आज सिरहाने | ||
कवि *
प्रकाशक * पृष्ठ - 136 * मूल्य - 160 रुपए * |
उखड़े हुए पौधे का बयान (कविता संग्रह) अभिरंजन कुमार के कविता संग्रह 'उखड़े हुए पौधे का बयान' को पढ़ते हुए मुख्य बात जो सामने आती है, वह यह है कि यदि कवि पत्रकार भी है, तो उसमें समाज को देखने की दृष्टि सामान्य लेखक से भिन्न अवश्य होगी। इतना ही नहीं, उसके अंतर में जो विश्लेषणात्मक तर्क शक्ति है, वह भी किसी व्यक्ति, समाज या देश को एक अलग नज़रिये से देखती होगी। 'उखड़े हुए पौधे का बयान' की ज़्यादातर कविताओं में एक गरमाहट भरी चेतना है। इनमें इतनी आग है कि अभिरंजन सिर्फ़ कवि नहीं, एक आंदोलनकारी की शक्ल में सामने आते हैं। अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाते हुए उन्होंने सबकी ख़बर ली है और किसी को नहीं बख़्शा है। मसलन 'भूखा बचपन' कविता की ये पंक्तियाँ देखें- 'अगर किसी नेहरू-कुल में पैदा होता, तो जन-गण-मन अधिनायक बनता। नालायक़ होकर भी ऐसा लायक़ बनता, लिखता फिर वह औरों की तक़दीर ...कि बनता भारत भाग्य विधाता। सभी भाँड़ की तरह डोलते आगे-पीछे।' इसी कविता में अभिरंजन आगे लिखते हैं- 'महिलाओं को बाँझ बना दो, पुरुष नपुंसक हो जाएँ, पर हे प्रभु मत कभी भेजना फिर धरती पर भूखा बचपन।' किसी भूखे बच्चे को देखकर पीड़ा, आक्रोश और ग्लानि की इससे बड़ी अभिव्यक्ति कुछ नहीं हो सकती। 'दोगली होती सोच', 'बुद्धिजीवी की दुकान', और 'आदमी और पुतले' जैसी कविताएँ हर वाक्य पर झकझोरती हैं। 'दुकान में बैठकर लिखता हूँ', 'विश्व सुंदरी झोंपड़े में आई', 'सभ्यता का नया साहूकार', 'रत्नाकर उर्फ वाल्मीकि से साक्षात्कार' और 'तमाशा' जैसी कविताओं के ज़रिए कवि ने अपने समाज के सच को उघाड़कर रख दिया है, जिसमें व्यवस्था विरोध का आक्रोश और ग़ुस्सा कूट-कूटकर भरा है। यह स्वाभाविक भी है, क्यों कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम न तो आदर्श समाज की स्थापना कर पाए हैं और न व्यक्ति की चेतना को ही उस स्तर तक ला पाए, जहाँ से इस व्यवस्था को ठीक करने की समझ और कोशिश पैदा होती है। |
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बाल साहित्य में अपनी पहचान पुख्ता कर चुके अभिरंजन ने 'पिता से अपील' और 'बच्चों मुझे माफ़ कर देना' जैसी कविताओं के ज़रिए अपने को इस चिंता से भी जोड़ा है कि आगे की पीढ़ियों के लिए कैसे इस दुनिया को जीने लायक हालत में छोड़ा जाए। फूलों-तितलियों और नदियों-पहाड़ों को बचाने की चिंता से लेकर इस संकलन में क़रीब-क़रीब हर मसले पर ऐसी तमाम पंक्तियाँ मिल जाती हैं, जिन्हें लोग जगह-जगह उद्धृत करना चाहेंगे। यही अभिरंजन की ताक़त भी है। संग्रह की शीर्षक कविता 'उखड़े हुए पौधे का बयान' भी अपने आप में एक मुकम्मल कविता है। ज्यों-ज्यों कविता विस्तार में आती है, कवि का बयान संश्लिष्ट होकर गहराइयों में तब सृजनात्मक तलाश करता है। यही तलाश अंतत: कविता तक पहुँचाती है। 'दो बूंद गीत' इस पुस्तक का महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसमें कवि ने सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों को अपनी कविता का प्रेरक बिंदु बनाया है। जैसे कि यह कविता देखें - 'दिल्ली ऊँचे महलों वाली, कर बौनों की बंद दलाली। हर ऊँचाई ऊँची होती, बहुत बुरा यह भ्रम तेरा है, जो हम पर है चक्रव्यूह-सा, तुम पर प्रश्नों का घेरा है।' या फिर 'चालू आहे नंगा नाच' कविता में 'गुंडे खंभा नंबर पाँच' और 'नंगे करते संस्कृति तय' जैसी पंक्तियाँ। 'अक्षर के मोर' जैसी कविताएँ कवि के विचार एवं भाव की दुनिया को ठीक तरीके व्यक्त कर पाती हैं। अभिरंजन कुमार ने कुछ तीखी व्यंग्य कविताएँ भी लिखी हैं। इन कविताओं में व्यंग्य के साथ-साथ विडंबना का चित्रण अधिक है, इसलिए यहाँ भी कवि की तीसरी आँख वर्तमान के हालातों को तार-तार करने पर आमादा है। अभिरंजन ने इस कविता संग्रह में गद्य को भी शामिल किया है। इसे यदि पुस्तक की भूमिका के रूप में देखा जाए, तो कवि का यह सवाल भी वाजिब लगता है कि क्या कविता के पाठक नहीं रहे? इस भूमिका के माध्यम से अभिरंजन कविता के पाँचवें पाठक के बारे में कुछ कहने को आतुर हैं। हिंदी कविता के चार मुकम्मल पाठक हैं - कवि, कंपोजिटर, प्रकाशक और संपादक। पाँचवाँ पाठक तो आम आदमी है। वहाँ तक कविता नहीं पहुँचती। यह स्थिति दुखद है और इस पर विचार होना ही चाहिए। अभिरंजन के शिल्प में भी ताज़गी और नयापन है। 'स्वच्छंद छंद' देखने और विचार करने लायक है। नई सोच, नई ऊर्जा और नये प्रयोगों के साथ एक बिल्कुल अलग तरह की और बार-बार पठनीय किताब लेकर आने पर मैं उन्हें अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। (यह समीक्षा 5जुलाई 2005 को लिखी गई थी)
-कमलेश्वर |