवा में अंतर्भूत किया गया।
इस तरह उसकी प्राथमिक शिक्षा समाप्त हुई।
'वन्देमातरम ' का प्रचार
इसके बाद खुदीराम पिस्तौल, छुरी ,लाठी आदि का प्रयोग सीखाने
लगा और उसने उसमे प्रवीणता प्राप्त की। कृश होते हुए भी वह
बहुत तेज था। उसने 'वन्देमातरम' के प्रचार का कार्य आरम्भ
किया।स्वतंत्रता के लिए सेना के ह्रदय में भारत - माता की
तेजस्वी मूर्ति के संस्कार करना आवश्यक था।अपनी माँ को ना
जानते हुए उसके लिए कौन लड़ सकता है ? और 'वन्देमातरम ' के
अलावा लोगों को शिक्षा देनेवाला दूसरा कौन साधन था ?
खुदीराम ने अपने मित्रों को 'वन्देमातरम ' पढाना शुरू
किया।उसने उसका पूर्ण अर्थ बताया।उसने अपने मित्रों को 'आनंदमठ
' पढ़ने के लिए उत्साहित किया।
खुदीराम के गुट के क्रांतिकारियों ने उसकी 'वन्देमातरम ' के
प्रति भक्ति को पहचाना।उन्होंने 'वन्देमातरम ' छपे हुए परचे
बाँटने का निश्चय किया।खुदीराम ने इसमें महत्वपूर्ण कार्य
किया। मेदिनीपुर की प्रदर्शनी की घटना की पार्श्वभूमि यही थी।
देशभक्तों को यातना
इधर 'वन्देमातरम ' का प्रचार बढ़ने लगा और उधर अंग्रेजों की
क्रूरता बढ़ने लगी। 'वन्देमातरम' कहना राजद्रोह है - घोषित
हुआ। इस अपनी मातृभूमि को प्रणाम करना भी अंग्रेजों की दृष्टि
से राजद्रोह बना। अंग्रेज सरकार ने देशभक्तों को हर प्रकार की
यातना देना शुरू किया। किन्तु देशभक्तों में इन यातनाओं की
उपेक्षा कर आगे बढ़ने का धैर्य था। अनेक बैठकों तथा जुलूसों
में 'वन्देमातरम' के नारे लगाये गए, जिससे अंग्रेजों को धक्का
पहुँचा। यदि दो देशभक्त कहीं मिलते तो नमस्कार न करते हुए
'वन्देमातरम' कहते। जहाँ भी पुलिस सिपाही यह नारा सुनता, बुरी
तरह से देशभक्तों को पीटता। किन्तु भारतीयों को 'वन्देमातरम'
कहने से अंग्रेज नहीं रोक सके। अंग्रेज जितने ही कठोर बनते
उतना ही भारतीयों का अभिमान बढ़ता था। लोगों ने विदेशी कपड़ों का
त्याग कर दिया। विदेशी स्कूल और कोलेज छोड़े। 'स्वदेशी ' यह
स्वराज्य का मन्त्र हुआ।
यदि इसी प्रकार की स्थिति रही तो अपने को भारत छोड़ना पड़ेगा
ऐसा अंग्रेजों को प्रतीत हुआ। फिर भी शक्ति का उपयोग कर
भारतीयों पर नियंत्रण रख सकते हैं, उनका भ्रम कायम था। इसलिए
उन्होंने देशभक्तों को अधिक क्रूरता से दंड देने का निश्चय
किया। जहाँ क्रांन्तिकारी अधिक कार्यरत थे, वहाँ कठोर, निर्दय
पुलिस अफसरों की नियुक्ति की गई।जो देशभक्त पकडे जाते थे,
उन्हें बहुत यातना दी जाती। बच्चों, स्त्रियों और बूढों से भी
असभ्य व्यवहार किया गया। छोटे-छोटे अपराधों की कड़ी सजा दी गई।
कलकत्ता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट - किन्जफोर्ड - एक एसे
ही क्रूर अधिकारी थे।
सत्ताधीशों को भयभीत करनेवाली पत्रिका
'वन्देमातरम ' पत्रिका बंगाल में बहुत प्रसिद्ध थी। महान
देशभक्त बिपिनचंद्र पाल ने इसे प्रारंभ किया। महर्षि अरविन्द
घोष उसके संपादक थे। इस पत्रिका में केवल देशभक्तिपूर्ण रचनाएँ
ही प्रकाशित नहीं की, बल्कि अंग्रेजों के अन्याय का विरोध भी
किया। यह देशभक्तों के लिए सच्चा मित्र और मार्गदर्शक थी।
इसलिए यह पत्रिका अंग्रेजों के लिए भारी आतंक - स्वरूप थी।
सन १९०७ में अंग्रेजों ने 'वन्देमातरम' पत्रिका पर राजद्रोह का
अभियोग चलाया।उसकी कार्यवाही कलकत्ता के लाल बाजार के पुलिस
कोर्ट में चल रही थी। प्रतिदिन हजारों युवक कोर्ट के सामने
उपस्थित होते और एक आवाज में 'वन्देमातरम ' कहते हुए अपनी
पत्रिका का गौरव बढ़ाते। इस तरह उन्होंने अपना समर्थन प्रकट
किया। लौहटोप पहने हुए पुलिस सिपाहियों द्वारा अमानवीय ढंग से
उस भीड़ पर लाठी - प्रहार किये जाते।
शेर का क्रुद्ध बच्चा
२६ अगस्त सन १९०७ को जब यह अभियोग चल रहा था, उस समय हमेशा की
तरह हजारों युवक कोर्ट के सामने इकट्ठे हुए थे। उन्होंने
'वन्देमातरम' का घोष शुरू नहीं किया था। न ही उन्होंने कुछ
गड़बड़ी की थी। वे शांत थे। फिर भी एक अंग्रेज सिपाही क्रुद्ध
हुआ और उसने अचानक एक युवक को लाठी से पीटना शुरू कर दिया।
किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। पुलिस सिपाही की लाठी चलती
ही रही ।
कुछ अंतर पर खड़ा हुआ १५ वर्षीय सुशीलकुमार सेन यह दृश्य सहन
नहीं कर पाया।आगे आकर उसने पुलिस अधिकारी से पूछा '' आप बिना
किसी कारण लोगों को क्यों मार रहे हैं?'' उसने उसे रोकने का
प्रयास किया।
"तुम कौन हो ? निकल जाओ !" अंग्रेज चिल्लाया और उसने सुशील को
भी मारा। क्रुद्ध सुशील ने कहा, "मैं कौन हूँ अभी बताता हूँ।"
उसने अपने से चार गुना बड़े उस अंग्रेज की नाक पर अचानक एक
जोरदार मुक्का मारा।पुलिस सिपाही के हाथ से लाठी खीच ली और उसे
पीटना शुरू किया।" एक भारतीय लड़के के प्रहार देखो, "उस लड़के ने
कहा और जब तक उस अंग्रेज सिपाही के शरीर से खून नहीं निकला,
उसे पीटता रहा।उस सिपाही को तो केवल नि:शस्त्र व्यक्तियों को
मरने का अनुभव था, किन्तु मार भी खानी पड़ती है, यह ज्ञान नहीं
था। पीड़ा के कारण वह चिल्लाने लगा। बाद में दूसरे सिपाहियों
ने आकर सुशील को पकड़ा और उसे कोर्ट ले गए ।
किंग्ज फोर्ड की क्रूरता
जिस मजिस्ट्रेट के सामने इस लड़के का अभियोग चल रहा था , वह
अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात था।" तुमने शांति कायम करनेवाले
अंग्रेज पुलिस सिपाही को मारकर कानों को तोड़ दिया है ," सुशील
की भर्त्सना करते हुए मजिस्ट्रेट ने कहा ।
"आपके शांतिप्रिय पुलिस सिपाही ने, शांति से खड़े लोगों को
क्यों मारा ?" सुशील ने, न डरते हुए किंग्जफोर्ड से ही उलटा
सवाल किया ।
"तुम अशिष्ट हो।मैं तुम्हें पन्द्रह कोड़े लगाने का दंड देता
हूँ। ले जाओ इसे।" किंग्जफोर्ड ने आज्ञा दी।
पुलिस सिपाहियों ने सुशील को बाहर निकाल कर उसके कपड़े उतारे।
फिर पन्द्रह कोड़ों से उसकी पिटाई की। सुशील नहीं रोया। न ही
उसकी मुस्कान गयी। कोड़े के प्रत्येक आघात पर वह
''वन्देमातरम'' चिल्लाता रहा।
उसकी रिहाई पर लोगों ने उसका एक जुलूस निकला। एक बड़ी सभा में
उसका सम्मान किया गया। वयोवृद्ध नेता सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी ने
उसकी प्रशंसा की और उसे सुवर्ण - पदक प्रदान किया। जिस नेशनल
कालेज में सुशील पढ़ता था, वह कालेज उसके सम्मान में एक दिन बंद
रखा गया ।
बदले की प्रतिज्ञा
इस घटना के बहुत दिन पहले ही क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड से
- जो एक राक्षस ही था - बदला लेने का निश्चय कर लिया था। सुशील
कुमार को दिए गए दंड से उनका क्रोध बढता गया। जब तक
किंग्जफोर्ड जिन्दा है देशभक्तों के लिए परेशानी रहेगी, यह
सोचकर उन्होंने उसे मारने का निश्चय किया ।
अंग्रेज सरकार को क्रांतिकारियों के इस निर्णय की गंध पहुची।
किंग्जफोर्ड का जीवन खतरे में है, इसकी उन्हें निश्चित खबर थी
सरकार के जासूसों ने उसे इंग्लैंड वापस भेजने की सलाह दी।
किन्तु सरकार ने उसका विरोध किया। अंत में किंग्जफोर्ड को
डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज बनाकर मुजफ्फ़रपुर भेज दिया गया।
किंग्जफोर्ड
की हत्या की तैयारी
मुजफ्फ़रपुर जाने के बाद भी किंग्जफोर्ड ने अपनी निर्दयता नहीं
छोड़ी। १९०८ में क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या की योजना बना
ली। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में युगांतर गुट के क्रांतिकारियों
ने कलकत्ता के एक घर में बैठक निश्चित की। सुशील पर हुए अन्याय
के बारे में चर्चा होनेवाली थी। अरविन्द घोष, सुबोध मलिक,
चारुदत्त और अन्य व्यक्ति वहाँ आये थे। किंग्जफोर्ड की हत्या
करने का निश्चय हुआ। किन्तु उस दल के प्रमुख को यह चिंता थी कि
किसे यह काम सौंपा जाय। कुछ लोग इस काम के लिए उत्सुक
थे।किन्तु गुट का प्रमुख उन में से किसी का भी चुनाव नहीं करना
चाहता था।
एक कोने में बैठे खुदीराम पर उसकी दृष्टि गयी। "क्या तुम यह
काम कर सकते हो," मानो वह दृष्टि यही प्रश्न कर रही थी।
खुदीराम इसे समझ गया। उसकी आखें चमक उठीं ।
"क्या तुम यह कठोर कार्य कर सकते हो", गुट के नेता ने आखिर पूछ
ही लिया ।
"आपका आशीर्वाद रहा तो असंभव कुछ भी नहीं है।" खुदीराम बोला ।
"कारागृह में जाने लायक यह कार्य सरल नहीं है। क्या तुम्हें
पता है कि पकड़े जाने पर तुम्हारा क्या होगा?"
"मुझे ज्ञात है," खुदीराम शांति से किन्तु निश्चिंत होकर
बोला।" अधिक से अधिक यही होगा न मुझे फाँसी होगी। यह तो मुझ पर
अनुग्रह होगा। भारत माता ही मेरे लिए माता-पिता और सब कुछ है।
उसके लिये मेरा जीवन समर्पित करना मेरे लिए गौरव का विषय
होगा।मेरी एकमात्र इच्छा यही है -अपने देश को स्वाधीनता मिलते
तक मैं पुन: पुन: यही जन्म लूं और पुन: पुन: जीवन को बलिवेदी
पर चढ़ाऊँ।"
"मुझे बहुत हर्ष हुआ है। अपने प्रवास की तैयारी करो, प्रफुल्ल
चाकी तुम्हारे साथ रहेगा।"
प्रफुल्ल चाकी जो बहुत बलवान और खुदीराम की ही आयु का था, उसके
साथ खड़ा हुआ।
प्रफुल्लकुमार पूर्व बंगाल के रंग पुर ग्राम का निवासी था।
बंगाल के विभाजन के समय वह अपने साथ आठ लड़कों को लेकर
'वन्देमातरम ' कहते हुए स्कूल से बाहर निकल आया था।
क्रांतिकारियों के प्रमुख ने, दोनों लड़कों - खुदीराम और
प्रफुल्लकुमार को पिस्तौल, बम, कुछ पैसे दिये और आशीर्वाद भी
दिये। किंग्जफोर्ड की हत्या का संकल्प लिये दोनों लड़के वहाँ से
रवाना हुए।
शिकार चूक
गया
३० अप्रैल १९०८ की रात थी। खुदीराम और प्रफुल्लकुमार
मुजफ्फ़रपुर के यूरोपियन क्लब के पास पहुँचे।किंग्जफोर्ड की
प्रतीक्षा करते हुए बम और पिस्तौल लेकर दोनों एक जगह छिपकर बैठ
गये।
कुछ देर बाद एक घोड़ा गाड़ी किंग्जफोर्ड के बंगले से बाहर
आयी।एक हाथ में बम लिये खुदीराम ने प्रफुल्लकुमार से कहा, "मैं
बम फेंकता हूँ। बम फेंकते ही तुम भाग़ जाओ। मेरी चिंता न
करो।यदि मैं जीवित रहा तो अपने आदरणीय शिक्षक को प्रणाम करने
आऊँगा। भागने की तैयारी करो। वन्देमातरम!'
गाड़ी सामने आई। घोडा गाड़ी खुदीराम की विरुद्ध दिशा में आते ही
उसने बम गाड़ी में फेंका ।
एक भारतीय युवक द्वारा अंग्रेजों पर फेंका गया यह पहला बम था।
बम गाड़ी में पड़ते ही धमाके से फूटा। उसी समय चिल्लाने की
आवाज़ भी आई। आगे क्या होता है यह ना देखते हुए खुदीराम और
प्रफुल्ल दोनों अलग अलग दिशा में भाग गये ।
किंग्जफोर्ड सौभाग्यशाली था। जिस गाड़ी पर बम फेंका गया था,
उसमे किंग्जफोर्ड के अतिथि केनेडी, उनकी पत्नी, लड़की और उनका
एक नौकर था। लड़की और नौकर उसी जगह पर मर गये। श्रीमती केनेडी
बुरी तरह से घायल हुई थी, जिसकी दो दिन बाद मृत्यु हो गई।
शेर का बच्चा पकड़ा गया
बम फेंक कर खुदीराम भाग गया।बिना रुके रात भर वह रेलवे लाइन के
साथ दौड़ता रहा। सुबह होने पर वह रुका। इस समय तक वह २५ मील
दौड़ चुका था। वह वेनी रेलवे स्टेशन के पास लाख नामक स्थान पर
पहुँचा। लगातार दौड़ने से वह बिलकुल थक गया था। साथ ही साथ भूख
भी लगी थी। भूंजी लाई लेकर उसने खाना शुरू किया।
इस समय तक मुजफ्फरपुर की घटना चरों दिशाओं में फ़ैल चुकी थी।
जहाँ खुदीराम बैठे थे, लोगों की चर्चा इसी विषय पर हो रही थी।
उत्सुकता से उसने चर्चा सुनी। केवल दो महिलाओं की मृत्यु हुई,
यह सुनकर वह अपने आप को भूल गया और उसने पूछा ,"क्या
किंग्जफोर्ड नहीं मरे?"
खुदीराम के इन शब्दों से दुकान में
बैठे लोगों की दृष्टि उस पर गई। वह लड़का वहाँ नया दीख रहा
था।उसके चेहरे पर बहुत थकान दीख रही थी। दुकान का मलिक उसके
प्रति सशंक हो उठा। उसने विचार किया कि अपराधी को पकड़ने में
सहायता करने पर उसे पुरस्कार मिलेगा। उसने खुदीराम को पानी
दिया और सामने जा रहे पुलिस सिपाही को खबर दी। पानी पीने के
लिये ग्लास उठाते समय ही पुलिस सिपाही ने उसे पकड़ लिया।
खुदीराम अपनी जेब से पिस्तौल नहीं निकाल सका। दोनों पिस्तौलें
पुलिस सिपाहियों ने छीन ली, किन्तु खुदीराम नहीं घबराया।
प्रफुल्ल का
बलिदान
प्रफुल्ल भी खुदीराम की तरह भागा था।उसने दो दिन तक पुलिस
सिपाहियों को चकमा दिया। किन्तु तीसरे दिन भटकते समय वह पकड़ा
गया।पुलिस सिपाहियों को चकमा देकर वह फिर भाग गया। किन्तु
चारों ओर पुलिस का जाल फैला था।"कुछ भी हो, मैं जीवित होते हुए
उन्हें मेरे शरीर को स्पर्श नहीं करने दूंगा -" कहते हुए अपनी
पिस्तौल निकाल कर उसने स्वयं पर चला दी और वीरगति प्राप्त
की।पुलिस उसका सर काटकर मुजफ्फ़रपुर ले गई ।
खुदीराम को पुलिस की निगरानी में रेल गाड़ी से मुजफ्फ़रपुर लाया
गया। जिस भारतीय लड़के ने अंग्रेजों पर पहला बम फेंका था, उसे
देखने हजारों लोग इकट्टा हुए। पुलिस स्टेशन जाने के लिये पुलिस
की गाड़ी में बैठते समय खुदीराम हँसकर चिल्लाया 'वन्देमातरम ' !
गर्व से आँसुओं की धारा लोगों की आँखों से झरने लगी ।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
खुदीराम के विरुद्ध एक अभियोग चलाया गया। सरकार के पक्ष में दो
वकील थे। मुजफ्फ़रपुर शहर में खुदीराम के पक्ष में कोई भी न
था। अंत में कालिदास बोस नामक वकील खुदीराम की सहायता हेतु
आये।
यह मुकदमा दो मास तक चला। अंत में खुदीराम को मृत्यु दंड मिला।
मृत्यु दंड का निर्णय सुनते समय भी खुदीराम के चेहरे पर
मुस्कान थी।
न्यायाधीश को आश्चर्य हुआ कि मृत्युदंड होते हुए भी यह उन्नीस
वर्षीय लड़का शांत कैसे हो सकता है। "क्या तुम इस निर्णय का
अर्थ जानते हो ?" न्यायाधीश ने पूछा ।
खुदीराम हंसकर बोले ,"इसका अर्थ मैं आपसे अधिक अच्छी तरह जानता
हूँ।"
"तुम्हे कुछ कहना है? "
"हाँ। बम किस प्रकार से बनता है, यह मै स्पष्ट करना चाहता
हूँ।"
न्यायाधीश को डर था कि कोर्ट मैं बैठे सारे लोगों को बम तैयार
करने की जानकारी यह खुदीराम देगा। इसलिए उसने खुदीराम को बोलने
की अनुमति नहीं दी।
खुदीराम को अंग्रेजों के न्यायलय से न्याय की आशा थी ही
नहीं।किन्तु कालिदास बोस की खुदीराम को बचाने की इच्छा थी।
उन्होंने खुदीराम की ओर से कलकत्ता हायकोर्ट में याचिका दाखिल
की। कलकता हायकोर्ट के न्यायधीश भी खुदीराम के स्वभाव को जानते
थे। निर्भय आँखोंवाले दृढ निश्चयी खुदीराम को देख कर उन्हें भी
आश्चर्य हुआ। उन्होंने भी खुदीराम को मृत्युदंड ही दिया जो
कनिष्ठ कोर्ट ने दिया था। किन्तु उन्होंने खुदीराम के फांसी का
दिन ६ अगस्त से १९ अगस्त १९०८ तक बढ़ा दिया ।
"तुम्हे कुछ कहने की इच्छा है?" पुन: पूछा गया ।
खुदीराम ने कहा ,"राजपूत वीरों की तरह मेरे देश की स्वाधीनता
के लिये मैं मरना चाहता हूँ। फाँसी के विचार से मुझे जरा भी
दुःख नहीं हुआ है। मेरा एक ही दुःख है कि किंग्ज फोर्ड को उसके
अपराध का दंड नहीं मिला।"
कारागृह में भी उसे चिंता नहीं थी। जब मृत्यु उसके पास पहुँची,
तो भी उसके मुख पर चमक थी। उसने सोचा कि ' जितनी जल्दी मैं
मेरा जीवन मातृभूमि के लिये समर्पित करूँगा, उतनी ही जल्दी
मेरा पुन: जन्म होगा ।' यह कोई पौराणिक कथा नहीं है ।
माँ की गोद में वापसी
मृत्युदंड के निर्णय के अनुसार १९ अगस्त १९०८ को सुबह ६ बजे
खुदीराम को फाँसी के तख्ते के पास लाया गया। उस समय भी उसके
चेहरे की मुस्कान कायम थी। शांति से वह उस स्थान पर गया। उसके
हाथ में भगवद्गीता थी। अंत में एक ही बार उसने 'वन्देमातरम '
कहा और उसे फाँसी लगी। अंत में खुदीराम ने अपना ध्येय प्राप्त
किया। उसने अपना जीवन मातृभूमि की चरणोंपर समर्पित कर दिया।
भारत के इतिहास में वह अमर है।
खुदीराम का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उसका फेंका हुआ बम
किंग्जफोर्ड पर नहीं दूसरों पर पड़ा। किन्तु उस बम से
किंग्जफोर्ड के मन में भय अवश्य निर्माण हुआ। जिस दिन खुदीराम
हुतात्मा बना, उस दिन से ही किंग्जफोर्ड को शांति
नहीं मिली
थी। प्रत्येक क्षण उसे अपनी मृत्यु दिखती थी। अंत में वह इतना
डर गया कि उसने अपनी नौकरी छोड़ दी और मसूरी जाकर रहा।जिस
किंग्जफोर्ड ने निष्कलंक, निरपराध लोगों को धमकाया, यातनाएँ दी
थीं, वह खुद भयग्रस्त होकर मरा ।
एक प्रेरणा
पर खुदीराम मर कर भी अमर हुआ। उसने दूसरों को भी इसी प्रकार
अमर होने की प्रेरणा दी। थोड़े ही समय में हजारों स्त्री-पुरुषों ने खुदीराम के मार्ग का अनुसरण कर भारत में अंगेजों की
सता नष्ट कर दी। जहाँ, किंग्जफोर्ड को अपना पद छोड़ना पड़ा,
वहीँ अंग्रेजों को भारत ही छोड़ना पड़ा।
इस अमर शहीद को को सम्मानित करते
हुए १९९० में भारतीय डाक-तार विभाग ने एक रुपये मूल्य का एक
डाक टिकट प्रकाशित किया जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है।
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भारत-भारती(हिन्दी
संस्करण ) बाल पुस्तकमाला, प्रकाशन, प्रभाकर फैजपूरकर,
कार्यवाह, श्री बाबासाहेब आपटे स्मारक समिति, रूईकर पथ, नागपुर
, महाराष्ट्र से साभार |