रचनाकार
मोहन राकेश
*
प्रकाशक
राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट
दिल्ली
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(मोहन राकेश के
संपूर्ण नाटक के रूप में संग्रह उपलब्ध है।)
पृष्ठ -
४७०
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मूल्य : १९.९५ डॉलर
*
प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह
वेब पर
दुनिया के हर कोने में
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आषाढ़ का एक दिन (नाटक)
आषाढ़ का एक दिन’ आषाढ़ का एक
दिन की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित
है। किन्तु मूलत: वह उसके प्रसिद्ध होने के पहले की प्रेयसी
का नाटक है-एक सीधी-सादी समर्पित लड़की की नियति का चित्र,
जो एक कवि से प्रेम ही नहीं करती, उसे महान होते भी देखना
चाहती है। महान वह अवश्य बनता है, पद इसका मूल्य मल्लिका
अपना सर्वस्व देकर चुकाती है। अंत में कालिदास भी उसे केवल
अपनी सहानुभूति दे पाता है, और चुपके से छोड़कर चले जाने के
अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ता। मल्लिका के लिए कालिदास
उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के, जीवन में, साथ एकाकार सुदूर
स्वप्न की भाँति है, कालिदास के लिए मल्लिका उसके
प्रेरणादायक परिवेश का एक अत्यन्त जीवंत तत्व मात्र। अनन्यता
और आत्मलिप्तता की इस विसदृश्यता में पर्याप्त नाटकीयता है, और
मोहन राकेश जिस एकाग्रता, तीव्रता और गहराई के साथ उसे खोजने
और व्यक्त करने में सफल हुए हैं वह हिन्दी नाटक के लिए
सर्वथा अपरिचित है।
इसके साथ ही समकालीन अनुभव और भी कई आयाम इस नाटक में हैं जो
उसे एकाधिक स्तर पर सार्थक और रोचक बनाते हैं। उसका नाटकीय
संघर्ष कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और
कर्म, कलाकार और राज्य, आदि कई स्तरों को छूता है। इसी
प्रकार काल के आयाम को बड़ी रोचक तीव्रता के साथ प्रस्तुत
किया गया है-लगभग एक पात्र के रूप में। मल्लिका और उसके
परिवेश की परिणति में तो वह मौजूद है ही, स्वयं कालिदास भी
उसके विघटनकारी रूप का अनुभव करता है। अपनी समस्त
आत्मलिप्तता के बावजूद उसे लगता है कि अपने परिवेश में टूटकर
वह स्वयं भी भीतर कहीं टूट गया है।
किन्तु शायद कालिदास ही इस नाटक का सबसे कमज़ोर अंश है,
क्यों कि अंतत: नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी
मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है, न
इतिहास-प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उसके माध्यम
से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को, कोई गहरा विश्वसनीय
आयाम ही दे पाता है। नाटक में प्रस्तुत कालिदास बड़ा क्षुद्र
और आत्मकेन्द्रित, बल्कि स्वार्थी व्यक्ति है।
साथ ही उसके व्यक्तित्व में
कोई तत्व ऐसा नहीं दीख पड़ता जो उसकी महानता का, उसकी
असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा का, स्रोत समझा जा सके या उसका
औचित्य सिद्ध कर सके। राज्य की ओर से सम्मान और निमंत्रण
मिलने पर वह नहीं- नहीं करता हुआ भी अंत में उज्जैन चला ही
जाता है, कश्मीर का शासक बनने पर गाँव में आकर भी मल्लिका से
मिलने नहीं आता, अंत में मल्लिका के जीवन की उतनी करुण, दुखद
परिणति देखकर भी उसे छोड़कर कायरतापूर्वक चुपचाप खिसक पड़ना
संभव पाता है- ये सभी उसके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष हैं जो
उसको एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति के रूप में ही प्रकट करते
हैं। निस्संदेह, किसी महान सर्जनात्मक व्यक्तित्व में महानता
और नीचता के दो छोरों का एक साथ अंतर्ग्रथित होना संभव है। |
‘आषाढ़ का एक दिन’ में
कालिदास का हीन रूप ही दीख पड़ता है, महानता को छूने वाले
सूत्र का छोर कहीं नहीं नज़र आता। लेखक उसके भीतर ऐसे
तीव्र विरोधी तत्त्वों का कोई संघर्ष भी नहीं दिखा सकता है
जो इस क्षुद्रता के साथ-साथ उसकी असाधारण सर्जनशीलता को
विश्वसनीय बना सके। कालिदास की यह स्थिति नाटक को
किसी-किसी हद तक किसी भी गहराई के साथ व्यंजित नहीं होने
देती।
मोहन राकेश की गहरी सूझबूझ और शिल्पकुशलता ‘आषाढ़ का एक
दिन’ के सहायक और अपेक्षाकृत गौण पात्रों की परिकल्पना और
रूपायन में दिखाई पड़ती है। कालिदास का प्रतिद्वन्द्वी
विलोम वास्तव में उसका विलोम तो है ही, उससे अधिक जीवंत और
नाटकीय दृष्टि से अधिक विकसित पात्र भी है। नाटक के
कार्य-व्यापार में लगभग विस्फोटक तीव्रता और करुणा उसी की
उपस्थिति से पैदा होती है। उसे तथा कथित खलनायक कहकर नहीं
उड़ाया जा सकता। विलोम के बिना ‘आषाढ़ का एक दिन’ और भी
भावुकतापूर्ण और बेदह शिथिल नाटक रह जाता है। उसके तर्कों
में ही नहीं, उसकी पूरी जीवन दृष्टि में एक ऐसी अकाट्यता
और अनिवार्यता है कि उसकी गिनती हिन्दी नाटक के कुछ
अविस्मरणीय पुरुष पात्रों में होगी। कई प्रकार से विलोम
मोहन राकेश की एक अनुपम नाटकीय चरित्र-सृष्टि है।
विसदृशता के दो अन्य रोचक रूप हैं मल्लिका की मां अम्बिका,
और कालिदास का मामा मातुल। दोनों बुजुर्ग हैं, नाटक के दो
प्रमुख तरुण पात्रों के अभिभावक। दोनों ही अपने-अपने
प्रतिपालितों से असंतुष्ट, बल्कि निराश हैं। फिर भी दोनों
एक दूसरे से एकदम भिन्न, बल्कि लगभग विपरीत हैं। दोनों के
बीच यह भिन्नता संस्कार, जीवनदृष्टि, स्वभाव, व्यवहार,
बोलचाल, भाषा आदि अनेक स्तरों पर उकेरी गयी है। इससे
मल्लिका और कालिदास दोनों के चरित्र अधिक सूक्ष्म और
रोचकता के साथ रूपायित हो सके हैं। ऐसी ही दिलचस्प
विसदृश्यता विक्षेप और कालिदास तथा मल्लिका और
प्रियंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है।
इसी तरह बहुत संयत और प्रभावी ढंग से, व्यंग्य और सूक्ष्म
हास्य के साथ, समकालीन स्थितियों की अनुगूंज पैदा की गयी
है रंगिणा-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक की दो जोड़ियों के
द्वारा। ये थोड़ी ही देर के लिए आते हैं पर बड़ी कुशलता से
कई बातें व्यंजित कर जाते हैं। वास्तव में ‘आषाढ़ का एक
दिन’ की लेखन और प्रदर्शन दोनों ही स्तरों पर व्यापक सफलता
का आधार है उसकी बेहद सधी हुई, संयमित और सुचिंतित
पात्र-योजना। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘आषाढ़ का
एक दिन’ पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में देश की अनेक भाषाओं
में, अनेक केन्द्रों में बार-बार खेला गया है और अब भी
उसका आकर्षण चुका नहीं है।
नाट्य रूप की दृष्टि से ‘आषाढ़ का एक दिन’ सुगठित
यथार्थवादी नाटक है, जिसमें बाह्य ब्यौरे की बातों से अधिक
परिस्थिति के काव्य को अभिव्यक्त करने का प्रयास है। शायद
हिन्दी का यह पहला यथार्थवाद नाटक है तो वाह्य और आंतरिक
यथार्थ की समन्विति और अंतर्द्वंद्व को संवेदनशीलता के साथ
देखता और प्रस्तुत करता है। नाटक में कार्य-व्यापार के
संयोजन में गति पर्याप्त तीव्र ही नहीं है, उस तीव्रता के
भीतर लय की विविधता भी है, विभिन्न भावों और स्थितियों को,
विभिन्न पात्रों को, उस प्रकार आमने-सामने रखा गया है कि
वे अपने आप में नाटकीय
प्रभाव उत्पन्न करते हैं और परिवर्ती परिणति को भी यथासंभव
अनिवार्य और विश्वसनीय बनाते हैं। फिर भी तीसरे अंक में
मल्लिका के स्वागत-भाषण और कालिदास के लंबे एकालाप में गति
का संयोजन ठीक नहीं रहता। बल्कि कालिदास का प्रवेश जितना
नाटकीय है, उसका परिवर्ती भाषण उतना ही उद्घाटनमूलक होने
के कारण तीव्रता को कम करता है। चरम-बिन्दु के इतने समीप
पहुँचकर भाषण द्वारा स्थिति का उद्घाटन बहुत अच्छी नाटकीय
युक्ति नहीं, विशेषकर जबकि बाकी नाटक में राकेश
कार्य-व्यापार के द्वारा ही सफलतापूर्वक उद्घाटन करते रहे
हैं। पर तीसरे अंक की यही दुर्बलता शीघ्र ही नियंत्रण में
आ जाती है और द्वार खटखटाए जाने के बाद से नाटक बड़ी
दुर्दम्य और तीव्र गति से चरम परिणति की ओर
अनिवार्यतापूर्वक चलता जाता है।
निस्संदेह, हिन्दी नाटक के परिप्रेक्ष्य में, और भाववस्तु
और रूपबंध दोनों स्तर पर, ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त
सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है जैसा
हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है। उसमें भाव और स्थिति
की गहराई में जाने का प्रयास है और पूरा नाटक एक साथ कई
स्तरों पर प्रभावकारी है। बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय
प्रयोग के साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और
भाषा में ऐसा नाटकीय प्रयोग के साथ-साथ उसमें शब्दों की
अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है
जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए अभूतपूर्व है।
एक बात और। हिन्दी के ढेरों तथा कथित ऐतिहासिक नाटकों से
‘आषाढ़ का एक दिन’ इसलिए मौलिक रूप में भिन्न है कि उसमें
अतीत का न तो तथाकथित विवरण है, न पुनरुथानवादी गौरव-गान,
और न ही वह द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की शैली में कोई
भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ रचने की कोशिश करता है।
उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक और सूक्ष्म है जिसके कारण
वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरुआत का सूचक है।
(आषाढ़ का एक दिन की भूमिका से साभार)
३ नवंबर
२००८ |