आज सिरहाने

 

रचनाकार
पद्मा सचदेव

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प्रकाशक
ज्ञानपीठ प्रकाशन,
दिल्ली

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पृष्ठ - २१८

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मूल्य :  ९।९५ डॉलर

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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

जम्मू जो कभी शहर था (उपन्यास)

पद्मश्री उपाधि से अलंकृत डोगरी की सुप्रसिद्घ कवियत्री, हिंदी की कथाकार,  पद्मा सचदेव के उपन्यास 'जम्मू जो कभी शहर था` के केंद्र में सुग्गी नाईन है। वह शहर के हर घर के दुख-दर्द की साक्षी भी है और उनकी सलाहकार भी। जम्मू शहर ने जितने उतार-चढ़ाव झेले हैं, वह अपने आप में एक इतिहास है और सुग्गी के माध्यम से लेखिका ने उसे बहुत ही खूबसूरती और जीवंतता के साथ चित्रित किया है। एक समय था जब नाइनें घटनाचक्रों, लोगों की जिंदगी के संघर्षों और सपनों को बुनती थी। सुग्गी एक बहुत ही आम औरत है पर लोग उसे अपनी सबसे खास हितैषी मानते हैं। सुग्गी नाईन के बिना उनकी जिंदगी की कोई खुशी व पीड़ा नहीं बंटती, कोई त्योहार या विवाह संपन्न नहीं होता।

लेखिका के शब्दों में आज जम्मू एक कूड़ाखाना हो गया है जहाँ भीख माँगने वाले भी बाहर से आने लगे हैं। इस दर्द को भीतर तक महसूस करने के कारण ही शायद सुग्गी के माध्यम से उन्होंने बीते कल के जम्मू का खाका खींचा है। सुग्गी सारे दिन फिरकनी सी दौड़ती रहती है। पति के नकारा और फिर मरने के बाद बेटे व नाती की परवरिश और दूसरों के बेटे-बेटियों की शादी करते, उसकी जिंदगी कटती है। सीमा उसकी बचपन की सहेली है, जिसकी देहरी पर जाकर वह अपने पेट की क्षुधा शांत करने के साथ-साथ मन के आवेगों को भी निर्विरोध बहने देती है। सीमा भोली और सीधी-सादी औरत है जो अपने घर की चारदीवारी में ही खुश है। सीमा उन औरतों का प्रतिनिधित्व करती है जो संस्कारों से बँधी हैं और पति सेवा व बेटे की तरक्की की कामना करना ही अपने जीवन का ध्येय मानती हैं। सारे रीति-रिवाजों को खुशी से निभाती है और गृहस्थी के सुख गीतों में गुनगुनाती है। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। सीमा के पति पंडित देवदत्त के साथ सुग्गी की चुहलबाजी कथा में रस डालती है।

सुग्गी की निर्भीकता उसकी बोली से झलकती है। वह हमेशा कड़वा सच कहती है। वह कहती है, 'ये दुनिया बहुत बुरी चीज है। इस दिल में शहर के कई घरों के गुबार पड़े हैं। जैसे कुएँ में गिर गई चीजें पड़ी रहती हैं। वह हर किसी की लाज व इज्जत बचाना चाहती है इसलिए इसकी बात उससे नहीं करती पर फिर भी बातें निकल जाती हैं। वह जानती है, इस जम्मू शहर में लोगों के पेट में पंसेरी अनाज रह सकता है, पर बात नहीं।`

जम्मू शहर की समस्याओं और मरती हुई सांस्कृतिक धरोहर को जिस बखूबी से लेखिका ने पात्रों को जोडते हुए बुना है, वह काबीले तारीफ है। शहर के लोगों की भाषा और रहन-सहन से ही वहाँ की पहचान होती है। हर छोटी-छोटी बात का ज़िक्रकर लेखिका ने उस शहर को ही मानो जीवंत कर दिया है जो धीरे-धीरे आतंकवाद के शिकंजे में कसता जा रहा है।

पद्माजी ने इस उपन्यास में जितने भी पात्र रचे हैं, वे सभी एक कहानी कहते हैं। उनमें जीने की ख्वाहिश तो है पर तकलीफों की आहट भी साफ सुनाई देती है। लाजो के साथ हुए बलात्कार के माध्यम से उन्होंने बेटियों की जिंदगियों की त्रासदी को छुआ है। पदमाजी की भाषा में जो लयात्मकता है और शब्दों की बानगी है वह अद्भुत है। उपन्यास के बीच-बीच में लोकगीतों के माध्यम से लोगों के जीवन के सच को उकेरा है। इससे कहानी में प्रवाह आ गया है। जम्मू शहर की लोक संसकृति, जीवन-शैली और दिनचर्या कहानी में ही बुनी गई है जिससे रोचकता बनी रहती है। पाठकों को कैसे शब्दों के प्रवाह में बांधे रखना है, इसमें लेखिका का कोई सानी नहीं है।

अपने उपन्यास के विषय में पद्मा जी कहती है- "वो जम्मू जो मुझे याद आता रहता है। आज तो जम्मू कूड़ाखाना हो गया है। भीख माँगनेवाले भी बाहर से आ गये हैं। वैसे तो सारा भारत एक घर है, पर जब शेख अब्दुल्ला की सलाह पर महाराजा हरिसिंह ने रियासत में किसी भी बाहर के आदमी को आकर बसने में रोक लगायी तब यही मंशा रही होगी कि भीड़ न हो जाय, कहीं भीड़ न हो जाय। इसमें बेटियाँ चपेट में आ गयीं। जो लड़की बाहर शादी करे वो यहाँ की शहरी नहीं है पर लड़कों के रियासत दी गयी, वो चाहे फारुख अब्दुल्ला हों या कोई और। उनकी पत्नियाँ बिना रियासत में पैदा हुए, बिना भाषा जाने यहाँ की शहरी हो गयीं। पर पद्मा सचदेव की तरह और कितनी ही लड़कियाँ यहाँ दो ग़ज ज़मीन भी नहीं ले सकतीं। कुछ इस दर्द ने, कुछ सुग्गी नाइन ने, कुछ पुराने शहर ने यह उपन्यास लिखवा दिया। हो सकता है यह उपन्यास पढ़कर आपको भी अपना पुराना शहर याद आ जाय।"

उपन्यास में एक आत्मीयता है, तीखे प्रहारों में छिपा यथार्थ है और मानस को झकझोरने की क्षमता है। अंत तक जो कहानी का प्रवाह बँधे रहता है उसे सुग्गी नाईन की मृत्यु भी तोड़ने में सफल नहीं हो पाती। नाईनें अब नहीं हैं, पर इतिहास में तो जिंदा हैं।

सुमन बाजपेयी
२७ अप्रैल २००९