रचनाकार
पंकज सुबीर
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प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ,
१८ इंस्टीट्यूशनल एरीया
लोदी रोड, नयी दिल्ली ११००३२
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पृष्ठ - २०८
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मूल्य:
२३० रूपये
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'ये वो
सहर तो नहीं' (उपन्यास)
ये दाग दाग उजाला ये शब
गजीदा सहर, वो इन्तिजार था जिसको ''ये वो सहर तो नहीं ''
फैज साहब की नज्म से प्रारम्भ होने वाला उपन्यास ''ये वो
सहर तो नहीं...'' वर्तमान परिदृश्य को जिस बेबाकी से बयान
करता है उसके लिए लेखक पंकज सुबीर प्रशंसा के पात्र हैं।
गुदगुदी करते करते कोई तेजी से कचोट जाये तो कैसा लगता
है... बस यही एहसास है ''ये वो सहर तो नहीं''.....!
यह उपन्यास विन्यास और शिल्प की दृष्टि से इसलिए अद्भुत है
क्योंकि यह उपन्यास १८५७-२००७ के १५० वर्षों की कहानी कहता
है। अगर यह कहा जाए कि डेढ़ सौ वर्षों से अधिक समय की थाह
लगाते हुए लेखक पंकज सुबीर ने प्रकारान्तर से लोकतंत्र की
सामर्थ्य और सीमा को परखा है, तो कहीं से गलत न होगा।
उपन्यास के पात्र आजादी के पूर्व के आशावाद और आजादी के
बाद की उपजी परिस्थितियों के बीच हिचकोले खाते नजर आते
हैं। देश में तख्त बदलता है, निजाम बदलता है मगर
परिस्थितियाँ जस की तस रहती हैं। उपन्यास सिद्धपुर (जिसे
बाद में सीदपुर कहा गया है) के अंग्रेजी केंटोन्मेंट और
नबावी हुकूमत से आरंभ होती हुई आज के सीदपुर तक जाती है।
यद्यपि सिद्धपुर की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने में पंकज
काफी समय लगाते हैं किन्तु यह परिचय काफी रोचक है सो
पाठकों को बोझिलता महसूस नहीं होती कहानी धीरे-धीरे आगे
बढ़ती है, पात्रों को विस्तार मिलता है।
कहानी की शुरुआत में हृयूरोज
का बंगला उपन्यास का मुख्य पात्र बनता है। इस बंगले में
१८५७ में हृयूरोज अपने सहयोगियों के साथ एक पोलिटिकल
एजेण्ट की भांति जो कुछ भी कर गुजरने की फिराक में है वही
कमोबेश २००७ में इसी जगह सीदपुर के कलेक्टर (आई.ए.एस. )
मानवेन्द्र सिंह द्वारा अपनी चाण्डाल चौकड़ी के द्वारा
दोहराया जाता है। शासन -प्रशासन -पत्रकारों की यह तिकड़ी
जिस भी तरह अपने स्वार्थों की पूर्ति करती है, उसे यह
उपन्यास बखूबी प्रस्तुत करता है। |
राजनीतिक
व्यक्तित्वों और उनके सोचने की प्रवृत्ति को यह उपन्यास
जिस बेबाकी से प्रस्तुत करता है वह लाजबाव है। उपन्यास के
पात्र और घटनाएँ भले ही काल्पनिक हों लेकिन वास्तव में वे
हमारे आस-पास से उठाए गए प्रतीत होते हैं....! यही इस
उपन्यास की सफलता है...! पात्र और घटनाएँ किस तरह पाठक से
नाता जोड़ लेते हैं, इसकी एक बानगी उपन्यास के इस अंश में
देखिये... "बात तब की है जब उस घटना को बीते कुछ ही दिन
हुए थे जब एक संन्यासिन ने एक राजा को सूबे के चुनावों में
हरा कर सत्ता हथिया ली थी। यह भी बिल्कुल अलग बात है कि
राजा, राजा नहीं थे केवल नाम के ही थे और संन्यासिन भी
संन्यासिन होकर केवल नाम की ही थीं। राजा केवल इसलिए राजा
थे क्योंकि उनके पूर्वज किसी रियासत के राजा हुआ करते थे
और संन्यासिन केवल इसलिए संन्यासिन थीं क्योंकि वे भगवा
रंग के वस्त्र धारण करती हैं। इसके अलावा न तो राजा के
आचरण में राजा जैसा कुछ था और ना ही संन्यासिन के आचरण में
संन्यासिन जैसा ही कुछ था। संन्यासिन के हाथ से सत्ता जानी
थी सो अन्तत: चली ही गयी। सत्ता गयी इसका मतलब यह कि उनकी
पार्टी से उनको चलता कर दिया गया। उनकी पार्टी यूज एँड
थ्रो में बहुत विश्वास करती थी।"
आई.ए.एस.-पत्रकार-नेताओं की यह तिकड़ी किस प्रकार निजी
स्वार्थों में लिप्त और आकण्ठ डूबी हुई है, यह इस उपन्यास
का केन्द्र बिन्दु है। विकास और जनता के हितों की अनदेखी
कर कैसे यह तिकड़ी अपने स्वार्थों की पूर्ति करती
है...उपन्यास में यह रोमांचक मोड़ है। सिध्दपुर का कलेक्टर
मानवेन्द्र जो एक आई.ए.एस. अफसर है वो जिस कूटनीतिक ढंग से
अपने विरोधी पत्रकार परमार से निपटता है वो उपन्यास में
थ्रिल पैदा करता है।
बहरहाल इस उपन्यास में आज की सच्चाईयों को पंकज सुबीर ने
बहुत ही बेबाकी से परोसा है। तंत्र किस प्रकार अपने हितों
तक सिमट कर रह गया है, यह उपन्यास इस सोच की बेहतरीन
प्रस्तुति है। भाषा की दृष्टि से तो उपन्यास बेजोड़ है।
स्थानीय लोकोक्तियों को समाहित करते हुए पात्रों का आपसी
संवाद सहज रोचकता पैदा करता है,जैसे ''हाथ पुंछे भैंरों''
''बीमार कुत्ते वाला किस्सा'' (पृष्ठ १११), ''कच्चा कैरी
पक्का आम, टॉई टुई लेंडी फुस्स'' (पृष्ठ ३२) जैसे कई
जुमलों का प्रयोग इतनी सावधानी से किया गया है कि लेखक
पंकज सुबीर का लेखकीय कौशल देखते ही बनता है।
''ये वो सहर तो नहीं'' पढते वक्त कई बार ऐसा लगता है कि
जैसे हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित व्यंगकारों जैसे परसाई जी,
शरद जोशी जी, श्री लाल शुक्ल जी या फिर ज्ञान चतुर्वेदी जी
को पढ़ा जा रहा है तो गलत अथवा अतिश्योक्ति नहीं लगता...!
दो काल में सामानांतर चल रही कहानियों में तालमेल बिठाना
कोई हँसी खेल नहीं, पंकज सुबीर का ये विलक्षण लेखन उन्हें
अपने समकक्ष लेखकों से बहुत आगे ले जाता है। लेखन की इतनी
खूबियाँ एक ही उपन्यास में समेटना बहुत आश्चर्य का विषय है
और ये पंकज सुबीर के गहन अध्यन और हमारे समाज में घट रही
गतिविधियों पर उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है। उन्होंने जिस
अंदाज से पात्रों का चरित्र चित्रण किया है उसे पढ़ कर लगता
है जैसे हम उन्हें जानते हैं और वो हमारे बीच के ही हैं।
बहरहाल जागरूक पाठकों के लिए
यह कृति संग्रहणीय व अपरिहार्य है। एतिहासिक पगडण्डियों से
गुजरते हुए वर्तमान की गंदी गलियों तक पहुँचने में यह कृति
एक गाइड की तरह कार्य करती है। वैसे तो पंकज सुबीर युवा
लेखकों की श्रेणी में अग्रिम पंक्ति में आ ही चुके हैं मगर
फिर भी पंकज सुबीर जैसे लेखकों को प्रोत्साहित करना इसलिए
भी आवश्यक है क्योंकि नयी पीढी के लेखकों में महान कथाकार
कमलेश्वर सरीखी किस्सा गोई की प्रवृत्ति इतनी दृढ़ रूप में
कम ही देखने को मिलती है। कथा-शिल्प-भाषा की दृष्टि से
उपन्यास ये वो सहर तो नहीं के लिए लेखक पंकज सुबीर को इस
उपन्यास के लिए कोटिश बधाई, साधुवाद। भारतीय ज्ञानपीठ के
नवलेखन पुरस्कार से यह कृति यदि सम्मानित की गयी है तो यह
कृति इसकी सही हकदार है भी।
फैज के मोहभंग वो इन्तजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं से
साहिर के प्रबल आशावाद वो सुबह कभी तो आएगी के बीच यह कृति
एक साहित्यिक, सामाजिक दस्तावेज है जिसके लिए लेखक पंकज
सुबीर की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है।
पवन कुमार
११ जुलाई २०११ |