आज सिरहाने |
रचनाकार
मिथिलेश्वर
*
प्रकाशक
ज्ञानपीठ प्रकाशन,
दिल्ली
*
पृष्ठ - ३९६
*
मूल्य:
१४.९५ डॉलर
(कूरियर से)
*
प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह
वेब पर
दुनिया के हर कोने में
|
'सुरंग
में सुबह' (उपन्यास)
अखिल भारतीय मुक्तिबोध
पुस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, अमृत
पुरस्कार तथा साहित्य मार्तण्ड सम्मान से सम्मानित
मिथिलेश्वर का राजनीतिक उपन्यास सुरंग में सुबह बड़े आकार का
उपन्यास है। लोकतन्त्र विमर्श मुख्यत: उसके परवर्ती
हिस्से में है। आधे से अधिक पृष्ठों में राजनीतिक, सामाजिक
जीवन के उस यथार्थ को उभारा गया है, जिसकी देन लोकतन्त्र का
यह संकट है।
बिहार प्रदेश का जो अंचल कथा
के केन्द्र में है वह मिथिलेश्वर का अपना जाना बूझा अंचल,
उनकी अपनी जमीन है। उपन्यास में चित्रित राजनीतिक सामाजिक
जीवन की घटनाएँ इसी जमीन पर घटित होती हैं। पात्र भी इसी
जमीन के हैं, वे सत्तारूढ़ दल के केन्द्रीय मन्त्री राव
मानवेन्द्र हों, उनका प्रतिस्पर्द्धी आर. अण्डमान हो,
उनकी बेटी नन्दिता हो या फिर जनार्दन, अंजलि, घनश्याम या
दूसरे पात्र। आज की राजनीति और राजनेताओं के अध:पतन के,
राजनीतिक नैतिकता की क्षय के जो प्रयोग उपन्यास में हैं,
तथा लोकतन्त्र के विद्रूपीकरण के खिलाफ जो अभियान जनार्दन
और अंजलि अपने युवा साथियों की मदद से चलाते हैं, विविध
राजनीतिक दलों के अपने क्रियाकलाप, बाजार तन्त्र और मीडिया
की अवांछित भूमिकाएँ, उन सबका सम्बन्ध भी उसी धरती के
यथार्थ से है जो मिथिलेश्वर की अपनी जानी-पहचानी है।
सामाजिक अराजकता, ग्रामीण जीवन
की रूढ़िबद्धता, अपढ़ जनता की मानसिक जड़ता, दरिद्रता तथा
हत्या, सामूहिक नरसंहार, अपहरण, दलित उत्पीड़न, स्त्री
शोषण आदि की जिन घटनाओं को उपन्यास में उभारा गया है, उनका
सम्बंध भी बिहार प्रदेश के देखे भोगे जीवन की वास्तविकताओं
से है। मिथिलेश्वर के रचनाकार का वैशिष्ट्य इस बात में है
कि यथार्थवाद की अपनी कला के तहत जो भी स्थितियाँ, प्रसंग,
घटनाएँ या पात्रों के अपने क्रियाकलाप उपन्यास में सजीव हुए
हैं वे प्रादेशिक अथवा आंचलिक सीमाओं से आगे प्रतिनिधि बनकर
उपन्यास में आए हैं, और उनके जरिये हिन्दुस्तान के किसी भी
भाग के राजनीतिक-सामाजिक जीवन के यथार्थ को समझा जा सकता है।
यह भारतीय राजनीतिक सामाजिक जीवन का यथार्थ है जो उपन्यास
में उद्घाटित हुआ है।
मिथिलेश्वर का कथाकार उपन्यास में वास्तविक जीवन के
यथार्थ के प्रति इतना निष्ठावान है कि वह हर तरह की मनोगत
भूमिकाओं से अपने को बचा सका है, पूर्वाग्रहों से अपने को
अलग रख सका है। |
उपन्यास
का मुख्य पात्र राव मानवेन्द्र की हवेली से बाहर आकर जिस
नए अवतार में हमसे रूबरू होता है अन्त तक उसका वह रूप
बरकरार रहता है। राजनीति की अपनी पाठशाला, राव मानवेन्द्र
की हवेली में वह राजनीति के अध:पतन को उसके चरम में देखता
है, राजनीति की बारीकियों और उसके तिलिस्म का ज्ञान भी
उसे वहीं होता है और इस सबके प्रति मन में अथाह नफरत लिए
जब वह हवेली से बाहर अपने गांव में, अपनी जमीन में, सब कुछ
ठोस और सार्थक करने का मन बनाता है, अपनी मंजिल उसे जनदेश
पार्टी जैसी वामपन्थी पार्टी से जुड़ने में दिखाई देती
है। वह और उसके साथी जनदेश पार्टी के सक्रिय सदस्य बन
जाते हैं और अपने कार्यों और अपनी सूझबूझ से उसे
लोकप्रियता की बुलन्दियों तक पहुँचा देते हैं।
जनार्दन
की ये क्षमताएँ ही हैं जिनके चलते आगामी चुनाव में जनदेश
पार्टी उसे राव मानवेन्द्र के अपने क्षेत्र से अपने
प्रत्याशी के रूप में खड़ा करने का निश्चय करती है।
परन्तु पार्टी सुप्रीमो को जब ज्ञात होता है कि उस
क्षेत्र से सत्ताधारी दल की प्रत्याशी राव मानवेन्द्र
की बेटी नन्दिता है, जनदेश पार्टी अपने पूर्व निर्णय को
बदलकर जनार्दन के स्थान पर राव मानवेन्द्र की जाति के
एक अन्य व्यक्ति को टिकट देने का मन बनाती है और जनार्दन
के विरोध करने पर पार्टी अनुशासन के नाते उसे चुप रहने की
सलाह देती है। राजनीति के अपने अवसरवादी रवैये से बेहद
नफरत करने वाला जनार्दन अन्तत: जनदेश पार्टी को छोड़ देता
है और अपने विश्वस्त सहयोगियों के साथ अकेले ही
लोकतन्त्र की रक्षा के अपने अभियान को जारी रखने का
निर्णय लेता है। मिथिलेश्वर ने साहस के साथ यह कहने और
बताने की कोशिश की है कि लोकतन्त्र की विकृतियाँ महज
सत्तारूढ़ दल तक ही सीमित नहीं हैं, जन संघर्षों से सीधी
जुड़ी वामपन्थी पार्टियाँ तक प्रदूषण से बच नहीं पाई हैं।
वे भी अन्तर्विरोधों का शिकार हैं, मौकापरस्ती और जाति
और वंश की मानसिकता उन्हें भी अपने चपेट में लिए हुए है।
उपन्यास के जिस परवर्ती हिस्से में लोकतन्त्र पर छाए
संकट पर विमर्श है उपन्यास का वह अंश स्वाभाविक रूप से
गझिन हो उठा है। लम्बी-लम्बी बहसें हैं जो कथा के प्रवाह
को बाधित करती हैं, तर्क-वितर्क हैं, जो लम्बे खिंचकर
एकरसता पैदा करते हैं। परन्तु एक ऐसे उपन्यास में जो
विमर्श केन्द्रित उपन्यास है, इन स्थितियों से बचा भी
नहीं जा सकता। इसी अंश में मिथिलेश्वर ने मीडिया और
समाचार पत्रों की अपनी अवांछित भूमिका पर बेधड़क टिप्पणियाँ
की हैं। बाजार तन्त्र की चपेट में आई अवसरवादी पत्रकारिता
को बेनकाब किया है। विचारपूर्ण और उद्देश्य गर्भित होते
हुए भी यह सारा प्रयास कहीं न कहीं उपन्यास की पठनीयता पर
भारी पड़ा है।
मिथिलेश्वर ने विमर्श को इसीलिए उपन्यास के परवर्ती
हिस्से में ही सीमित किया है, जबकि शेष भाग में राजनीतिक
सामाजिक जीवन के यथार्थ की ही जीवन्त प्रस्तुति है। इसके
अलावा अपने ढंग से कुछ छोटी आवान्तर कथाएँ और प्रसंग भी
उपन्यास में हैं जो कथा की एकरसता को तोड़ते हैं और उसे
सरस बनाए रखते हैं। ऐसी ही एक अवान्तर कथा या प्रसंग
जनार्दन और अंजलि के बीच विकसित होते प्रेम सम्बन्ध का
है। ये दोनों अपने पहले ही परिचय में एक-दूसरे को मन के
किसी कोने में टांक लेते हैं। परिचय की प्रगाढ़ता इनके
आपसी प्रणय सम्बन्धों को भी प्रगाढ़ बनाती है। राजधानी
की रैली में जनार्दन, अंजलि को बहुत नजदीक से जान पाता है।
रैली के अपने वृत्तांत में मिथिलेश्वर ने जनार्दन और
अंजलि के अपने रागात्मक सम्बन्ध को जिन स्थितियों से
बुना है, वे बहुत स्वाभाविक हैं। जनार्दन का पुरूष अनेक
क्षणों में सीमाओं से बाहर चले जाने की मानसिकता में आता
है परन्तु अंजलि के भीतर की स्त्री उसे उतने ही
स्वाभाविक ढंग से बरज देती है। यह पूरा का पूरा प्रसंग
मिथिलेश्वर ने मनोविज्ञान की संगति से बड़े सहज, बड़े
मानवीय और बड़े स्वाभाविक रूप में बुना है।
उपन्यास का शीर्षक 'सुरंग में सुबह' मिथिलेश्वर ने बहुत
सोच-विचार कर रखा है। वस्तुत: लोकतन्त्र के संकट में
जूझते जनार्दन और उसके सहयोगियों के कर्मठ प्रयासों पर यह
एक अखबारनवीस की टिप्पणी है, जो उपन्यास का शीर्षक बन गई
है। कहने की जरूरत नहीं कि र्शीषक व्यंजनागर्भी शीर्षक है
समूचे उपन्यास के संवेदनात्मक उद्देश्य को खोल देने
वाला।
सुरंग और सुबह दोनों प्रतीक हैं । एक लोकतन्त्र पर छाए
संकट और अँधियारे का, दूसरा उस संकट से टकराने, अन्धकार
के खिलाफ प्रकाश के अपने संगठित अभियान का। लोकतन्त्र का
यह विद्रूप जो आज हमारी आँखों के सामने है, वह सुरंग है
जिसके भीतर से देश गुजर रहा है और सुबह वे कर्मठ प्रयास
हैं जिनकी अगुवाई जनार्दन और उसके साथी कर रहे हैं।
रचनाकार का बल सुरंग पर नहीं, उसके भीतर फूटने वाली सुबह
पर है जिसे अपने प्रकाश को बिखेरने के लिए अनन्त आकाश भले
न मिले हों, परन्तु वह फूट चुकी है। अंधियारा घटाटोप है,
सख्त है और उसे बेधने वाली प्रकाश की किरणें अभी उतनी
सशक्त नहीं हैं। परन्तु सुबह का होना ही, भले वह सुरंग
के भीतर का हो, अपनी अहमियत रखता है। कुछ लोग हैं, जिनमें
ईमानदारी, निष्ठा और संकल्प हैं, कुछ ताकतें हैं जो
अँधियारे के खिलाफ खड़ी हैं बहुत कठिन प्रयासों की जरूरत
है अंधियारे को भेदने के लिए। बड़े धीरज की जरूरत है,
किन्तु प्रतिज्ञा हो चुकी है।
वस्तुत: यह घटाटोप अन्धकार से प्रकाश का महासमर है जिसे
लड़ा जाना है। बिगुल बज चुका है। पूरा उपन्यास इस बिन्दु
पर अन्धकार और प्रकाश के समर की महागाथा बन जाता है। जो
प्रकाश के पक्ष में खड़े हैं, वे गँवई गाँव के साधारण
जन हैं, परन्तु जो ईमानदार और कर्मठ हैं, समय के कुचक्र
के बावजूद अपने जमीन को बचाए रख सके हैं। अपने अलावा जो
समाज और देश हित के बारे में भी सोचते और सोच सकते हैं।
जिनका मन साफ है प्रदूषण से मुक्त। वे गलतियाँ करते हैं
और अपनी गलतियों से सीखते हैं। उनमें अहं नहीं है। भटकते
हैं परन्तु सही राह पर आ जाते हैं। आपस में बहसें करते
हैं और रास्ता निकालते हैं। अपने अनुभवों से सीखना उनका
स्वभाव है। अन्धकार अब निरापद नहीं रहा है।
यही वह बिन्दु है जहाँ मिथिलेश्वर खुद अपनी ही फेंकी गई
चुनौती की गिरफ्त में आ गए हैं। यदि लोकतन्त्र भ्रष्ट और
विपथित है तो क्या है उसका निदान? वही यक्ष प्रश्न,
जिसका संकेत हमने प्रारम्भ में किया है। है कोई विकल्प
इस भ्रष्ट लोकतन्त्र का? मिथिलेश्वर की निगाह में भी
शायद नहीं। तभी वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि
लोकतन्त्र का विकल्प लोकतन्त्र ही हो सकता है, विपथित
और भ्रष्ट लोकतन्त्र का विकल्प, अपनी गरिमा और मर्यादा
वाला यही लोकतन्त्र है। कथाकार अपनी ही चुनौती को झेलता
है। बड़े संयम और समझदारी के साथ वह इस निष्कर्ष पर
पहुँचता है कि संकट का कोई भी आरोपित समाधान, कोई भी थोपा
हुआ समाधान, कोई भी आदर्शवाद या सदिच्छा उपन्यास को उसकी
यथार्थवादी जमीन से विपथित कर क्षत-विक्षत कर देगी।
यह आशावाद है परन्तु थोथा आशावाद नहीं। इसकी जड़ें
वास्तविकता में हैं। प्रकाश के पक्ष से लड़ने वालों के
पैर अपनी जमीन पर हैं। बड़े मानवीय संकल्पों की पूर्ति की
दिशा में इतना आशावाद या आदर्शवाद जरूरी भी है। आँखों में
अपने न हों तो मंजिल की तरफ बढ़ने में दिक्कत होती है। ये
सपने ही आदमी को मंजिल तक पहुँचाते हैं। उम्मीद पर दुनिया
कायम है, अन्यथा घटाटोप अन्धकार में दरारें कैसे
पड़ेंगी, सूराख कैसे किए जा सकेंगे? मिथिलेश्वर युवाओं की
टोली लेकर आए हैं वही उनके इस आशावाद का संबल है। यह
देवीदीन खटिक की सन्तति है जो मिथिलेश्वर के इस उपन्यास
में अपनी सारी ऊर्जा के साथ अवतरित हुई है।
शिव कुमार मिश्र
२८ जून २०१० |
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