रचनाकार
मन्नू भंडारी
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प्रकाशक
राधाकृष्ण प्रकाशन,
दिल्ली
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पृष्ठ - २१९
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मूल्य : १४.९५ डॉलर
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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह
वेब पर
दुनिया के हर कोने में
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एक कहानी यह
भी (आत्म-स्मरण)
लेखक का रचना-संसार 'स्व' और
'पर' का सम्मिलित उपक्रम होता है। जो कुछ उसके आसपास घटित
होता है उसमें घुसकर जो कथा-सूत्र वह बटोरता है उसमें
बहुत-सी कील और कसक उसके अपने कलेजे की होती है। लेखक के जगत
में जीवन स्थितियों और कथस्थितियों में तादात्म्य कभी
क्रांति पैदा करता है तो कभी संक्रांति। मन्नू भंडारी अपवाद
नहीं हैं।
‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ जैसे उपन्यास और अनेक बहुपठित-चर्चित कहानियों की लेखिका मन्नू भंडारी इस पुस्तक में अपने लेखकीय जीवन की कहानी कह रही हैं। यह उनकी आत्मकथा नहीं है, लेकिन इसमें उनके भावात्मक और सांसारिक जीवन के उन पहलुओं पर भरपूर प्रकाश पड़ता है जो उनकी रचना-यात्रा में निर्णायक रहे। |
लेखक के अंदर उमड़ते
उत्साह, उमंग, असमंजस, प्रबोध और प्रबुद्धता, फैलता हुआ
द्वंद्व और दुविधा, निराशा और हताशा इन सभी भावों का इस
पुस्तक में बेहद सजीव और संयत आकलन हुआ है। इस दृष्टि से यह
हमारे समय की एक ज़रूरी किताब बनकर सामने आती है।
मन्नू भंडारी ने सहजता से,
बल्कि सादगी से अपनी रचनात्मकता के बारे में लिखा है, 'पहले
पात्र मेरे साथ-साथ चलते थे पर बाद में जो सामने आ खड़े
होते- चुनौती देते... ललकारते कि पकड़ो मेरे व्यक्तित्व के
किन पक्षों और पहलुओं को पकड़ सकती हो। पहले घटनाएँ अपने आप
क्रम से जुड़ती चलती थीं, एक के बाद एक, सहज, अनायास पर आज?'
धीरे-धीरे पात्रों और स्थितियों के अंतर्द्वद्व उन्हें
आंदोलित और प्रेरित करने लगे।
'जब से लिखना आरंभ किया तब
से न जाने कितनी बार इस प्रश्न से सामना हुआ' कि मैं क्यों
लिखती हूँ। केवल मेरे ही क्यों, अधिकांश लेखकों के लिखने के
मूल में क्या एक और अनेक के बीच सेतु बनने की कामना ही निहित
नहीं रहती? मन्नू भंडारी बड़ी साफगोई से ऐसे सवाल पूछती हैं।
पाखंडी लेखक भले ही कहें कि उन्हें पाठकों की परवाह नहीं, पर
हर सवाल का एक ईमानदार जवाब भी होता है।
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आत्मविश्लेषण की जटिलता से
जूझते हुए लेखिका ने अपने जीवन के कुछ धक्के भी बयान किए
हैं। ज़ाहिर है इनकी धमक से रचनाकार का आत्मविश्वास काफी
ध्वस्त हुआ। कहाँ तो उसके मन में प्रणय और परिणय के रूमानी
सपने थे, किसी भी लड़की की तरह, कहाँ उसका सामना हुआ पति के
जीवन में समानांतर प्रेम संबंधों से। हाँ, उसने खुली आँख से प्रेम
किया था, स्वावलंबी थी, पति से कभी धन दौलत की लालसा नहीं
रखी थी। 'चाहा था तो एक अटूट विश्वास, एक निर्द्वंद्व
आत्मीयता और गहरी संवेदनशीलता जिसके चलते हम खूब लिख
सकें... एक से अच्छी एक रचना का सृजन कर सकें।'
मन्नू भंडारी और राजेंद्र
यादव पिछली शताब्दी के सातवें दशक की सबसे बड़ी प्रेमकहानी
थे, हिंदी जगत के लिए। लोगों ने उनके प्रणय और परिणय को
अपने अतृप्त स्वप्नों से सींचा और संजोया। तब हमें क्या,
खुद मन्नू भंडारी को भी नहीं पता था कि 'एक दुनिया
समानांतर' कथासंकलन के संपादक राजेंद्र यादव निजी जीवन में
भी एक समानांतर दुनिया जीने के समर्थक हैं। पुस्तक में
मन्नू जी ने इस प्रसंग को बड़े चित्रात्मक शब्दों में लिखा
है- 'हम लोग आगरा पहुँचे तो दरवाज़े पर आरती उतार कर बहनों
ने द्वार रुकाई की रस्म करके अच्छी तरह बता दिया कि यहाँ
इस शादी को लेकर पूरा उत्साह है। शाम को बीच आँगन में बाई
(सास), बहनों और कुछ औरतों के बीच, पटरे पर बैठी, कुछ
रस्में करवाती हुई मैं, और जिस स्थिति की मैं दूर-दूर तक
कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकती थी, उस स्थिति से
गुज़रते हुए राजेंद्र। मीता की मित्र का कमरा... लगातार
रोती हुई सीता... झूठ, छल प्रपंचों के आरोपों की बौछार
करती मीता की मित्र... मन में न जाने कितने तूफ़ानों की
हलचल झेलते हुए भी निश्चल, निस्पंद बैठे राजेंद्र'
इस दृश्य से ये संकेत भी
निकलते हैं कि राजेंद्र जी मूलतः सीधे व्यक्ति हैं जो
कस्बाई प्रेम के तिकोन का तिलिस्म तोड़ नहीं पाए। अविवाहित
लड़कियाँ इसीलिए विवाहित पुरुषों को प्रेमी का दर्जा देती
हैं क्यों कि इसमें दोहरा सुख है। खुद को संचित कर किसी और
को वंचित करने का। राजेंद्र जी शातिर होते तो कभी मीता को
वचन न देते, 'शादी मैंने ज़रूर मन्नू किसी से कर ली है, पर
तुम्हारा-हमारा संबंध तो जैसा है वैसा ही रहेगा।'
पूरक प्रसंग में बड़ी
परिपक्वता के साथ मन्नू जी ने इस समानांतर दुनिया और जीवन
का विश्लेषण किया है। ऊपर दिए गए दृश्य की याद कर अब
उन्हें हँसी भी आ जाती है, लेकिन जिन युवा वर्षों में
उन्हें इस तथ्य का पता चला वे निश्चित ही कठिन रहे होंगे।
इसीलिए मन्नू जी ने तय किया, 'इस संबंधहीन संबंध को लेकर
कहाँ खड़ी रहूँगी... कैसे खड़ी रहूँगी और खड़ी भी क्यों
रहूँ? राजेंद्र को अपने से मुक्त कर देना है या फिर अपने
को राजेंद्र से मुक्त कर लेना है?' इस पुस्तक में लेखिका
ने अपने समय के राजनीतिक और सामाजिक संक्रांति-बिंदुओं का
भी उल्लेख किया है। आठवें दशक में लगा आपातकाल, कांग्रेस
की पराजय, जनता सरकार का कार्यकाल, बेलछी गाँव में हुआ
दलितों का जनसंहार, जिसने 'महाभोज' का लिखा जाना संभव किया
और उन्नीस सौ चौरासी में इंदिरा गांधी हत्याकांड के बाद
हुए दंगे। वे एक तरह से देशकाल का सिंहावलोकन करती हैं,
लेकिन पाठक के मन में करुण राग की तरह, दांपत्य से उनका
मोहभंग टँगा रह जाता है। भारत भर के इतने पुरातत्वविद इस
बात की चिंता करते हैं कि आगरे में स्थित उस विशाल ताजमहल
में एक सूत भी दरार न पड़ने पाए। बुद्धिजीवी समाज को इसकी
चिंता होनी चाहिए कि रिश्तों के छोटे-छोटे ताजमहलों में भी
टूट-फूट न हो। प्रेम कहानियों को बचा सकना महज प्रेमियों
के हाथ नहीं होता, एक युग के सपने उनमें गुँथे हुए होते
हैं। इसी वजह से जब लेखिका इस प्रसंग को अपनी ज़िंदगी से
खारिज, बेदखल करती है तो एक उदासी के साथ हम पुस्तक बंद कर
रख देते हैं। यों यह पुस्तक बार-बार पढ़ी जाएगी। हर पाठ नए
अर्थ के वातायन खोलेगा।
ममता
कालिया
४ अगस्त २००९ |